इन दिनों हिंदी फिल्मों के बदलाव को लेकर काफी
बातें होती हैं। बदलाव की इन बातों में कथानक, फॉर्म, क्राफ्ट से लेकर तकनीक और
संगीत तक पर चर्चा होती है। ये चर्चा होनी भी चाहिए। दरअसल सिनेमा एक ऐसा माध्यम
है जिसमें लगातार बदलाव करते रहने की जरूरत भी है क्योंकि दर्शक एकरसता से उब जाते
हैं। हिंदी फिल्मों में आ रहे इन तमाम बदलावों के बीच पिछले तीन चार वर्षों से एक
बात अधिक सुनने को मिल रही है कि अब हिंदी फिल्मों की कहानियां यथार्थ के ज्यादा
करीब पहुंच रही हैं। ‘विकी डोनर’ से लेकर ‘दम लगा के हइशा’, ‘बरेली की बर्फी’ जैसी
फिल्में बनीं और लोगों ने इसको पसंद भी करना शुरू किया तो छोटे शहरों की बड़ी
कहानियों की बातें शुरू हो गईं। फिर ‘मुल्क’, ‘आर्टिकल 15’, ‘पिंक’ जैसी फिल्में भी आईं जो सफलता के फॉर्मूले को न
अपनाते हुए कहानी के साथ चलीं। सफल भी हुईं। 2015 में बनारस की पृष्ठभूमि पर बनी
फिल्म ‘मसान’ आई। बेहद शानदार
फिल्म, कलाकारों का सधा अभिनय भी। इस तरह की फिल्मों को कालांतर में कंटेट फिल्म
कहा जाने लगा। ये नामकरण ठीक वैसा ही है जैसे हिंदी में ‘नई वाली हिंदी’ को
चलाने की कोशिश की गई। ‘कंटेंट फिल्म’ कहने का अभिप्राय
चाहे जो भी रहा हो लेकिन इससे एक अलग भाव यह भी निकलता है कि सिर्फ इन्हीं फिल्मों
में कंटेंट है और अन्य फिल्में कंटेंटविहीन हैं। ऐसा नहीं है, इस कोष्ठक से बाहर
की फिल्मों में भी कंटेंट होता है। दरअसल जिन कथित फॉर्मूलाबद्ध फिल्मों से खुद को
अलग दिखाने की कोशिश में ‘कंटेंट फिल्म’ का नाम चलाने की
कोशिश की जा रही है वो फिल्में पहले भी थीं और आगे भी रहेंगी।
ये सही है कि इन दिनों हिंदी फिल्मों के विषय
अपेक्षाकृत यथार्थ के करीब जाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन इस बात को रेखांकित
करना भी आवश्यक है कि यथार्थ के करीब जाने में वो जीवन को जस का तस उठा कर रख देने
की ओर भी बढ़ने लगे हैं। जीवन को जस का तस रखने का अर्थ है कि वो सामाजिक और
व्यक्तिगत जीवन के उन प्रसंगों या उन घटनाओं को उसी तरह से फिल्मा कर दर्शकों के
लिए पेश कर देना। व्यक्तिगत जीवन में कई ऐसे पल होते हैं जिनको सीधे सीधे फिल्मों
में नहीं उतारा जा सकता है, उसको दिखाने की एक न्यूनतम मर्यादा अपेक्षित होती है। फिल्मों
में जीवन जस का तस पेश करने की प्रवृत्ति पर ध्यान देने के लिए क्रेंद्रीय फिल्म
प्रमाणन बोर्ड है लेकिन इंटरनेट के माध्यम से चलनेवाले प्लेटफॉर्म पर पेश किए
जानेवाले कंटेंट पर ध्यान देने की कोई प्रविधि अभी है नहीं। इसका नतीजा क्या है। यथार्थ
के नाम पर फूहड़ता, अश्लीलता, भयानक हिंसा, जुगुप्साजनक यौनिक दृश्य का चित्रांकन।
इस स्तंभ में ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म (ओटीटी) पर चलनेवाले वेब सीरीज को लेकर पहले भी
कई बार चर्चा हो चुकी है। इस माध्यम के विनियमन को लेकर भी चर्चा हो चुकी है।
सरकार ने वेब सीरीज की दशा और दिशा को लेकर एक-दो बैठक भी कर ली है। अबतक नतीजा
कुछ नहीं निकला है। हो सकता है सरकार इन सीरीज पर पेश किए जा रहे कंटेंट को लेकर
संतुष्ट हो गई हो।
अभी हाल ही में नेटफ्लिक्स पर एक सीरीज आई है नाम
है जामताड़ा। दस एपिसोड में पेश किए गए इस सीरीज के केंद्र में झारखंड का कस्बा
जामताड़ा है जहां से बैंक फ्रॉड की वारदात को अंजाम दिया जाता है। अब अगर इस सीरीज
को ही देखें तो इसमें जीवन को जस का तस दिखाने की प्रवृत्ति के कई प्रसंग हैं। इस
वेब सीरीज में गालियों की भरमार है, कोई भी एपिसोड ऐसा नहीं है, बल्कि ये भी कह
सकते हैं कि लगभग सभी प्रसंगों में गालियां उपस्थित हैं। जामताडा के युवाओं को इस
तरह से पेश किया गया है कि प्रतीत होता है कि वहां का युवा कोई वाक्य बगैर गाली के
बोलता ही नहीं है। हद तो तब हो जाती है जब नायक अपनी प्रेमिका से प्रेम प्रसंगों
में गाली में ही बात करता है। ये यथार्थ है या फिर सारी सामाजिक वर्जनाओं को छिन्न
भिन्न कर मुनाफा कमाने की युक्ति। इसपर विचार करने की जरूरत है। सरकार से अधिक
निर्माताओं और निर्देशकों को समझने की जरूरत है। जामताड़ा की भाषा को लेकर भी इस
वेब सीरीज में घालमेल किया गया है। कनटाप शब्द कानपुर से इतना जुड़ा है कि हिंदी
पट्टी का कोई भी व्यक्ति इसको जानता है। जब इस सीरीज जामताडा में वहां के स्थानीय
लड़के अपने संवाद मे कनटाप का प्रयोग करते हैं तो ये संवाद लेखक से लेकर निर्देशक
के अज्ञान को ही दर्शकों के सामने पेश करता है। इसके अलावा भी अगर इस वेब सीरीज को
देखें तो जाति व्यवस्था को सूक्ष्मता से समझे बगैर पात्रों के जातीय वर्गीकरण को
चित्रित करने की कोशिश की गई है। जामताडा में जिस सहजता के साथ अपराधी बैंक में
पैसे जमा करते और निकालते हैं वो भी यथार्थ से दूर नजर आता है। अगर आप बैंकों के
फ्रॉड को लेकर कोई सीरीज बना रहे हैं तो इसके लिए न्यूनतम शोध तो अपेक्षित ही होता
है।
यथार्थ के नाम पर कहानी के लोकेशन और गाली वाली
भाषा को पेश करने की जो भेड़चाल इस दौर की वेब सीरीज में दिखाई देती है उसपर भी
विचार करना होगा। यथार्थ के चित्रण के लिए जिस कौशल की जरूरत होती है वो न तो
अनुराग कश्यप में है और न ही गाली गलौच और अश्लीलता दिखाने वाले निर्देशकों में। दरअसल
इस तरह के लोग अपनी कमजोरियों को ढ़कने के लिए गालियों, हिंसा और यौनिक दृश्यों का
सहारा लेते हैं। इसका नतीजा ये होता है कि फिल्म या वेब सीरीज के क्राफ्ट या
निर्देशकों के कौशल पर बात नहीं होती है और सारी चर्चा इन गालियों और फूहड़ता पर
केंद्रित हो जाती है। समांतर सिनेमा के दौर में भी फिल्मों में यथार्थ दिखाया जाता
था चाहे वो गोविंद निहलानी की फिल्में हों या श्याम बेनेगल की या महेश भट्ट की। इनकी
फिल्मों में भी यथार्थ होता था, वैसा य़थार्थ जो बगैर लाउड हुए जीवन को दर्शकों के
सामने पेश करता था। 1982 में महेश भट्ट निर्देशित एक फिल्म आई थी ‘अर्थ’ । इस फिल्म में समाज
का ऐसा यथार्थ है जिसकी चर्चा फिल्म बनने के करीब चार दशक बाद अब भी होती है। फिल्म
का अंतिम दृश्य जिसमें नायिका शबाना और नायक कुलभूषण खरबंदा का संवाद है वो इतना पॉवरफुल है कि अब भी दर्शकों के मानस पटल पर अंकित है। उस यथार्थ के चित्रण में
फिल्मकार का कौशल दिखाई देता था। उनको अपने कौशल पर भरोसा होता था और वो उसी भरोसे
के आधार पऱ फिल्म बनाते थे और उसी कौशल ने उनकी फिल्मों को अबतक जिंदा रखा है,
उसकी चर्चा होती है। अब जिस कंटेंट फिल्म की चर्चा हो रही है उसको कबतक याद रखा
जाएगा ये तो आनेवाले समय में पता चलेगा। लेकिन यथार्थ की आड़ में अपनी कमी छुपाने
वाले निर्देशक इतिहास में गुम हो जाएंगे इस बात को समझने के लिए किसी समय का
इंतजार नहीं करना होगा।