दिल्ली में 1964 के आसपास रशियन सेंटर ऑफ साइंस
एंड कल्चर, जिसको साहित्यकार बोलचाल में रशियन कल्चर सेंटर कहा करते थे, एक बड़े
साहित्यिक और सांस्कृतिक केंद्र के तौर पर उभरा था। ये जगह सेंट्रल दिल्ली के
फिरोजशाह रोड पर था, अब भी है। रूस अपने साहित्य और संस्कृति को भारत में बढ़ावा
देने के लिए अपने साहित्यकारों की जयंति या उनकी पुण्यतिथि पर कार्यक्रम आयोजित
करता था जिसमें दिल्ली के साहित्यकरों की उपस्थिति हुआ करती थी। ये वो दौर था जब
साहित्य में सोवियत रूस समर्थित सिस्टम पल्लवित-पुष्पित हो रहा था। यहां नियमित
रूप से रूसी भाषा की फिल्मों का प्रदर्शन, नाटकों का मंचन और रचना पाठ और नई
कृतियों पर चर्चा हुआ करती थी। उस समय यहां इंडो-रशियन लिटरेचर सोसाइटी की
गतिविधियां हुआ करती थीं जिसमें बड़ी संख्या में साहित्य और कला प्रेमी जुटते थे।
उस वक्त इस सोसाइटी के कार्यक्रमों में भीष्म साहनी, कमर रईस, गंगा प्रसाद विमल,
गोपीचंद नारंग के अलावा उर्दू के कई लेखकों की नियमित भागीदारी हुआ करती थी। कभी
कभार राजेन्द्र यादव भी आया करते थे। गंगा प्रसाद विमल उस दौर को याद करते हुए
बताते हैं कि उस दौर में सोवियत रूस समर्थित सिस्टम का बोलबाला जरूर था लेकिन तब
गैर कम्युनिस्ट लेखकों को भी यहां आमंत्रित किया जाता था। हिंदी के नए लेखक यहां
इस उम्मीद से पहुंचते थे कि बड़े लेखकों और वैश्विक साहित्यिक लेखन से उनका परिचय
होगा। होता भी था। गर्मागर्म बहसें हुआ करती थीं। आलम ये था कि रशियन कल्चर सेंटर
उस दौर में दिल्ली के एक बड़े साहित्यिक केंद्र के रूप में स्थापित हो चुका था और
वहां हिंदी और उर्दू के तमाम लेखक आपस में मिलने जुलने भी पहुंचते थे। दिल्ली के
बाहर से भी अगर हिंदी का कोई लेखक आता था तो वो एक शाम रशियन कल्चर सेंटर जरूर
पहुंचता था। ये दौर करीब चार साल तक चला।
1968 में जब सोवियत रूस की अगुवाई में कम्युनिस्ट
चेकोस्लोवाकिया पर हमला हुआ था तो रूसी सेना को सफलता जरूर मिली लेकिन इस एक कृत्य
ने दुनिया के कम्युनिस्ट एकता को बड़ा नुकसान पहुंचाया था। चेकोस्लोवाकिया में
मार्क्सवादी लेनिनवादी मत पर चलनेवाली पार्टी की सरकार थी। लेकिन उस वक्त की सरकार
मार्क्सवाद के दायरे में रहकर सुधार कर रही थी जिसको जनता का भी भरपूर समर्थन मिल
रहा था। लेकिन सोवियत रूस वहां सुधारों को नहीं बल्कि रूढ़िवादी मार्क्सवादियों को
मजबूत करना चाहती थी। सोवियत रूस ने वार्सा संधि वाले कुछ देशों के साथ मिलकर
चेकोस्लोवाकिया पर हमला कर दिया था जिसमें डेढ़ सौ के करीब नागरिक मारे गए थे और
सैकड़ों जख्मी हो गए थे। इस हमले की पूरी दुनिया में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई थी। दिल्ली
के रशियन कल्चर सेंटर पर भी इसका असर देखने को मिला था। हिंदी के लेखक कम्युनिस्ट
रूस के इस हमलावर रुख से दो फाड़ में बंट गए थे। निर्मल वर्मा ने खुद को
कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर लिया था। रशियन कल्चर सेंटर में होनोवाली गोष्ठियों
में लेखकों की उपस्थिति कम होने लगी। इंडो रशियन लिटरेचर सोसाइटी भी कमजोर पड़ने
लगी थी और समें दिल्ली के लेखकों की उत्साहवर्धक उपस्थिति नहीं रही थी। इसके बाद
से ही यहां गैर कम्युनिस्ट लेखकों को शक की निगाहों से देखा जाने लगा। आयोजनों आदि
में भी ये विभाजन साफ तौर पर देखा जाता था। धीरे-धीरे यहां सिर्फ सोवियत समर्थक
लेखकों-कलाकारों का जमावड़ा लगने लगा था। 1980 में जब रूस में सुधारों का दौर शुरू
हुआ और 1987 से लेकर 1989 तक ये और भी जोर पकड़ने लगा तो इसका असर भी दिल्ली के
रशियन कल्चर सेंटर पर पड़ा था। अब फिरोजशाह मेहता रोड पर खड़ी रशियन कल्चर सेंटर
की इमारत में बहुत ही कम साहित्यिक गतिविधियां होती हैं। जो थोड़ी बहुत होती भी
हैं उनमें दिल्ली के बुद्धिजीवी वर्ग की उपस्थिति बहुत कम होती है। इमारत में भी
एक अजीब किस्म का उदास माहौल महसूस किया जा सकता है।
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