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Saturday, February 15, 2020

वैचारिक जकड़न से आजाद होते उपन्यास

हिंदी कथा परिदृश्य की अगर बात करें तो हम पाते हैं कि पिछले कुछ सालों में इसने अपने भूगोल का विस्तार किया है। वामपंथी विचार के प्रभाव में खास तरह की कहानियां या उपन्यास लिखे जा रहे थे। ये दौर बहुत लंबे समय तक चला और एक खास तरह की फॉर्मूलाबद्ध कहानियां और उपन्यास लिखे जाते रहे। एक गरीब होगा, उसका संघर्ष होगा, समाज के प्रभावशाली व्यक्ति के गरीबों के शोषण का चित्र होगा, उसमें लंबे लंबे वैचारिक आख्यान होगें और फिर कई बार सुखांत को कई बार दुखांत होगा। ये कथा-प्रविधि चलती रही। कुछ लेखक इससे हटकर भी लिखते रहे लेकिन जोर इसी तरह के लेखन का रहा। दुनिया को बदलने का स्वप्न देखनेवाले कथा लेखक अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता की वजह से अपनी कहानियों या उपन्यासों को भी दुनिया को बदलने का औजार बनाते चले गए।  जब इस तरह के औजार के प्रयोग हुआ तो उसने हिंदी के पाठकों को चौंकाया। लेकिन जब यही प्रविधि ज्यादातर लेखक लगातार उपयोग करने लगे तो पाठकों के बीच एक खास किस्म की ऊब पैदा हुई।
विचारधारा की जकड़न वाले ऐसे कथा लेखक इस बात का प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से उद्घोष भी करते रहे कि वो विचारधारा के पोषण के लिए और उसको मजबूत करने के लिए लिखते हैं। वो पाठकों की परवाह भी नहीं करते थे, बाजार की परवाह करना तो खैर उनकी मातृ-विचार के खिलाफ ही था। इसका दुष्परिणाम हिंदी साहित्य को झेलना पड़ा। एक समय ऐसा भी आया जब हिंदी साहित्य जगत में पाठकों की कमी को लेकर विमर्श शुरू हो गया। बड़े बड़े संस्थानों से लेकर साहित्यिक पत्रिकाओं में हिंदी के पाठकों की कमी का रोना रोते हुए लेख आदि छपने लगे। पाठकों की कमी की बात जब मुखर होने लगी तो उसी दौर में ये बाते में भी सामने आने लगीं कि हिंदी के कहानी संग्रह और उफन्यासों का संस्करण तीन सौ प्रतियों का होने लगा। लेकिन कभी भी इस बात की पड़ताल करने की कोशिश नहीं की गई कि पाठक क्यों कथा साहित्य से दूर जाने लगे हैं। लेखकों ने पाठकों की रुचि का ध्यान नहीं रखा और कहते भी थे कि वो रुचि का ध्यान रखकर लेखन नहीं कर सकते हैं। अगर बाजार की भाषा में इसको समझने की कोशिश करें तो कह सकते हैं कि वामपंथी लेखकों ने उपभोक्ता यानि पाठकों की रुचि का ध्यान नहीं रखा। वो रवीन्द्रनाथ टैगोर का कहा भी भूल गए। टैगौर साहब ने साहित्य की सामग्री नामक अपने लेख की शुरुआत में ही कहा था- केवल अपने लिए लिखने को साहित्य नहीं कहते हैं- जैसे पक्षी अपने आनंद के उल्लास में गाता है उसी प्रकार हम भी अपने आनंद में विभोर होकर केवल अपने लिए ही लिखते हैं, मानो श्रोता या पाठक का उस से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता। यह बात बिल्कुल निर्विवाद रूप से नहीं कही जा सकती कि पक्षी जब गाता है तब वह पक्षी समाज जरा भी उसके ध्यान में नहीं होता। यदि नहीं होता को न सही, इस बात पर तर्क करने से लाभ ही क्या है? परंतु यह तो मानना ही पड़ेगा कि लेखक की रचना का प्रधान लक्ष्य पाठक-समाज होता है।लेकिन वामपंथी लेखकों ने पाठक समाज को ध्यान में नहीं रखा उनका लक्ष्य तो कथा साहित्य से अपनी विचारधारा को पुष्ट करना था।  
जब वामपंथी विचारधारा का पराभव शुरू हुआ तो हिंदी साहित्य का कथा लेखन भी इस वैचारिक लेखन से मुक्त होने लगा। इसके बीच आर्थिक उदारीकरण के बाद के दौर में ही कथाभूमि में पड़ने शुरू हो गए थे। इक्कीसवीं सदी के आरंभ में बदलाव का ये पौधा उगना शुरू हो गया था और लोगों ने इससे अलग हटकर उपन्यास लिखना शुरू कर दिया था। इसी दौर में मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों ने अपनी नवीनता की वजह से हिंदी के पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया था। भगवानदास मोरवाल का उपन्यास रेत और मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास अल्मा कबूतरी ने पाठकों को कथा के ऐसे प्रदेश से परिचय करवाया जिस ओर जाने से हिंदी के उपन्यास लेखक हिचकते थे। इन दोनों उपन्यासों में लेखकों ने जिन समुदायों को कथा के केंद्र में रखा है उसके जीवन को पाठकों के सामने पेश करने की कोशिश की, मोरवाल ने कुछ हिचक के साथ तो मैत्रेयी ने बोल्ड होकर। हम इन दोनों उपन्यासों को विचारधारा से मुक्त होने का प्रस्थान बिंदु मान सकते हैं। हलांकि मोरवाल के उपन्यासों में उसके अवशेष यदा कदा दिख जाते हैं।
इसके बाद के कथा लेखन खास तौर पर उपन्यासों को देखें तो वहां वैचारिक प्रतिबद्धता को पाठकों की रुचि ने विस्थापित कर दिया। नए लेखकों ने विश्वविद्यालय कैंपस की जिंदगी को विषय बनाया और पाठकों ने उनको खूब पसंद किया। इनमें से कुछ लेखक अब कैंपस से बाहर निकल गए हैं और उन्होंने अपने दायरे का विस्तार कर लिया जबकि कई लेखक अब भी कैंपस के ही चक्कर लगा रहे हैं। इनमें से जो लेखक कैंपस से बाहर निकल गए हैं उनकी व्याप्ति बढ़ी है और जो कैंपस में ही अटके हैं उनसे अपेक्षा की जा रही है कि वो अपनी कथाभूमि का विस्तार करें। पिछले दो तीन सालों को देखें तो कथा भूमि का और विस्तार दिखाई देता है। अब उपन्यासों के विषयों में पहले की अपेक्षा अधिक विविधताएं दिखाई देने लगी हैं। हिंदी का लेखक समाज बहुत बड़ा है और उसी अनुपात में पुस्तकें भी प्रकाशित होती हैं। लेकिन जिन उपन्यासों ने अपनी विषयगत नवीनता की वजह से लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा उसमें पर्यावरण पर लिखा उपन्यास है, उसमें समाज में व्याप्त कानूनी असामनता को लेकर लिखा गया उपन्यास है। पिछले वर्ष के अंतिम महीने में दो ऐसे उपन्यास आए जिसने अपनी विशयगत नवीनता से पाठकों को चौंकाया। रत्नेश्वर ने फिर से पर्यावरण को अपने उपन्यास का विषय बनाया। उनका उपन्यास एक लड़की पानी पानी ने पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। इसमे रत्नेश्वर ने पानी की समस्या को बेहद रोचक तरीके से उठाया है। स उपन्यास के केंद्र में पानी की समस्या है, उपन्यास के पात्रों के बीच पानी की कमी को लेकर चलनेवाला विमर्श है जो भविश्य के खतरों के प्रति लोगों को आगाह भी करती है। इसी तरह से भगवानदास मोरवाल ने अपने नए उपन्यास वंचना में महिलाओं और बच्चों के लिए बनाए गए कानून की खामियों को विषय बनाया है। इस उपन्यास में मोरवाल ने बेहद सधे हुए अंदाज में संवेदनशील तरीके से उन स्थितियों की चर्चा की है। इन दोनों उपन्यासों में लेखकों के सामने अपनी कृतियों को पठनीय बनाए रखने की चुनौती थी जिसका सामना दोनों ने बखूबी किया। इस तरह के विषय हिंदी उपन्यासों के लिए पहले बिल्कुल नहीं सोचे गए थे। अगर लिखे गए हों तो संभव है कि मेरी नजर में ना आए हों। मार्क्सवादी लेखकों ने तो पर्यावरण को इस वजह से अपने लेखन में तवज्जो नहीं दी क्योंकि उनके आराध्य ने ही इस विषय पर कुछ नहीं देखा। दुनिया बदवे का स्वप्न देखते देखते बदलती हुई दुनिया उऩसे छूट गई।
ऐतिहासिक, पौराणिक और मिथकीय चरित्रों पर पहले भी लेखन होता था और अब उसमें काफी वृद्धि हुई है। राष्ट्रवाद के दौर में पाठकों की रुचि को ध्यान में रखकर ढेर सारे लेखकों ने महाभारत और रामायण के चरित्रों को लेकर उपन्यास लिखे। पहले नरेन्द्र कोहली ने अकेले इन विषयों पर विपुल लेखन किया जिसे बाद में अमीश से लेकर कई अन्य लेखकों ने बढाया। लेकिन पिछले ही साल नरेन्द्र कोहली का एक उपन्यास सागर मंथन प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने कथा के एक बिल्कुल नए क्षेत्र में प्रवेश किया जिसमें पौराणिकता के साथ साथ विज्ञान भी है। इस तरह से हम कह सकते हैं कि जो हिंदी में कथा साहित्य का जो मौदूदा दौर है उसको विचारधारा की गुलामी से मुक्त होने का दौर कह सकते हैं। उसको वर्तमान और भविष्य की चिंताओं को अपने अपने उपन्यासों का विषय बनाकर पाठकों के समक्ष ले जाने का जोखिम उठाने का दौर है। इस दौर को पाठकों या व्यापक हिंदी समाज की रुचियों की पूर्ति का दौर भी कह जा सकता है। यह अकारण नहीं है कि अब प्रकाशक लगातार सार्वजनिक तौर पर अपनी पुस्तकों के नए संस्करणों की बात करने लगे हैं। वो खुलकर ये बताने लगे हैं कि अमुक उपन्यास या अमुक पुस्तक की इतनी प्रतियां बिकीं। इस बदलाव को एक सुखद बदलाव के तौर पर भई देखा और रेखांकित किया जाना चाहिए। ये दौर उन आलोचकों के लिए भी चुनौती का दौर है जो सिर्फ उन्हीं पुस्तकों पर विचार करते रहे हैं जो उनकी विचारधारा के करीब रही है।

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