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Saturday, February 8, 2020

बेनकाब होने से क्रोधित कवि


मीडिया और उसकी भूमिका या उसके काम करने का तरीका एक ऐसा विषय है जिसपर घंटों बात हो सकती है, पक्ष में भी और विपक्ष में भी। मीडिया पर होनेवाली चर्चा में कुछ ऐसी बातें भी होती हैं जो पिछले कई सालों से बोली जा रही है यथा मीडिया चौराहे पर खड़ी है, मीडिया पर विश्वसनीयता का संकट है आदि आदि। इन सब जुमलेबाजियों के बीच मीडिया की अपनी साख कायम है, वो अपना विस्तार भी कर रही है। पर चर्चा है तो होती ही रहेगी। इसी तरह की एक चर्चा जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में रखी गई थी, विषय था चौथा स्तंभ। इसी तरह के कई जुमले वहां भी उछाले गए। पूर्व पत्रकार और अब राजस्थान के एक पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर विराजमान ओम थानवी, पांचजन्य के संपादक हितेश शंकर, पत्रकारिता पर नजर रखने का दावा करनेवाली एक वेबसाइट के कार्यकारी संपादक अतुल चौरसिया के साथ मैं भी इस चर्चा में शामिल था। चर्चा तो जैसी होनी चाहिए थी वैसी ही हुई।

इस तरह की चर्चा में अगर तैयारी के साथ वक्ता नहीं आते हैं तो वो राजनीति की उंगली पकड़कर अपना बेड़ा पार करवाना चाहते हैं। ओम थानवी ने यही किया और राजनीति की बात करते करते वो साहित्य के प्रदेश में जा पहुंचे। इस बात को रेखांकित करने लगे कि मीडिया ने सरकार का विरोध करनेवाले उऩ लेखकों को पुरस्कार वापसी गैंग का नाम दिया जिन्होंने कालबुर्गी की हत्या के बाद साहित्य अकादमी का अपना पुरस्कार लौटा दिया था। मैंने विस्तार से उनको बताया कि क्यों इन लेखकों को गैंग कहा गया। इस स्तंभ में साहित्य वाले हिस्से की चर्चा ही करूंगा क्योंकि चौथे स्तंभ पर बात करते करते वक्ता गांधी से लेकर गोडसे और नागरिकता संशोधन कानून से लेकर राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर तक चले गए थे। अतुल चौरसिया ने एक ऐसी स्थापना सामने रखने की कोशिश की जो बिल्कुल ही तथ्यहीन तर्क की बुनियाद पर टिकी थी। उन्होंने मोदी सरकार के पहले की सरकार को इस आधार पर उदारवादी बताया कि उनके समय में न्यूज चैनलों के लाइसेंस उदारता के साथ दिए जाते थे और मोदी के पूर्व के सरकारों में मीडिया फलता फूलता था। इसके लिए उन्होंने रजत शर्मा के इंडिया टीवी और एनडीटीवी का उदाहरण दिया। पर उत्साह में बहुधा चूक हो जाती है और अतुल भी चूक गए और उन्होंने यहां तक कह दिया कि मोदी के शासनकाल में सिर्फ अर्णब के चैनल को लाइसेंस दिया गया। मैंने प्रतिवाद किया और उनको मंच से ही बता दिया कि कितने चैनलों के लाइसेंस दिया गया। बाद में वो सोशल मीडिया पर और भी मनोरंजक सफाई देने में जुटे रहे। सूचना प्रसारण मंत्रालय की एक सूची लगाई लेकिन जो तर्क दिए वो भी गलत थे। दक्षिण भारत में कई हिंदीतर भाषाओं में क्षेत्रीय चैनल का प्रसारण कर रहे एक मीडिया समूह को राष्ट्रीय हिंदी चैनल चलाने की अनुमति भी मिली थी। वो चैनल शुरू भी हुआ। चल भी रहा है। कांग्रेस के एक नेता की पत्नी का चैनल भी शुरू हुआ।
दरअसल जब पिछले साल मेरी किताब मार्क्सवाद का अर्धसत्य प्रकाशित हुई थी तो कुछ वरिष्ठ लोगों में मुझसे कहा था कि झूठ की विचारधारा को अर्धसत्य क्यों कहा, तो कुछ साथियों ने इस बात पर चुटकी ली कि झूठ की विचारधारा से अर्धसत्य निकालने का काम मैं ही कर सकता हूं। लेकिन जैसे जैसे दिन बीतते जाते हैं तो मेरा विश्वास इस बात को लेकर दृढ़ होता जाता है कि अर्धसत्य को एक विचारधारा के तौर पर स्थापित करने में मार्क्सवादियों और उनके अनुयायियों या साथियों का बड़ा योगदान है। अशोक वाजपेयी मार्क्सवादी नहीं हैं, पूर्व में वामपंथ के मुखर विरोधी थे लेकिन बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में उनके समर्थक या साथी हैं। तमाम क्रांतिकारी कवि इन दिनों उनकी परिक्रमा करते नजर आते हैं। वो भी वामपंथियों के साथ रहते हुए अर्धसत्य को बढ़ावा देने की कला में माहिर हो गए हैं। पाठक इस बात को समझ सकते हैं कि अगर अवसर ही विचार हैं की अवधारणा अर्धसत्य के कंधे पर सवार हो जाए तो किस तरह की बातें सामने आ सकती हैं। अशोक वाजपेयी इन दिनों इसी मिश्रण के साथ साहित्य की भूमि पर खड़े नजर आते हैं।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में मीडिया पर हुई चर्चा के दौरान पूरे समय वो बैठकर सुनते रहे थे। चर्चा खत्म होने के बाद तमतमाते हुए मेरे पास पहुंचे थे और कहा कि आप मंच से सफेद झूठ बोलते हैं। इस प्रसंग की चर्चा उनके कॉमरेड ओम थानवी ने सोशल मीडिया पर लिखे एक पोस्ट में भी की। लेकिन ओम थानवी ने अश्वत्थामा हतो, नरो के बाद शंख बजा दिया और इस प्रसंग को छोड़कर आगे बढ़ गए। अर्धसत्य के आधार पर अपनी बात को सामने रखने का एक और उदाहरण। जब अशोक वाजपेयी ने मुझपर झूठ बोलने का आरोप लगाया तो मैंने वहीं बहुत विनम्रतापूर्वक उनको याद दिलाया कि साहित्य में एकमात्र सत्यवादी हरिश्चंद्र तो वही हैं। मैं चाहता था कि अशोक वाजपेयी तथ्यों के आधार पर बात करें लेकिन क्रोध हमेशा विवेक का दुश्मन होता है और उस वक्त वो क्रोधित थे। क्रोध में उन्होंने यहां तक कह दिया कि 69 लोगों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया था। ये संख्या भी गलत है। साहित्य अकादमी के युवा, अनुवाद, बाल पुरस्कारों को जोड़ने के बाद भी पुरस्कार वापसी की घोषणा करनेवाले 39 लेखक थे। घोषणा इस वजह से कि ना तो उनके पुरस्कार वापस हो सकते थे और ना ही उऩके द्वारा भेजी गई राशि वापस हो सकती थी। इनमें से भी कई लेखकों ने राशि का चेक वापस नहीं किया, कुछ ने चेक भेजा तो उसमें किसी का नाम नहीं लिखा था, कुछ ने स्मृति चिन्ह नहीं भेजा। इसके अलावा एक लेखक ने तो खेद जताकर पुरस्कार वापसी की अपनी घोषणा को रद्द भी कर दिया। अब अशोक वाजपेयी इतने भोले तो नहीं हैं कि उनको लेखकों की इस चतुराई का पता ना हो। पकी आंखों से साहित्य की राजनीति करनेवाले अशोक वाजयेपी को ये भी मालूम होगा कि पुरस्कार वापस करने की घोषणा करनेवाले कई लेखक अब छाती ठोककर अपनी पुस्तक पर छपे अपने परिचय में अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखक लिखते हैं। और तो और जो साहित्य अकादमी परिसर में कदम नहीं रखने की कसम खा चुके थे वो भी अब अकादमी की बैठकों में ना केवल शामिल होते हैं बल्कि अकादमी से बैठक में शामिल होने का मानदेय भी लेते हैं।
कोई भी व्यक्ति क्रोधित तब होता है जब उसके तर्क चुक जाएं। पुरस्कार वापसी अभियान पर अशोक वाजपेयी जब भी मुंह खोलते हैं तो उनका कहा गलत ही साबित होता है। पुरस्कार वापसी पर उनके तर्क एकदम कमजोर रहते हैं। पुरस्कार वापसी तो इतना लिखा जा चुका है कि अब कुछ शेष रहा नहीं है और ये कई बार साबित भी हो चुका है कि कैसे बिहार विधानसभा चुनाव के ठीक पहले जनता दल यूनाइटेड के एक बड़े नेता के घर पर हुई बैठक में इसकी रणनीति बनी थी। किस तरह से पुरस्कार वापसी अभियान के एवज में बिहार में विश्व कविता सम्मेलन के आयोजन की ठेकेदारी की बात होती है। यह अलग बात है कि जिस नीतिश कुमार की राजनीति के लिए पुरस्कार वापसी अभियान चलाया गया था वही नीतीश, भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री मोदी के साथ हो लिए। इसके बाद विश्व कविता सम्मेलन का आयोजन नहीं हो सका, टेंडर निकलने के बाद भी ठेका नहीं मिलने की पीड़ा तो होती ही है। इस स्तंभ में समय समय पर पुरस्कार वापसी अभियान से लेकर विश्व कविता के आयोजन की तिकड़मों पर लगातार लिखा जाता रहा है।
साहित्य की दुनिया में अशोक वाजपेयी लंबे समय से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से राजनीति करते रहे हैं। नौकरशाह होने की वजह से साधन और संसाधन की कमी कभी नहीं रही। अब भी रजा फाउंडेशन के स्वामित्व की वजह से संसाधन की कमी नहीं है लिहाजा अब भी उनकी राजनीति चल रही है। लेखकों के बीच भी और प्रकाशकों के बीच भी। फर्क इतना आया है कि अब उनके साहित्यिक वृत्त के बाहर के लेखक मुखर होकर उनकी राजनीति को रेखांकित करने लगे हैं। उनके अर्धसत्य को बेनकाब करने लगे हैं। अर्धसत्य का दौर अब रहा नहीं तो इस रेखांकन से उनका क्रोधित होने स्वाभाविक है। खिन्न तो वो इस बात से भी होंगे कि ललित कला अकादमी के उनके कार्यकाल के दौरान की गड़बड़ियों की सीबीआई जांच भी अंतिम चरण में है।

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