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Saturday, February 22, 2020

यथार्थ की आड़ में कमी छिपाते निर्देशक


इन दिनों हिंदी फिल्मों के बदलाव को लेकर काफी बातें होती हैं। बदलाव की इन बातों में कथानक, फॉर्म, क्राफ्ट से लेकर तकनीक और संगीत तक पर चर्चा होती है। ये चर्चा होनी भी चाहिए। दरअसल सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जिसमें लगातार बदलाव करते रहने की जरूरत भी है क्योंकि दर्शक एकरसता से उब जाते हैं। हिंदी फिल्मों में आ रहे इन तमाम बदलावों के बीच पिछले तीन चार वर्षों से एक बात अधिक सुनने को मिल रही है कि अब हिंदी फिल्मों की कहानियां यथार्थ के ज्यादा करीब पहुंच रही हैं। विकी डोनर से लेकर दम लगा के हइशा, बरेली की बर्फी जैसी फिल्में बनीं और लोगों ने इसको पसंद भी करना शुरू किया तो छोटे शहरों की बड़ी कहानियों की बातें शुरू हो गईं। फिर मुल्क, आर्टिकल 15, पिंक जैसी फिल्में भी आईं जो सफलता के फॉर्मूले को न अपनाते हुए कहानी के साथ चलीं। सफल भी हुईं। 2015 में बनारस की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म मसान आई। बेहद शानदार फिल्म, कलाकारों का सधा अभिनय भी। इस तरह की फिल्मों को कालांतर में कंटेट फिल्म कहा जाने लगा। ये नामकरण ठीक वैसा ही है जैसे हिंदी में नई वाली हिंदी को चलाने की कोशिश की गई। कंटेंट फिल्म कहने का अभिप्राय चाहे जो भी रहा हो लेकिन इससे एक अलग भाव यह भी निकलता है कि सिर्फ इन्हीं फिल्मों में कंटेंट है और अन्य फिल्में कंटेंटविहीन हैं। ऐसा नहीं है, इस कोष्ठक से बाहर की फिल्मों में भी कंटेंट होता है। दरअसल जिन कथित फॉर्मूलाबद्ध फिल्मों से खुद को अलग दिखाने की कोशिश में कंटेंट फिल्मका नाम चलाने की कोशिश की जा रही है वो फिल्में पहले भी थीं और आगे भी रहेंगी।
 हिंदी फिल्मों के इतिहास पर नजर डालें तो ये बहस बहुत पुरानी है। आजादी के बाद जब राज कपूर फिल्में बना रहे थे तब भी उनके सामने ये प्रश्न आया था। तब ये थोड़े बदले हुए रूप में आया था जब फिल्मों को बौद्धिक और संवेदनशील फिल्मों की श्रेणी में बांटकर देखा जाता था। राज कपूर फिल्मों को बौद्धिक माध्यम नहीं मानते थे उनका मानना था ये माध्यम संवेदना से चलता है। और वो इस बात को कहते भी थे। राज कपूर की बात सच भी है। हिंदी फिल्मों के इतिहास में अबतक ज्यादातर दर्शकों को वही फिल्में पसंद आती हैं या आ रही हैं जो कहानी को संवेदना की जमीन पर बुनती हैं। संवेदना से अलग खुरदरे यथार्थ को पेश करनेवाली फिल्में थोड़े दिनों के लिए चर्चा तो हासिल कर सकती हैं लेकिन ये चर्चा बेहद अल्पजीवी होती है। इसका सबसे सटीक उदाहरण अनुराग कश्यप नाम के एक निर्देशक हैं। अबतक इस निर्देशक ने जितनी भी फिल्में बनाई हैं, उनमें से ज्यादातर एक खास वर्ग द्वारा प्रशंसित रही हैं, दर्शकों में व्याप्ति का दायरा बेहद छोटा रहा। कहा जा सकता है कि इन साहब की फिल्में सुपरफ्लॉप लेकिन क्रिटिकली अकेल्मड फिल्मों की स्मारक हैं। यथार्थ के नाम पर फूहड़ता और अश्लीलता परोसने में इनको महारथ हासिल है। खैर ये अलहदा विषय है जिसपर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी।
ये सही है कि इन दिनों हिंदी फिल्मों के विषय अपेक्षाकृत यथार्थ के करीब जाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन इस बात को रेखांकित करना भी आवश्यक है कि यथार्थ के करीब जाने में वो जीवन को जस का तस उठा कर रख देने की ओर भी बढ़ने लगे हैं। जीवन को जस का तस रखने का अर्थ है कि वो सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के उन प्रसंगों या उन घटनाओं को उसी तरह से फिल्मा कर दर्शकों के लिए पेश कर देना। व्यक्तिगत जीवन में कई ऐसे पल होते हैं जिनको सीधे सीधे फिल्मों में नहीं उतारा जा सकता है, उसको दिखाने की एक न्यूनतम मर्यादा अपेक्षित होती है। फिल्मों में जीवन जस का तस पेश करने की प्रवृत्ति पर ध्यान देने के लिए क्रेंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड है लेकिन इंटरनेट के माध्यम से चलनेवाले प्लेटफॉर्म पर पेश किए जानेवाले कंटेंट पर ध्यान देने की कोई प्रविधि अभी है नहीं। इसका नतीजा क्या है। यथार्थ के नाम पर फूहड़ता, अश्लीलता, भयानक हिंसा, जुगुप्साजनक यौनिक दृश्य का चित्रांकन। इस स्तंभ में ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म (ओटीटी) पर चलनेवाले वेब सीरीज को लेकर पहले भी कई बार चर्चा हो चुकी है। इस माध्यम के विनियमन को लेकर भी चर्चा हो चुकी है। सरकार ने वेब सीरीज की दशा और दिशा को लेकर एक-दो बैठक भी कर ली है। अबतक नतीजा कुछ नहीं निकला है। हो सकता है सरकार इन सीरीज पर पेश किए जा रहे कंटेंट को लेकर संतुष्ट हो गई हो।
अभी हाल ही में नेटफ्लिक्स पर एक सीरीज आई है नाम है जामताड़ा। दस एपिसोड में पेश किए गए इस सीरीज के केंद्र में झारखंड का कस्बा जामताड़ा है जहां से बैंक फ्रॉड की वारदात को अंजाम दिया जाता है। अब अगर इस सीरीज को ही देखें तो इसमें जीवन को जस का तस दिखाने की प्रवृत्ति के कई प्रसंग हैं। इस वेब सीरीज में गालियों की भरमार है, कोई भी एपिसोड ऐसा नहीं है, बल्कि ये भी कह सकते हैं कि लगभग सभी प्रसंगों में गालियां उपस्थित हैं। जामताडा के युवाओं को इस तरह से पेश किया गया है कि प्रतीत होता है कि वहां का युवा कोई वाक्य बगैर गाली के बोलता ही नहीं है। हद तो तब हो जाती है जब नायक अपनी प्रेमिका से प्रेम प्रसंगों में गाली में ही बात करता है। ये यथार्थ है या फिर सारी सामाजिक वर्जनाओं को छिन्न भिन्न कर मुनाफा कमाने की युक्ति। इसपर विचार करने की जरूरत है। सरकार से अधिक निर्माताओं और निर्देशकों को समझने की जरूरत है। जामताड़ा की भाषा को लेकर भी इस वेब सीरीज में घालमेल किया गया है। कनटाप शब्द कानपुर से इतना जुड़ा है कि हिंदी पट्टी का कोई भी व्यक्ति इसको जानता है। जब इस सीरीज जामताडा में वहां के स्थानीय लड़के अपने संवाद मे कनटाप का प्रयोग करते हैं तो ये संवाद लेखक से लेकर निर्देशक के अज्ञान को ही दर्शकों के सामने पेश करता है। इसके अलावा भी अगर इस वेब सीरीज को देखें तो जाति व्यवस्था को सूक्ष्मता से समझे बगैर पात्रों के जातीय वर्गीकरण को चित्रित करने की कोशिश की गई है। जामताडा में जिस सहजता के साथ अपराधी बैंक में पैसे जमा करते और निकालते हैं वो भी यथार्थ से दूर नजर आता है। अगर आप बैंकों के फ्रॉड को लेकर कोई सीरीज बना रहे हैं तो इसके लिए न्यूनतम शोध तो अपेक्षित ही होता है।
यथार्थ के नाम पर कहानी के लोकेशन और गाली वाली भाषा को पेश करने की जो भेड़चाल इस दौर की वेब सीरीज में दिखाई देती है उसपर भी विचार करना होगा। यथार्थ के चित्रण के लिए जिस कौशल की जरूरत होती है वो न तो अनुराग कश्यप में है और न ही गाली गलौच और अश्लीलता दिखाने वाले निर्देशकों में। दरअसल इस तरह के लोग अपनी कमजोरियों को ढ़कने के लिए गालियों, हिंसा और यौनिक दृश्यों का सहारा लेते हैं। इसका नतीजा ये होता है कि फिल्म या वेब सीरीज के क्राफ्ट या निर्देशकों के कौशल पर बात नहीं होती है और सारी चर्चा इन गालियों और फूहड़ता पर केंद्रित हो जाती है। समांतर सिनेमा के दौर में भी फिल्मों में यथार्थ दिखाया जाता था चाहे वो गोविंद निहलानी की फिल्में हों या श्याम बेनेगल की या महेश भट्ट की। इनकी फिल्मों में भी यथार्थ होता था, वैसा य़थार्थ जो बगैर लाउड हुए जीवन को दर्शकों के सामने पेश करता था। 1982 में महेश भट्ट निर्देशित एक फिल्म आई थी अर्थ। इस फिल्म में समाज का ऐसा यथार्थ है जिसकी चर्चा फिल्म बनने के करीब चार दशक बाद अब भी होती है। फिल्म का अंतिम दृश्य जिसमें नायिका शबाना और नायक कुलभूषण खरबंदा का संवाद है वो इतना पॉवरफुल है कि अब भी दर्शकों के मानस पटल पर अंकित है। उस यथार्थ के चित्रण में फिल्मकार का कौशल दिखाई देता था। उनको अपने कौशल पर भरोसा होता था और वो उसी भरोसे के आधार पऱ फिल्म बनाते थे और उसी कौशल ने उनकी फिल्मों को अबतक जिंदा रखा है, उसकी चर्चा होती है। अब जिस कंटेंट फिल्म की चर्चा हो रही है उसको कबतक याद रखा जाएगा ये तो आनेवाले समय में पता चलेगा। लेकिन यथार्थ की आड़ में अपनी कमी छुपाने वाले निर्देशक इतिहास में गुम हो जाएंगे इस बात को समझने के लिए किसी समय का इंतजार नहीं करना होगा।  

Thursday, February 20, 2020

पुरस्कार से उठते विवादों के बोल


हिंदी फिल्मों के लंबे इतिहास में पुरस्कारों को लेकर विवाद उठते रहे हैं। ताजा विवाद उठा है गीतकार मनोज मुंतशिर के एक फैसले से। इस वर्ष के फिल्मफेयर अवॉर्ड की घोषणा के बाद मनोज मुंतशिर ने ट्वीटर पर ये एलान किया कि वो अब किसी अवॉर्ड फंक्शन का हिस्सा नहीं होंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि वो इस बात से खफा हो गए कि फिल्म केसरी के लिए लिखे उनके गीत की बजाए गली बॉय के गीत अपना टाइम आएगा को फिल्मफेयर अवॉर्ड से पुरस्कृत कर दिया गया। मनोज इतने क्षुब्ध हो गए कि उन्होंने यहां तक कह दिया कि अगर वो अब भी अवॉर्ड का ध्यान रखते हैं तो ये उनकी कला का अपमान होगा। मनोज मुंतशिर अपने लिखे गीत को पुरस्कृत गीत से बेहतर मानते हैं इस वजह से दुखी हैं। उन्होंने अपने दुख को सार्वजनिक भी किया, बाद में उनका एक बयान भी प्रकाशित हुआ कि पूरा देश उनके साथ खड़ा है और गीत तेरी मिट्टी किसी भी पुरस्कार से परे है। मनोज मुंतशिर ने जिस तरह से पूरे मसले को सामने रखा उसको देखते हुए मुझे यतीन्द्र मिश्र की पुस्तक लता सुरगाथा का एक प्रसंग याद आ गया जिसमें लता जी कहती हैं आपसे एक दिल की बात शेयर कर रही हूं, वह यह कि मुझे पूरी उम्मीद थी कि वो कौन थी के लिए मदन मोहन को फिल्मफेयर पुरस्कार मिलेगा। उनको वह नहीं मिला, इसके लिए मुझे व्यक्तिगत तौर पर बहुत दुख हुआ था। मैंने मदन भैया से उनके घर जाकर यह व्यक्त भी किया था कि मुझे उम्मीद थी कि ये पुरस्कार इस साल आपको मिलेगा, मगर नहीं मिला। इसपर मदन भैया ने मुझसे कहा था, लता! तुमको अगर यह लगता है कि मुझको ये पुरस्कार मिलना चाहिए था और तुम्हें इस बात से तकलीफ है कि मुझे यह नहीं मिला, तो समझ लो कि मुझे यह पुरस्कार आज मिल गया। इससे बड़ा पुरस्कार मेरे लिए क्या होगा कि तुम्हें लगता है और न मिलने का दुख है। मनोज का लिखा गीत भी देश के लाखों लोगों को पसंद है यही उनका पुरस्कार है।
फिल्मफेयर अवॉर्ड को लेकर हमेशा से विवाद होते रहे हैं और हिंदी फिल्मों से जुड़े ज्यादातर लोगों को इसकी हकीकत पता भी है। इस हकीकत को ऋषि कपूर ने अपनी आत्मकथा खुल्लमखुल्ला में बयां भी किया है। अपने और अमिताभ बच्चन के संबंधों पर ऋषि कपूर ने लिखा है कि फिल्म कभी-कभी की शूटिंग के दौरान उनके और अमिताभ के बीच शीतयुद्ध जैसी स्थिति थी और दोनों में बातचीत भी नहीं होती थी। ऋषि को लगता था कि अमिताभ इस बात से खफा थे कि ऋषि को बॉबी फिल्म के लिए फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला था क्योंकि उनको लगता था कि उसी साल रिलीज हुई फिल्म जंजीर के लिए ये पुरस्कार उनको मिलना चाहिए था। ऋषि कपूर ने असली कहानी इसके बाद बताई, दरअसल वो पुरस्कार मैंने खरीदा था, मैं अनुभवहीन था और मेरा एक पीआरओ था तारकनाथ गांधी, उसने मुझसे कहा कि सर तीस हजार दे दो तो आपको मैं अवॉर्ड दिला दूंगा। मैंने बगैर कुछ सोचे समझे उसको तीस हजार दे दिए। तब मेरे सेक्रेटरी घनश्याम ने भी मुझे कहा था कि सर देते हैं, मिल जाएगा अवॉर्ड इसमें क्या है।तीस हजार रुपए देने के बाद उस साल का फिल्मफेयर अवॉर्ड ऋषि कपूर को मिल गया। बाद में किसी ने अमिताभ बच्चन को सारी बातें बता दीं। ऋषि कपूर के फिल्मफेयर पुरस्कार खरीदने की बात जानकर अमिताभ नाराज हो गए थे। इस तरह से देखा जाए तो फिल्मफेयर अवॉर्ड की निष्पक्षता और पारदर्शिता पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं। मनोज मुंतशिर जो बात कहते हैं कि उनके गीत पुरस्कारों से परे हैं तो उसको ही सार्वजनिक जीवन में जीना भी चाहिए।   



Saturday, February 15, 2020

वैचारिक जकड़न से आजाद होते उपन्यास

हिंदी कथा परिदृश्य की अगर बात करें तो हम पाते हैं कि पिछले कुछ सालों में इसने अपने भूगोल का विस्तार किया है। वामपंथी विचार के प्रभाव में खास तरह की कहानियां या उपन्यास लिखे जा रहे थे। ये दौर बहुत लंबे समय तक चला और एक खास तरह की फॉर्मूलाबद्ध कहानियां और उपन्यास लिखे जाते रहे। एक गरीब होगा, उसका संघर्ष होगा, समाज के प्रभावशाली व्यक्ति के गरीबों के शोषण का चित्र होगा, उसमें लंबे लंबे वैचारिक आख्यान होगें और फिर कई बार सुखांत को कई बार दुखांत होगा। ये कथा-प्रविधि चलती रही। कुछ लेखक इससे हटकर भी लिखते रहे लेकिन जोर इसी तरह के लेखन का रहा। दुनिया को बदलने का स्वप्न देखनेवाले कथा लेखक अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता की वजह से अपनी कहानियों या उपन्यासों को भी दुनिया को बदलने का औजार बनाते चले गए।  जब इस तरह के औजार के प्रयोग हुआ तो उसने हिंदी के पाठकों को चौंकाया। लेकिन जब यही प्रविधि ज्यादातर लेखक लगातार उपयोग करने लगे तो पाठकों के बीच एक खास किस्म की ऊब पैदा हुई।
विचारधारा की जकड़न वाले ऐसे कथा लेखक इस बात का प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से उद्घोष भी करते रहे कि वो विचारधारा के पोषण के लिए और उसको मजबूत करने के लिए लिखते हैं। वो पाठकों की परवाह भी नहीं करते थे, बाजार की परवाह करना तो खैर उनकी मातृ-विचार के खिलाफ ही था। इसका दुष्परिणाम हिंदी साहित्य को झेलना पड़ा। एक समय ऐसा भी आया जब हिंदी साहित्य जगत में पाठकों की कमी को लेकर विमर्श शुरू हो गया। बड़े बड़े संस्थानों से लेकर साहित्यिक पत्रिकाओं में हिंदी के पाठकों की कमी का रोना रोते हुए लेख आदि छपने लगे। पाठकों की कमी की बात जब मुखर होने लगी तो उसी दौर में ये बाते में भी सामने आने लगीं कि हिंदी के कहानी संग्रह और उफन्यासों का संस्करण तीन सौ प्रतियों का होने लगा। लेकिन कभी भी इस बात की पड़ताल करने की कोशिश नहीं की गई कि पाठक क्यों कथा साहित्य से दूर जाने लगे हैं। लेखकों ने पाठकों की रुचि का ध्यान नहीं रखा और कहते भी थे कि वो रुचि का ध्यान रखकर लेखन नहीं कर सकते हैं। अगर बाजार की भाषा में इसको समझने की कोशिश करें तो कह सकते हैं कि वामपंथी लेखकों ने उपभोक्ता यानि पाठकों की रुचि का ध्यान नहीं रखा। वो रवीन्द्रनाथ टैगोर का कहा भी भूल गए। टैगौर साहब ने साहित्य की सामग्री नामक अपने लेख की शुरुआत में ही कहा था- केवल अपने लिए लिखने को साहित्य नहीं कहते हैं- जैसे पक्षी अपने आनंद के उल्लास में गाता है उसी प्रकार हम भी अपने आनंद में विभोर होकर केवल अपने लिए ही लिखते हैं, मानो श्रोता या पाठक का उस से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता। यह बात बिल्कुल निर्विवाद रूप से नहीं कही जा सकती कि पक्षी जब गाता है तब वह पक्षी समाज जरा भी उसके ध्यान में नहीं होता। यदि नहीं होता को न सही, इस बात पर तर्क करने से लाभ ही क्या है? परंतु यह तो मानना ही पड़ेगा कि लेखक की रचना का प्रधान लक्ष्य पाठक-समाज होता है।लेकिन वामपंथी लेखकों ने पाठक समाज को ध्यान में नहीं रखा उनका लक्ष्य तो कथा साहित्य से अपनी विचारधारा को पुष्ट करना था।  
जब वामपंथी विचारधारा का पराभव शुरू हुआ तो हिंदी साहित्य का कथा लेखन भी इस वैचारिक लेखन से मुक्त होने लगा। इसके बीच आर्थिक उदारीकरण के बाद के दौर में ही कथाभूमि में पड़ने शुरू हो गए थे। इक्कीसवीं सदी के आरंभ में बदलाव का ये पौधा उगना शुरू हो गया था और लोगों ने इससे अलग हटकर उपन्यास लिखना शुरू कर दिया था। इसी दौर में मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों ने अपनी नवीनता की वजह से हिंदी के पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया था। भगवानदास मोरवाल का उपन्यास रेत और मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास अल्मा कबूतरी ने पाठकों को कथा के ऐसे प्रदेश से परिचय करवाया जिस ओर जाने से हिंदी के उपन्यास लेखक हिचकते थे। इन दोनों उपन्यासों में लेखकों ने जिन समुदायों को कथा के केंद्र में रखा है उसके जीवन को पाठकों के सामने पेश करने की कोशिश की, मोरवाल ने कुछ हिचक के साथ तो मैत्रेयी ने बोल्ड होकर। हम इन दोनों उपन्यासों को विचारधारा से मुक्त होने का प्रस्थान बिंदु मान सकते हैं। हलांकि मोरवाल के उपन्यासों में उसके अवशेष यदा कदा दिख जाते हैं।
इसके बाद के कथा लेखन खास तौर पर उपन्यासों को देखें तो वहां वैचारिक प्रतिबद्धता को पाठकों की रुचि ने विस्थापित कर दिया। नए लेखकों ने विश्वविद्यालय कैंपस की जिंदगी को विषय बनाया और पाठकों ने उनको खूब पसंद किया। इनमें से कुछ लेखक अब कैंपस से बाहर निकल गए हैं और उन्होंने अपने दायरे का विस्तार कर लिया जबकि कई लेखक अब भी कैंपस के ही चक्कर लगा रहे हैं। इनमें से जो लेखक कैंपस से बाहर निकल गए हैं उनकी व्याप्ति बढ़ी है और जो कैंपस में ही अटके हैं उनसे अपेक्षा की जा रही है कि वो अपनी कथाभूमि का विस्तार करें। पिछले दो तीन सालों को देखें तो कथा भूमि का और विस्तार दिखाई देता है। अब उपन्यासों के विषयों में पहले की अपेक्षा अधिक विविधताएं दिखाई देने लगी हैं। हिंदी का लेखक समाज बहुत बड़ा है और उसी अनुपात में पुस्तकें भी प्रकाशित होती हैं। लेकिन जिन उपन्यासों ने अपनी विषयगत नवीनता की वजह से लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा उसमें पर्यावरण पर लिखा उपन्यास है, उसमें समाज में व्याप्त कानूनी असामनता को लेकर लिखा गया उपन्यास है। पिछले वर्ष के अंतिम महीने में दो ऐसे उपन्यास आए जिसने अपनी विशयगत नवीनता से पाठकों को चौंकाया। रत्नेश्वर ने फिर से पर्यावरण को अपने उपन्यास का विषय बनाया। उनका उपन्यास एक लड़की पानी पानी ने पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। इसमे रत्नेश्वर ने पानी की समस्या को बेहद रोचक तरीके से उठाया है। स उपन्यास के केंद्र में पानी की समस्या है, उपन्यास के पात्रों के बीच पानी की कमी को लेकर चलनेवाला विमर्श है जो भविश्य के खतरों के प्रति लोगों को आगाह भी करती है। इसी तरह से भगवानदास मोरवाल ने अपने नए उपन्यास वंचना में महिलाओं और बच्चों के लिए बनाए गए कानून की खामियों को विषय बनाया है। इस उपन्यास में मोरवाल ने बेहद सधे हुए अंदाज में संवेदनशील तरीके से उन स्थितियों की चर्चा की है। इन दोनों उपन्यासों में लेखकों के सामने अपनी कृतियों को पठनीय बनाए रखने की चुनौती थी जिसका सामना दोनों ने बखूबी किया। इस तरह के विषय हिंदी उपन्यासों के लिए पहले बिल्कुल नहीं सोचे गए थे। अगर लिखे गए हों तो संभव है कि मेरी नजर में ना आए हों। मार्क्सवादी लेखकों ने तो पर्यावरण को इस वजह से अपने लेखन में तवज्जो नहीं दी क्योंकि उनके आराध्य ने ही इस विषय पर कुछ नहीं देखा। दुनिया बदवे का स्वप्न देखते देखते बदलती हुई दुनिया उऩसे छूट गई।
ऐतिहासिक, पौराणिक और मिथकीय चरित्रों पर पहले भी लेखन होता था और अब उसमें काफी वृद्धि हुई है। राष्ट्रवाद के दौर में पाठकों की रुचि को ध्यान में रखकर ढेर सारे लेखकों ने महाभारत और रामायण के चरित्रों को लेकर उपन्यास लिखे। पहले नरेन्द्र कोहली ने अकेले इन विषयों पर विपुल लेखन किया जिसे बाद में अमीश से लेकर कई अन्य लेखकों ने बढाया। लेकिन पिछले ही साल नरेन्द्र कोहली का एक उपन्यास सागर मंथन प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने कथा के एक बिल्कुल नए क्षेत्र में प्रवेश किया जिसमें पौराणिकता के साथ साथ विज्ञान भी है। इस तरह से हम कह सकते हैं कि जो हिंदी में कथा साहित्य का जो मौदूदा दौर है उसको विचारधारा की गुलामी से मुक्त होने का दौर कह सकते हैं। उसको वर्तमान और भविष्य की चिंताओं को अपने अपने उपन्यासों का विषय बनाकर पाठकों के समक्ष ले जाने का जोखिम उठाने का दौर है। इस दौर को पाठकों या व्यापक हिंदी समाज की रुचियों की पूर्ति का दौर भी कह जा सकता है। यह अकारण नहीं है कि अब प्रकाशक लगातार सार्वजनिक तौर पर अपनी पुस्तकों के नए संस्करणों की बात करने लगे हैं। वो खुलकर ये बताने लगे हैं कि अमुक उपन्यास या अमुक पुस्तक की इतनी प्रतियां बिकीं। इस बदलाव को एक सुखद बदलाव के तौर पर भई देखा और रेखांकित किया जाना चाहिए। ये दौर उन आलोचकों के लिए भी चुनौती का दौर है जो सिर्फ उन्हीं पुस्तकों पर विचार करते रहे हैं जो उनकी विचारधारा के करीब रही है।

Wednesday, February 12, 2020

बल्लीमारान के ‘प्राण’


उर्दू के मशहूर शायर गालिब और हिंदी फिल्मों के शानदार अभिनेता प्राण दिल्ली की मिट्टी जोड़ती है। अपनी शादी के बाद गालिब अब के पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान में रहने चले आए थे वहीं अपनी शादी के बाद प्राण बल्लीमारान छोड़कर लाहौर चले गए थे। बल्लीमारान के एक खानदानी रईस परिवार में प्राण का जन्म हुआ था। प्राण के पिता लाला केवल कृष्ण सिकंद पेशे से सिविल इंजीनियर थे और ब्रिटिश हुकूम के दौरान सरकारी निर्माण का ठेका लिया करते थे। केवल कृष्ण सिकंद को सरकारी इमारतों, सड़कों और पुल बनाने का विशेषज्ञ माना जाता था और जहां भी सरकार को इस तरह का काम करवाना होता था तो वो उनको बुलाकर ठेके देती थी। सिकंद परिवार की बल्लीमारान ही क्या पूरी दिल्ली में बहुत प्रतिष्ठा थी और वो आर्थिक रूप से बहुत संपन्न थे। प्राण की जन्म तिथि को लेकर भी एक दिलचस्प कहानी है। प्राण बताते थे कि उनकी बुआ कहा करती थीं कि तुम्हारा जन्म 1920 के फरवरी के तीसरे सप्ताह में हुआ था। प्राण जब ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने पहुंचे तो फॉर्म में जन्मतिथि का कॉलम था लेकिन उनको तिथि पता नहीं थी। अपनी बुआ की फरवरी के तीसरे सप्ताह वाली बात याद करके उन्होंने 20 फरवरी की तारीख फॉर्म में भर दी, जो उनकी आधिकारिक जन्मतिथि बन गई। इस बीच प्राण एक अभिनेता के तौर पर मशहूर होने लगे थे और पत्र-पत्रिकाओँ में उनके बारे में छपने लगा था।
अचानक एक दिन प्राण को बल्लीमारान के एक निवासी का पत्र मिला। उन्होंने प्राण को लिखा कि एक लेख में मैंने आपकी जन्मतिथि 20 फरवरी 1920 पढ़ी है लेकिन मेरे पास इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं कि आपकी जन्मतिथि 12 फरवरी 1920 है। पत्र पढ़ने के बाद प्राण की उत्सुकता बढ़ी और उन्होंने पत्र का उत्तर लिखा और थोड़े चुनौती भरे अंदाज में उनसे पूछा कि आपके पास क्या प्रमाण है। कुछ दिन बीत गए। प्राण इस बात को भूल गए थे अचानक एक दिन वो अपनी डाक देख रहे थे तो एक लिफाफा में उनको अपना मूल जन्म प्रमाण पत्र दिखा जिसपर उनके जन्म की तिथि 12 फरवरी 1920 लिखी थी। प्रमाण पत्र के साथ उसी व्यक्ति का एक पत्र भी था जिसमें उन्होंने बताया था कि वो नगरपालिका का कर्मचारी था और उसने प्राण का जन्म प्रमाण पत्र देखा था। प्राण ने उस व्यक्ति को धन्यवाद का पत्र लिखा और तब से उनकी जन्मतिथि 12 फरवरी 1920 हो गई। 12 फरवरी 2020 को प्राण के सौ साल पूरे हो गए।
प्राण के पिता के पेशे की वजह से उनका स्थान परिवर्तन होता रहता था। जब भी कोई नया ठेका मिलता तो वो परिवार के साथ वहां शिफ्ट कर जाते। प्राण ने रामपुर के स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की। लेकिन प्राण का पढ़ाई में मन नहीं लगता था। मैट्रिक पास करने के बाद एक दिन उनके पिता ने बुलाकर पूछा कि आगे क्या पढ़ोगे तो प्राण ने कहा कि वो अब पढ़ना नहीं चाहते हैं और फोटोग्राफी सीखना चाहते हैं। कुछ दिनों तक सोचविचार करने के बाद प्राण के पिता लाला केवल कृष्ण सिकंद ने बेटे को अपने मन की करने की अनुमति दे दी लेकिन साथ ही एक शर्त भी लगा दी वो कनॉट प्लेस स्थित ए दास एंड फोटोग्राफर्स में प्रशिक्षण लें। प्राण को मालूम था कि ए दास एंड फोटोग्राफर्स के मालिक उनके पिता के दोस्त हैं तो वो भी तैयार हो गए। प्राण ने वहां फोटोग्राफी की ट्रेनिंग के साथ साथ फिल्म को डेवलप और प्रिंट करने की कला भी सीखी। अब यहां से नियति प्राण को अभिनय की ओर ले गई। ए दास एंड कंपनी ने शिमला में एक शाखा खोली तो प्राण को वहां भेज दिया। शिमला में रहकर प्राण ने फोटोग्राफी में निपुण तो हुए ही वहां ही पहली बार अभिनय भी किया। वहां आयोजित होनेवाली वार्षिक रामलीला में उन्होंने सीता का अभिनय किया। उस रामलीला में उनके साथ राम की भूमिका मदनपुरी ने निभाई थी जो बाद में हिंदी फिल्मों के मशहूर अभिनेता बने।
शिमला में अपने कारोबार से उत्साहित होकर ए दास एंड कंपनी ने लाहौर में अपनी दुकान खोली और प्राण को वहां भेज दिया। लाहौर की रामलुभाया की पान दुकान पर उस समय फिल्म यमला जट लिख रहे लेखक वली मुहम्मद वली ने प्राण को पान खाते देखा और उनका अंदाज इतना भाया कि उन्होंने वहीं उनको फिल्म का ऑफर दे दिया। प्राण ने ए दास कंपनी की सौ रुपए की नौकरी छोड़कर पंचोली आर्ट स्टूडियो की पचास रुपए की नौकरी कर ली। इस बीच ये खबर बल्लीमारन में रहनेवाले उनके पिता तक पहुंची। वो थोड़े झुब्ध हो गए क्योंकि उस वक्त फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था। प्राण के पिताजी ने उनको दिल्ली बुला लिया और फिल्म छोड़कर कोई और काम करने को कहा। प्राण फिर से ए दास एंड कंपनी से जुड़े लेकिन उनका मन नहीं लग रहा था। फिर घर के बड़े लोगों ने मिलकर तय किया कि उनकी शादी कर दी जाए। दिल्ली के ही एक संपन्न अहलूवालिया परिवार की लड़की से उनकी शादी तय कर दी गई। इस बीच उनके पिता का निधन हो गया। पिता के निधन के बाद प्राण फिर से फिल्मों में काम करने के लिए बल्लीमारान की गलियां छोड़कर लाहौर जा पहुंचे। लेकिन शादी तो तय हो चुकी थी। लड़की वाले प्राण के फिल्मों में काम करने को लेकर थोड़े सशंकित थे लेकिन उनकी लड़की और प्राण दोनों पहले मिल चुके थे और कह सकते हैं कि प्रेम भी अंकुरित हो चुका था। 1945 में प्राण की शादी हुई। शादी के बाद प्राण ने दिल्ली जरूर छोड़ा लेकिन पहले लाहौर और फिर मुंबई में रहते हुए वो बल्लीमारान को नहीं भूल पाए थे, उसकी गलियों को याद करते थे और याद तो वो कनॉट प्लेस में बिताए अपने दिनों को भी करते थे। ये भी कौन जानता था कि सीता जैसी महिला के किरदार से अभिनय की शुरुआत करनेवाले प्राण इस तरह के रोल करेंगे कि कोई अपने बच्चे का नाम प्राण नहीं रखेगा। खालिस दिल्ली की मिट्टी की खुशबू के साथ पला बढ़ा ये अभिनेता भारतीय सिनेमा में अपने दमदार अभिनय के बूते पर आज भी याद किया जाता है।  

Saturday, February 8, 2020

बेनकाब होने से क्रोधित कवि


मीडिया और उसकी भूमिका या उसके काम करने का तरीका एक ऐसा विषय है जिसपर घंटों बात हो सकती है, पक्ष में भी और विपक्ष में भी। मीडिया पर होनेवाली चर्चा में कुछ ऐसी बातें भी होती हैं जो पिछले कई सालों से बोली जा रही है यथा मीडिया चौराहे पर खड़ी है, मीडिया पर विश्वसनीयता का संकट है आदि आदि। इन सब जुमलेबाजियों के बीच मीडिया की अपनी साख कायम है, वो अपना विस्तार भी कर रही है। पर चर्चा है तो होती ही रहेगी। इसी तरह की एक चर्चा जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में रखी गई थी, विषय था चौथा स्तंभ। इसी तरह के कई जुमले वहां भी उछाले गए। पूर्व पत्रकार और अब राजस्थान के एक पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर विराजमान ओम थानवी, पांचजन्य के संपादक हितेश शंकर, पत्रकारिता पर नजर रखने का दावा करनेवाली एक वेबसाइट के कार्यकारी संपादक अतुल चौरसिया के साथ मैं भी इस चर्चा में शामिल था। चर्चा तो जैसी होनी चाहिए थी वैसी ही हुई।

इस तरह की चर्चा में अगर तैयारी के साथ वक्ता नहीं आते हैं तो वो राजनीति की उंगली पकड़कर अपना बेड़ा पार करवाना चाहते हैं। ओम थानवी ने यही किया और राजनीति की बात करते करते वो साहित्य के प्रदेश में जा पहुंचे। इस बात को रेखांकित करने लगे कि मीडिया ने सरकार का विरोध करनेवाले उऩ लेखकों को पुरस्कार वापसी गैंग का नाम दिया जिन्होंने कालबुर्गी की हत्या के बाद साहित्य अकादमी का अपना पुरस्कार लौटा दिया था। मैंने विस्तार से उनको बताया कि क्यों इन लेखकों को गैंग कहा गया। इस स्तंभ में साहित्य वाले हिस्से की चर्चा ही करूंगा क्योंकि चौथे स्तंभ पर बात करते करते वक्ता गांधी से लेकर गोडसे और नागरिकता संशोधन कानून से लेकर राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर तक चले गए थे। अतुल चौरसिया ने एक ऐसी स्थापना सामने रखने की कोशिश की जो बिल्कुल ही तथ्यहीन तर्क की बुनियाद पर टिकी थी। उन्होंने मोदी सरकार के पहले की सरकार को इस आधार पर उदारवादी बताया कि उनके समय में न्यूज चैनलों के लाइसेंस उदारता के साथ दिए जाते थे और मोदी के पूर्व के सरकारों में मीडिया फलता फूलता था। इसके लिए उन्होंने रजत शर्मा के इंडिया टीवी और एनडीटीवी का उदाहरण दिया। पर उत्साह में बहुधा चूक हो जाती है और अतुल भी चूक गए और उन्होंने यहां तक कह दिया कि मोदी के शासनकाल में सिर्फ अर्णब के चैनल को लाइसेंस दिया गया। मैंने प्रतिवाद किया और उनको मंच से ही बता दिया कि कितने चैनलों के लाइसेंस दिया गया। बाद में वो सोशल मीडिया पर और भी मनोरंजक सफाई देने में जुटे रहे। सूचना प्रसारण मंत्रालय की एक सूची लगाई लेकिन जो तर्क दिए वो भी गलत थे। दक्षिण भारत में कई हिंदीतर भाषाओं में क्षेत्रीय चैनल का प्रसारण कर रहे एक मीडिया समूह को राष्ट्रीय हिंदी चैनल चलाने की अनुमति भी मिली थी। वो चैनल शुरू भी हुआ। चल भी रहा है। कांग्रेस के एक नेता की पत्नी का चैनल भी शुरू हुआ।
दरअसल जब पिछले साल मेरी किताब मार्क्सवाद का अर्धसत्य प्रकाशित हुई थी तो कुछ वरिष्ठ लोगों में मुझसे कहा था कि झूठ की विचारधारा को अर्धसत्य क्यों कहा, तो कुछ साथियों ने इस बात पर चुटकी ली कि झूठ की विचारधारा से अर्धसत्य निकालने का काम मैं ही कर सकता हूं। लेकिन जैसे जैसे दिन बीतते जाते हैं तो मेरा विश्वास इस बात को लेकर दृढ़ होता जाता है कि अर्धसत्य को एक विचारधारा के तौर पर स्थापित करने में मार्क्सवादियों और उनके अनुयायियों या साथियों का बड़ा योगदान है। अशोक वाजपेयी मार्क्सवादी नहीं हैं, पूर्व में वामपंथ के मुखर विरोधी थे लेकिन बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में उनके समर्थक या साथी हैं। तमाम क्रांतिकारी कवि इन दिनों उनकी परिक्रमा करते नजर आते हैं। वो भी वामपंथियों के साथ रहते हुए अर्धसत्य को बढ़ावा देने की कला में माहिर हो गए हैं। पाठक इस बात को समझ सकते हैं कि अगर अवसर ही विचार हैं की अवधारणा अर्धसत्य के कंधे पर सवार हो जाए तो किस तरह की बातें सामने आ सकती हैं। अशोक वाजपेयी इन दिनों इसी मिश्रण के साथ साहित्य की भूमि पर खड़े नजर आते हैं।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में मीडिया पर हुई चर्चा के दौरान पूरे समय वो बैठकर सुनते रहे थे। चर्चा खत्म होने के बाद तमतमाते हुए मेरे पास पहुंचे थे और कहा कि आप मंच से सफेद झूठ बोलते हैं। इस प्रसंग की चर्चा उनके कॉमरेड ओम थानवी ने सोशल मीडिया पर लिखे एक पोस्ट में भी की। लेकिन ओम थानवी ने अश्वत्थामा हतो, नरो के बाद शंख बजा दिया और इस प्रसंग को छोड़कर आगे बढ़ गए। अर्धसत्य के आधार पर अपनी बात को सामने रखने का एक और उदाहरण। जब अशोक वाजपेयी ने मुझपर झूठ बोलने का आरोप लगाया तो मैंने वहीं बहुत विनम्रतापूर्वक उनको याद दिलाया कि साहित्य में एकमात्र सत्यवादी हरिश्चंद्र तो वही हैं। मैं चाहता था कि अशोक वाजपेयी तथ्यों के आधार पर बात करें लेकिन क्रोध हमेशा विवेक का दुश्मन होता है और उस वक्त वो क्रोधित थे। क्रोध में उन्होंने यहां तक कह दिया कि 69 लोगों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया था। ये संख्या भी गलत है। साहित्य अकादमी के युवा, अनुवाद, बाल पुरस्कारों को जोड़ने के बाद भी पुरस्कार वापसी की घोषणा करनेवाले 39 लेखक थे। घोषणा इस वजह से कि ना तो उनके पुरस्कार वापस हो सकते थे और ना ही उऩके द्वारा भेजी गई राशि वापस हो सकती थी। इनमें से भी कई लेखकों ने राशि का चेक वापस नहीं किया, कुछ ने चेक भेजा तो उसमें किसी का नाम नहीं लिखा था, कुछ ने स्मृति चिन्ह नहीं भेजा। इसके अलावा एक लेखक ने तो खेद जताकर पुरस्कार वापसी की अपनी घोषणा को रद्द भी कर दिया। अब अशोक वाजपेयी इतने भोले तो नहीं हैं कि उनको लेखकों की इस चतुराई का पता ना हो। पकी आंखों से साहित्य की राजनीति करनेवाले अशोक वाजयेपी को ये भी मालूम होगा कि पुरस्कार वापस करने की घोषणा करनेवाले कई लेखक अब छाती ठोककर अपनी पुस्तक पर छपे अपने परिचय में अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखक लिखते हैं। और तो और जो साहित्य अकादमी परिसर में कदम नहीं रखने की कसम खा चुके थे वो भी अब अकादमी की बैठकों में ना केवल शामिल होते हैं बल्कि अकादमी से बैठक में शामिल होने का मानदेय भी लेते हैं।
कोई भी व्यक्ति क्रोधित तब होता है जब उसके तर्क चुक जाएं। पुरस्कार वापसी अभियान पर अशोक वाजपेयी जब भी मुंह खोलते हैं तो उनका कहा गलत ही साबित होता है। पुरस्कार वापसी पर उनके तर्क एकदम कमजोर रहते हैं। पुरस्कार वापसी तो इतना लिखा जा चुका है कि अब कुछ शेष रहा नहीं है और ये कई बार साबित भी हो चुका है कि कैसे बिहार विधानसभा चुनाव के ठीक पहले जनता दल यूनाइटेड के एक बड़े नेता के घर पर हुई बैठक में इसकी रणनीति बनी थी। किस तरह से पुरस्कार वापसी अभियान के एवज में बिहार में विश्व कविता सम्मेलन के आयोजन की ठेकेदारी की बात होती है। यह अलग बात है कि जिस नीतिश कुमार की राजनीति के लिए पुरस्कार वापसी अभियान चलाया गया था वही नीतीश, भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री मोदी के साथ हो लिए। इसके बाद विश्व कविता सम्मेलन का आयोजन नहीं हो सका, टेंडर निकलने के बाद भी ठेका नहीं मिलने की पीड़ा तो होती ही है। इस स्तंभ में समय समय पर पुरस्कार वापसी अभियान से लेकर विश्व कविता के आयोजन की तिकड़मों पर लगातार लिखा जाता रहा है।
साहित्य की दुनिया में अशोक वाजपेयी लंबे समय से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से राजनीति करते रहे हैं। नौकरशाह होने की वजह से साधन और संसाधन की कमी कभी नहीं रही। अब भी रजा फाउंडेशन के स्वामित्व की वजह से संसाधन की कमी नहीं है लिहाजा अब भी उनकी राजनीति चल रही है। लेखकों के बीच भी और प्रकाशकों के बीच भी। फर्क इतना आया है कि अब उनके साहित्यिक वृत्त के बाहर के लेखक मुखर होकर उनकी राजनीति को रेखांकित करने लगे हैं। उनके अर्धसत्य को बेनकाब करने लगे हैं। अर्धसत्य का दौर अब रहा नहीं तो इस रेखांकन से उनका क्रोधित होने स्वाभाविक है। खिन्न तो वो इस बात से भी होंगे कि ललित कला अकादमी के उनके कार्यकाल के दौरान की गड़बड़ियों की सीबीआई जांच भी अंतिम चरण में है।