इस सप्ताह के आरंभ की बात है। हिंदी के प्रतिष्ठित उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल की एक फेसबुक पोस्ट पर नजर गई। उसमें उन्होंने लिखा कि ‘कथा यूके (लंदन) ने अपने पिछले 5 सालों के पुरस्कारों की घोषणा की है। सभी लेखकों को बधाई। इन पुरस्कारों की घोषणा के तुरंत बाद इस बात को लेकर विवाद शुरू हो गया है कि जिन लेखकों की रचनाओं पर भी विचार किया गया, उनके नामों की आयोजकों द्वारा सार्वजनिक घोषणा नहीं की जानी चाहिए थी। एक लेखक होने के नाते मैं इस तर्क से पूरी तरह सहमत हूँ । मेरे मन में जो सम्मान उन लेखकों का है जिनका चयन इन सम्मानों के लिए किया गया है, उतना ही इन लेखकों के प्रति भी है जिनका नाम सार्वजनिक किया गया है। चूंकि साल 2009 के लिए यह सम्मान मुझे भी मेरे एक उपन्यास 'रेत' पर प्रदान किया जा चुका है, इसलिए अपने लेखक बंधु-बांधवों की एकजुटता और उनके मान-सम्मान के पक्ष में, मैं अपना इंदुशर्मा कथा सम्मान लौटाने की घोषणा करता हूं।‘ भगवानदास मोरवाल जी पुरस्कार वापसी की इस घोषणा को पढ़ते हुए अचानक पांच साल पहले का पुरस्कार वापसी प्रपंच दिमाग में कौंध गया। उस वक्त भी बिहार विधानसभा का चुनाव होना था और ऐसे ही एक लेखक ने पुरस्कार वापसी की घोषणा करके उस प्रपंच का आरंभ किया था। लगा कि फिर से पुरस्कार वापसी को राजनीतिक अस्त्र के रूप में तो इस्तेमाल नहीं किया जानेवाला है। फौरन कथा यूके के कर्ताधर्ता तेजेन्द्र शर्मा की पोस्ट देखने गया तो वहां पुरस्कृत लेखकों की तस्वीरों के साथ एक पोस्टर लगा देखा। उससे ये सूचना मिली कि पिछले पांच सालों से स्थगित इंदु शर्मा कथा सम्मान देने की घोषणा की गई थी। जिनको सम्मानित किया जाना था उनके नाम और तस्वीरें लगी थीं। पुरस्कार प्रदान करने की सूचना भी शामिल की गई थी। यहां तक तो मसला ठीक था लेकिन उस पोस्टर के नीचे सोलह लेखक और लेखिकाओं के नाम का उल्लेख इस आशय से था कि इनकी रचनाओं पर भी गौर किया गया। भगवानदास मोरवाल इन सोलह लेखकों की सूची प्रकाशित करने से आहत हो गए और उन्होंने पुरस्कार वापसी का अपना फैसला सार्वजनिक कर दिया।
उपरोक्त पुरस्कार के आयोजक चूंकि लंदन में रहते हैं इस वजह से बुकर पुरस्कार आदि से प्रेरणा लेते हुए उन लेखकों के नाम भी सार्वजनिक कर दिए जिनके नामों पर विचार किया गया। पर यहीं पर कथा यूके से एक बड़ी चूक हो गई। चूक ये कि उन्होंने इस पुरस्कार के निर्णायकों का नाम सार्वजनिक नहीं किया। इस बात में भी संदेह प्रकट किया जा रहा है कि इस पुरस्कार के लिए कोई निर्णायक होता नहीं है। पुरस्कृत लेखकों की जो सूची जारी की गई है कि उसके साथ लिखा भी गया है कि ‘हमारे निर्णायक मंडल एवं मित्रों ने सहयोग किया और हम अंतत: किसी निर्णय पर पहुंच पाए’।‘ इसका अर्थ तो ये हुआ कि ‘हम’ ही अंतिम निर्णायक हैं। दरअसल कुछ अंतराष्ट्रीय पुरस्कार देनेवाली संस्थाएं उन लेखकों के नाम भी सार्वजनिक करती हैं जिनके नाम पर पुरस्कार की चयन समिति या निर्णायक मंडल ने विचार किया। लेकिन उनकी चयन प्रक्रिया बेहद पारदर्शी होती है और हर चरण पर नामों का खुलासा होता रहता है इसलिए वो अपमानजनक नहीं लगता है। दिक्कत इऩ जैसे व्यक्तिगत पुरस्कारों में यही होती है कि इनमें पारदर्शिता का अभाव होता है। दरअसल ये व्यक्ति विशेष की मर्जी पर निर्भर होता है कि वो कब किसको पुरस्कार दे, किस वर्ष पुरस्कार दे और किस वर्ष रोक दे। अब अगर हम देखें तो इंदु शर्मा कथा सम्मान ही पिछले पांच वर्ष से नहीं दिया जा रहा है। बीच में एक बार कथा सम्मान की जगह एक गजलकार को सम्मानित कर दिया गया। इसमें कोई हर्ज भी नहीं है, व्यक्ति विशेष का पुरस्कार है वो जिसे चाहे, जब चाहे दे या न दे। दिक्कत तब होती है जब प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह काम करनेवाली ये संस्थाएं पब्लिक लिमिटेड कंपनी की राह भी पकड़ना चाहती हैं। व्यक्तिगत स्तर पर दिए जानेवाले इन पुरस्कारों के आयोजकों की अपेक्षा ये होती है कि उनको पारदर्शी तरीके से दिए जानेवाले पुरस्कारों जैसा माना जाए। लेकिन तब मोरवाल जी जैसा कोई लेखक सामने आकर ना केवल पुरस्कार देनेवालों को आइना दिखाता है बल्कि पुरस्कार वापसी की घोषणा कर अपना विरोध भी प्रकट करता है। उनकी इस घोषणा से इस तरह के पुरस्कारों की साख पर भी सवाल खड़े होते हैं। व्यक्तिगत या निजी तौर पर पुरस्कार देने के मामले में दो ऐसे पुरस्कार हैं जिनकी साख लंबे समय से बची हुई है। एक है देवीशंकर अवस्थी के नाम पर आलोचना के लिए दिया जानेवाला पुरस्कार और दूसरा है भारत भूषण अग्रवाल के नाम पर दिया जानेवाला कविता पुरस्कार। इन दोनों पुरस्कारों में चयन की प्रक्रिया का हिंदी जगत को पता है। निर्णायकों के नाम भी हर वर्ष सार्वजनिक किए जाते हैं।
अब हिंदी के लेखकों को पद्म पुरस्कार कम छद्म पुरस्कार अधिक मिलने लगे हैं। कोरोना काल में तो पुरस्कार देना और भी आसान हो गया है। व्यक्तिगत स्तर पर पुरस्कार की घोषणा करके उसको ऑनलाइन गोष्ठी आयोजित कर आभासी पुरस्कार दे दिए जाते हैं। पहले तो पुरस्कार देनेवाले को कम से कम एक आयोजन करना होता था। अगर पुरस्कार के तहत कोई राशि नहीं भी गी जाती थी तो उसमें शॉल और प्रतीक चिन्ह आदि देने पड़ते थे। उसमें कुछ राशि तो खर्च करनी पड़ती थी। अब तो हालात ये है कि सबकुछ आभासी हो गया है। पोस्टर पर विज्ञप्ति जारी हो जाती है। ऑनलाइन अर्पण समारोह हो जाता है। ईमेल से पुरस्कार का प्रमाण पत्र भेज दिया जाता है। यह एक ऐसी प्रविधि विकसित हो रही है जिसमें सभी खुश रहते हैं। कथा यूके के पुरस्कार को पांच साल बाद शुरू करने के पीछे भी एक वजह से ये भी हो सकती है कि अब सबकुछ ऑनलाइन संभव है। अन्यथा 2015 के पहले तो पुरस्कृत लेखकों को लंदन बुलाया जाता था, उनके आने जाने का खर्च, लंदन में रुकने का खर्च सब आयोजकों को वहन करना पड़ता है।
दरअसल व्यक्तिगत पुरस्कार देनेवालों में से ज्यादातर की मंशा खुद को साहित्य की चर्चा के केंद्र में रखने की भी होने लगी है। सोशल मीडिया के इस दौर में हिंदी में लेखकों का एक ऐसा वर्ग सामने आ गया है जो अपनी औसत रचनाओं पर पुरस्कृत होकर प्रसिद्धि की चाहत रखता है। इन पुरस्कार पिपासु लेखकों के लिए व्यक्तिगत स्तर पर दिए जानेवाले पुरस्कार प्रसिद्ध होने की लालसापूर्ति का एक अवसर होता है। मध्यप्रदेश से दिए जानेवाले एक पुरस्कार के लिए तो बकायदा लेखकों से एक निश्चित राशि का बैंक ड्राफ्ट भी आवेदन के साथ मांगा जाता है। लोग देते भी हैं और फिर पुरस्कृत होकर प्रचार भी करते हैं। इसी तरह से बिहार की एक संस्था हर वर्ष दर्जनों लोगों को पुरस्कृत करती है। कई लोग तो कहते हैं कि इन पुरस्कारों का एक अर्थतंत्र भी होता है। आयोजनकर्ता किसी को पकड़ लेते हैं और उनके नाम पर या उनके पिता-माता के नाम पर पुरस्कार देने की बात कहकर उनसे एक निश्चित रकम ले लेते हैं। फिर किसी हिंदी के लेखक को आभासी दुनिया में पुरस्कृत करके धन देनेवाले को संतुष्ट कर देते हैं। अब हिंदी के लेखकों को यह तय करना होगा कि कौन सा पुरस्कार लिया जाए और कौन सा ठुकराया जाए। अपेक्षा तो वरिष्ठ लेखकों से भी की जाती है कि वो इस तरह का माहौल बनाएंगे या अपने सान्निध्य में आनेवाले युवा लेखकों को हिंदी साहित्य की गरिमा को संजोए रखने के लिए प्रेरित भी करेंगे।
2 comments:
बिल्कुल सही लिखा है आपने🌻
सटीक
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