राजेन्द्र यादव ने कभी उपेन्द्रनाथ अश्क पर लिखा
था कि ‘शायद अपनी पीढ़ी में वो ही अकेले ऐसे हैं, जो
उम्र और अवस्था की सारी दीवारें तोड़कर नये से नये लेखक से उसी के धरातल पर मिल
सकते हैं, उसके कंधे पर हाथ मारकर हंसी मजाक कर सकते हैं और समान मित्र की तरह
सलाह दे सकते हैं-इसलिए भय या श्रद्धा के स्थान पर एक अजीब आत्मीयता का संबंध फौरन
स्थापित कर लेते हैं।‘ राजेन्द्र यादव ने जब ये लिखा होगा तो शायद वो ये
नहीं जानते होंगे कि वो भी ऐसे ही थे। दोनों में एक बुनियादी अंतर ये था कि अश्क
जी दुश्मनों के बिना रह नहीं सकते थे जबकि यादव जी दोस्तों के बिना रह नहीं सकते
थे। राजेन्द्र यादव की एक और खूबी ये थी कि वो दूसरे की लेखकीय प्रतिभा को उभारने
में बेहद उत्साह के साथ लगे रहते थे। उनको पता होता था कि कौन सा व्यक्ति क्या
बेहतर लिख सकता है। उनको बस अंदाज हो जाए फिर तो उसकी जान के पीछे पड़ जाते थे और
तबतक शांत नहीं बैठते थे जबतक कि उससे उस विषय पर लिखवा ना लें। उनमें लिखने के
लिए प्रेरित करने और लिखवा लेने की अतुलनीय क्षमता थी। यह अनायास नहीं था कि
साहित्यिक पत्रिका हंस के संपादन के बाद उनसे एक बहुत बड़ा लेखक वर्ग जुड़ा था। हंस
के प्रकाशन के बाद उनको कई तरह के विशेषणों से नवाजा गया। कई विवादों में घिरे
लेकिन निर्विवाद रूप से नए लेखकों के सबसे चहेते लेखक के तौर पर उभरे। हंस को
चलाने के लिए भले ही उनको कई तरह के दंदफंद करने पड़ते होंगे लेकिन बावजूद इसके वो
अंत तक लेखक ही बने रहे। कोलकाता में जब रहते थे तो एक दिन पता चला कि उनका नौकर
भी कहानियां लिखता है फिर तो उसके साथ लगातार बैठकी होने लगी। मन्नू भंडारी के
गुस्से का भी असर नहीं पड़ता था और वो नौकर से उसकी कहानियां सुनते और उसपर बात
करते और उसको कहानी की टेक्नीक पर ज्ञान भी देते।
हंस के दफ्तर में जिस तरह से या जिस सहजता के साथ
वो नए से नए लेखकों के अलावा अपने सहकर्मियों के बात करते थे कि लगता ही नहीं था
कि वो इतने बड़े लेखक है। बेहद गंभीर बात करते करते अचानक से इतनी हल्की बात कह
जाते थे कि वहां उपस्थित लोग सन्न रह जाते थे। तभी तो मन्नू भंडारी ने लिखा था कि उनके
व्यवहार में जाने ऐसा क्या है कि निकट रहनेवाले इनको कभी महान मान ही नहीं पाते
हैं। राजेन्द्र यादव की मां भी कुछ इसी तरह का कह करती थी, कैसे लोग अखबारों में
तेरा नाम छाप देते हैं, तुझे सभापति बना देते हैं! अब यहां
सड़क की सीढ़ियों पर ही बैठा है...! इस तरह की
टिप्पणियां उनके बेहद सहज व्यवहार की वजह से आती थी। दूसरी एक बात जिसको मन्नू
भंडारी ने ऱेखांकित किया है वो ये कि राजेन्द्र यादव अपनी चीजों को कभी खुला नहीं
छोड़ते थे ठीक उसी तरह से अपने मन की बात को कभी खुलकर नहीं करते थे। जब पत्नी का
ये अनुभव था तो मित्रों का क्या कहा जा सकता है। कुछ इसी तरह की बात कोलकाता के
उनके मित्र मनमोहन ठाकोर ने भी लिखी है कि अगर राजेन्द्र का वश चले तो वो अपनी
टूथपेस्ट और ब्रश को भी ताले में बंद करके रखे। मन्नू भंडारी ने माना कि राजेन्द्र
का ये स्वभाव उसके व्यक्तिगत जीवन में अविश्वास पैदा करता है। संभवत: मन न खोल पाने की यही गिरह राजेन्द्र यादव और
मन्नू भंडारी के अलग होने का कारण बनी हो। राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर और मोहन राकेश
के बीच काफी गहरी दोस्ती थी लेकिन उनके बीच अविश्वास की एक गहरी रेखा भी थी। इस
बाते के पर्याप्त संकेत कमलेश्वर पर लिखे उनके लेख मेरा हमदम मेरा दोस्त में मिलते
हैं। वो बहुत खुलकर कमलेश्वर की तारीफ भी करते हैं लेकिन दुश्यंत को उद्धृत करते
हुए उनको झूठा भी कह डालते हैं। मोहन राकेश और उनके बीच भी संबंध बेहद गहरे थे पर
अविश्वास भी था।
राजेन्द्र यादव विदेशी लेखकों को बहुत पढ़ते थे। मन्नू
जी ने कहा है कि विदेशी लेखकों की जीवनियां पढ़-पढ़कर यह धारणा इनके मन में गहरे
तक बैठ गई है कि दुहरी जिन्दगी महान लेखक बनने की अनिवार्य शर्त है। और उसमें ये
जोडा जा सकता है कि ये दुहरी जिंदगी वो जीवन के अंत तक जीते रहे। वो अपनी दुहरी
जिंदगी को सुविधानुसार स्वीकार भी करते थे, छिपाते भी थे। लेकिन स्वीकार-अस्वीकार
के इस खेल में एक खिलंदड़ापन भी होता था। विदेशी लेखकों को पढ़ने की ललक उनके मन
में अंत तक बनी रही। एमा डोनॉग की किताब ‘रूम’ जब प्रकाशित हुई थी और उनको जब इस उपन्यास के
कथावस्तु के बारे में पता चला था तो वो उसको पढ़ने के लिए मचलने लगे थे। बाद के
दिनों में आंख की तकलीफ की वजह से कम पढ़ पाते थे लेकिन मैगनिफाइंग ग्लास लगाकर
अपनी रुचि के मोटे-मोटे उपन्यास पढ़ जाते थे। पढ़ने की ये ललक उनके अंदर जीवनपर्यंत
बनी रही। इसका ही नतीजा था कि वो अपनी पत्रिका हंस में नित नए प्रयोग करते थे, नए
लेखकों से नए और लगभग अछूते विषयों पर लेख लिखवाते थे। कई बार वो चाहते थे कि हंस
में विदेशों में प्रकाशित अलग अलग भाषा की बदनाम किताबों पर कोई लिखनेवाला मिले। वो
हर तरह के साहित्य को पाठकों को सुलभ करवाना चाहते थे। वो इस बात की परवाह भी नहीं
करते थे कि इससे विवाद होगा। विवादों को वो समाज की जड़ता तोड़नेवाले औजार के तौर
पर देखते थे, इसलिए प्रयासपूर्वक विवादों को उठाते भी थे। कई बार साहित्यिक विवाद
तो कई बार गैर साहित्यिक विवादों को उठाने से भी उनको परहेज नहीं रहा था। उन्होंने
हंस के संपादकीयों के माध्यम से कई विवादास्पद मुद्दे उठाए थे। सामाजिक और
राजनीतिक विवाद से भी उनको परहेज नहीं था। कई बार वो विवादों में फंसे भी, उनके घर
से लेकर उनके दफ्तर के बाहर तक प्रदर्शन आदि भी हुए लेकिन फिर भी विवाद उठाने की
आदत से बाज नहीं आए। अपने मृत्यु के कुछ दिन पहले तक भी विवादों में घिरे रहे। इतना
विवादप्रिय लेखक हिंदी साहित्य में शायद ही कोई दूसरा हो।
1 comment:
अच्छा संस्मरण ... लेखक भी आम इंसान है उन कमियों और इच्छाओं के बिना कहाँ ...
बहुत बधाई आपको दीप पर्व की ...
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