सोशल मीडिया के इस यग में ये बात बहुधा सुनाई
देती है कि पहले ब्लॉग ने फिर फेसबुक ने साहित्य का लोकतंत्रीकरण कर दिया। सुनाई
तो यह भी देता है कि साहित्यिक पत्रिकाओं उसके संपादकों और आलोचकों के दंभपूर्ण
एकाधिकार को फेसबुक आदि ने ध्वस्त कर दिया। इस तरह की कई बातें कही जाती हैं कि अब
हिंदी में आलोचना की जरूरत नहीं रही, आलोचकों पर रचनाकारों की निर्भरता समाप्त हो
गई आदि-आदि। ये सारी बातें इसी माध्यम पर सुनाई देती हैं, यहीं इसको लेकर बातें
होती हैं, बहुधा हिकारत भरे स्वर में आलोचना को आलूचना आदि कहा जाता है। एक तरफ तो
इस तरह की बातें और दूसरी तरफ हजारों कवियों की हजारों कविताएं फेसबुक पर हर रोज पढ़ने
को मिलती हैं। इन कविताओं को लाइक और कमेंट्स भी मिल जाते हैं लेकिन इनमें कविता
के तत्व कम तुकबंदी ज्यादा होती है। छोटी पंक्ति और बड़ी पंक्तिवाली कविताओं की
भरमार होती है। इन कविताओं को देखने के बाद लगता है कि कविता लिखना दुनिया का सबसे
आसान काम है। देखना जानबूझकर कह रहा हूं क्योंकि कई बार नजरों के सामने आने के बाद
यहां कविताओं को ज्यादातर पाठक देखकर ही निकल जाते हैं, पढ़ते नहीं हैं।
निश्चित तौर पर तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन
फेसबुक पर लिखी जा रही कविताओं को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि हिंदी कविता इस
वक्त बहुत विपन्न है। किसी विद्वान ने कहा है कि कवियों का आकलन तीन कसौटियों पर
किया जा सकता है, कवि की व्यक्तिगत कसौटी, जिस युग में वो जी और रच रहा है उस युग
की कसौटी और इतिहास की कसौटी। इस वक्त रचनाकर्म में लीन कवियों का आकलन भी इन
कसौटियों पर किया जाना चाहिए, खासतौर पर उन कवियों का जो बिल्कुल युवा है और तकनीक
में दक्ष भी हैं। इन दक्ष कवियों में से ज्यादातर इन कसौटियों पर खरे नहीं उतरते
हैं। खरे उतरना तो दूर की बात उनकी कविताओं में इन मानकों के संकेत भी कम ही मिल
पाते हैं। कवियों के बारे में हिंदी के आलोचक कहा करते थे कि वो भविष्यद्रष्टा
नहीं होता बल्कि उनकी रचनाओं में वर्तमान का प्रकटीकरण होता है । माना यह भी जाता
था कि कवियों की वर्तमान को देखने की दृष्टि होती है जिसको वो अपनी रचनाओं में
उतारते हैं, जिससे भविष्य की झलक दिखाई देती है। इस तरह के कवियों में जो वर्तमान
बोध दिखाई देता था वो भविष्य की कल्पना का भी दृष्य खींचता था। आचार्य़ रामचंद्र
शुक्ल ने भी कहा था कि ‘कविता को परिवर्तित समाजिक स्थितियों से घनिष्ठ
लगाव बनाकर चलना चाहिए। कविता से गतिरोध की स्थिति तभी समाप्त हो सकती है।‘ लेकिन फेसबुक पर इन दिनों जिस तरह की कविताएं आ
रही हैं उनमें से ज्यादातर को देखते हुए सामाजिक स्थितियों से घनिष्ठ लगाव जैसी
बात करना बेमानी है। कुछ वरिष्ठ कवि भी राजनीतिक नारेबाजी करके अपनी विचारधारा के
आकाओं को खुश करने की कोशिश करते नजर आते हैं।
सोशल मीडिया पर कविता की इस स्थिति को देखते हुए साहित्य
के लोकतंत्रीकरण वाले नारे और साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक और आलोचना से मुक्त
होने जैसे नारों की याद आती है। फेसबुक पर भले ही इस तरह के नारे लगते हैं लेकिन जब
गहराई से विचार किया जाए तो ऐसा लगता है कि इससे साहित्य में एक अलग किस्म की
अराजकता पैदा हो गई। रचनात्मकता का नुकसान भी हुआ। अब किसी प्रकार की कोई छलनी
नहीं रही जो रचनाओं को शुद्ध कर सके। फेसबुक पर लिखने और फौरन प्रसिद्ध होने की
लालसा ने हिंदी कविता का इतना नुकसान किया है जिसका आकलन होना शेष है। प्रसिद्ध
होने की इस आपाधापी में स्तरीयता से कितना समझौता हुआ इस बारे में विचार किया जाना
चाहिए। पहले साहित्यिक पत्रिकाओं में छपने के लिए आपको संपादक की कठोर दृष्टि से
गुजरना पड़ता था। एक ऐसी दृष्टि जो कठोर तो होती थी लेकिन उसकी अपेक्षाओं पर खरे
उतरने के बाद रचनाओं चमक जाती थीं। अब उस संपादकीय दृष्टि की जरूरत नहीं समझी जा
रही है लिहाजा जिसके जो मन में आ रहा है वो कविता के नाम पर ठेले चला जा रहा है। फेसबुक
पर सबके अपने अपने साथी-संगी हैं जो बिना पढ़े उसको लाइक और वाह वाह कर दे रहे
हैं। नतीजा यह हो रहा है कि औसत और औसत से नीचे लिखनेवाले कवि भी खुद को महाकवि
निराला के समकक्ष मानने लगते हैं। संपादक के नहीं होने का एक और नुकसान है कि
नवोदित कवियों और लेखकों को समझानेवाला नहीं रहा। कच्ची रचनाओं को पकाकर पाठकों के
सामने पेश करने वाली कड़ी नहीं रही। यह स्थिति कवि और पाठक दोनों के लिए अच्छी नहीं
कही जा सकती। पहले क्या होता था कि आप कविताएं भेजते थे, संपादक आपके साथ पत्र
व्यवहार करता था, आपकी रचनाओं की कमी बताता था, उसको बेहतर करने के तरीके बताता था
जिससे बेहतर कविताएं निकल कर सामने आती थीं। प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में
छपने की कसौठी बहुत कठिन होती थी।
जब किसी साहित्यिक पत्रिका से कोई रचना वापस
लौटती थी तो रचनाकारों के सामने एक चुनौतीपूर्ण स्थिति होती थी कि वो अपनी रचना का
स्तर बढ़ाए, एक जिद होती थी कि अमुक पत्रिका में छपना ही है। चुनौती और जिद की वजह
से बेहतर रचना और रचनाकार सामने आते थे। दो संपादक का तो मुझे अनुभव है जिनकी वजह
से अपने लिखे पर कई कई बार काम करना पड़ता था। राजेन्द्र यादव और ज्ञानरंजन। ये
दोनों नए लेखकों के साथ रचनाओं को लेकर गंभीर संवाद करते थे। ज्ञानरंजन के संवाद
में बहुधा वैचारिकता हावी रहती थी और राजेन्द्र यादव खुले मन से रचना को बेहतर
बनाने की बातें करते थे। फायदा तो लेखक का ही होता था। आज अगर आप देखें तो रचनाओं
को बेहतर बनाने की ये पद्धति लगभग समाप्त हो गई है। आज के ज्यादातर युवा लेखक खुद
को ही इतना बड़ा लेखक मानते हैं कि उनको इस तरह की पद्धति अपमानजनक लगती है। उनको
लगता है कि जो उन्होंने लिख दिया है वो ही सबसे अच्छी रचना है और अगर कोई कमी बता
दे या संशोधन सुझा दे तो वो और फेसबुक पर सक्रिय उनके गिरोह के साथी इतना हो हल्ला
मचाना शुरू कर देते हैं कि अप्रिय स्थित उत्पन्न हो जाती है। कई बार तो बात गाली
गलौच तक भी पहुंचते देखा गयी है। इससे सबसे अधिक नुकसान हिंदी साहित्य का हो रहा
है।
नुकसान तो इस बात से भी हो रहा है कि हिंदी में
इस वक्त कविता का कोई आलोचक नहीं है। जो दिग्गज वयोवृद्ध आलोचक हैं वो अब उतने
सक्रिय रहे नहीं। आज कविता आलोचना के क्षेत्र में एक सन्नाटा दिखाई देता है। सोशल
मीडिया पर लिखनेवाले कवि लाख कहें कि अब उनको आलोचकों की जरूरत नहीं है और वो सीधे
अपने पाठकों तक पहुंच रहे हैं लेकिन आलोचकों की जरूरत तो साहित्य को है। रचना की स्तरीयता
को पाठकों तक पहुंचाने और कविताओं के अर्थ को खोलकर पाठकों को बताने में आलोचकों
की भूमिका रही है। इसको नकारा नहीं जा सकता है। आज के कवियों के पास न तो कोई
रामविलास शर्मा हैं, न नामवर सिंह, न ही सुधीश पचौरी और न ही मैनेजन पांडे। इन
आलोचकों की एक महती भूमिका रही है और उन्होंने अपने दौर के कवियों पर लिखकर उनको
स्थापित किया। आज कोई रामविलास शर्मा नहीं दिखाई देते जो ‘निराला की साहित्य साधना’ लिख सकें। कविता लिखनेवाली आज की पीढ़ी के सामने
बड़ा संकट इस बात को लेकर है कि उनकी रचनाओं को मांजनेवाला और बेहतर करनेवाला
संपादक नहीं है और उनकी रचनाओं को पाठकों के बीचच ले जाकर उसका अर्थ खोलनेवाला
आलोचक भी नहीं है। इससे भी बड़ी चुनौती है इन कवियों द्वारा इन दोनों संस्थाओं के
नकार और सीधे पाठक से जुड़ जाने के दंभ का। नतीजा क्या हो रहा है कि हिंदी कविता
के परिदृष्य पर बुरी कविताओं ने अच्छी कविताओं को ढंक दिया है। फेसबुक पर छपनेवाली
कविताओं के लेखकों को साहित्य जगत में गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है क्योंकि
उनकी कविताओं को स्थापित करनेवाला आलोचक नहीं है। यह हिंदी साहित्य के लिए अच्छी
स्थिति नहीं है। आज अगर हम कविता की ओर दृष्टि उठाकर देखें तो संजय कुंदन,
बोधिसत्व, हेमंत कुकरेती, सुंदरचंद ठाकुर वाली पीढ़ी के बाद के कवि अभी भी वो
प्रतिष्ठा हासिल नहीं कर पा रहे हैं जो इस पीढ़ी को मिली। हिंदी साहित्य के लोगों
को इसपर विचार करना चाहिए कि इन कमियों को कैसे पूरा किया जाए। किस तरह से साहित्य
जगत में कविता और कथा के आलोचक सामने आ सकें। आलोचना कर्म बेहद श्रमसाध्य है,
उसमें बहुत अध्ययन की जरूरत होती है लिहाजा इस ओर कम लोग प्रवृत्त होते हैं।
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