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Saturday, April 10, 2021

परंपरा के पुनर्स्थापन का हो प्रयास


देशभर में कला, संस्कृति और भाषा से जुड़ी कई इमारतें हैं जिनका अपना एक इतिहास है। चाहे वो दिल्ली का त्रिवेणी कला संगम हो, श्रीराम सेंटर हो, रवीन्द्र भवन हो या भोपाल का भारत भवन हो, मुंबई की जहांगीर आर्ट गैलरी या पृथ्वी थिएटर हो। ये सूची बहुत लंबी हो सकती है। इस तरह की इमारतों से या इनमें होनेवाली गतिविधियों से उस शहर की कला और संस्कृति प्रेम का एक लैंडस्केप बनता है। एक ऐसा लैंडस्केप जिससे वहां के लोगों की रुचियों का आभास भी मिलता है। दिल्ली में अभी हाल ही में एक कला संकुल का लोकार्पण हुआ, नाम है संस्कार भारती कला संकुल। इसमें कला दीर्घा से लेकर कई हॉल हैं जहां बैठकर कला संस्कृति के विभिन्न विषयों पर चर्चा आदि हो सकती है। ये उम्मीद की जानी चाहिए कि इस कला संकुल से देश की राजधानी का सांस्कृतिक लैंडस्केप और बेहतर होगा। भविष्य में जो होगा उसके बारे में तो उम्मीद ही जताई जा सकती है लेकिन जो सामने घटता है उसपर चर्चा की जा सकती है। संस्कार भारती कला संकुल के लोकार्पण समारोह के दौरान जो बातें कही गईं उस पर ध्यान गया ।संस्कार भारती कला संकुल का लोकार्पण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने किया था। कोरोना की वजह से कला संकुल के परिसर में ही समारोह हुआ था। इसके लोकार्पण समारोह में मोहन भागवत ने भारतीय कला और कला परंपरा को लेकर कई महत्वपूर्ण बातें कहीं। मोहन भागवत ने कहा कि भारत की कला रंजन मात्र नहीं है। वो इसके उद्गम को ओमकार के उच्चरण से जोड़कर देखते हैं। उन्होंने कला को परिभाषित करते हुए न केवल इसको एक दार्शनिक रूप दिया बल्कि उसको समकालीन समस्याओं से जोड़ने का प्रयास भी किया। कला को परिभाषित करने के क्रम में मोहन भागवत ने इतिहास में भी आवाजाही की और उसको सत्य और शिवत्व की अभिव्यक्ति और अनुभूति से जोड़ा। उन्होंने स्पष्ट किया कि पश्चिम के देशों में मनोरंजन को सुख से जोड़ा गया जबकि हमारे यहां इसको आंतरिक अनुभूति से जोड़कर एक पूर्णता का दर्शन प्रतिपादित किया गया। पश्चिम में कला से जो रंजन होता है उससे भौतिक सुख की प्राप्ति होती है लेकिन उस भौतिक सुख में एक अधूरापन भी महसूस होता है। जबकि भारतीय कला में जो शक्ति है वो मनुष्य को उसके मूल तक ले जाती है और वहां जो सुख की भावना पैदा होती है वो मानव मन में उपजनेवाले अधूरेपन को दूर करने का रास्ता दिखाती है। यह उल्लास से शांति की ओर ले जाती है। मोहन भागवत ने विस्तार से कला के संस्कारों और समाज पर उसके प्रभाव पर भी प्रकाश डाला। 

कला संकुल के शुभारंभ के अवसर पर कला को लेकर कही गई बातों पर अगर हम विचार करें तो इसके सूत्र हमको काफी पीछे लेकर जाते हैं। वासुदेव शरण अग्रवाल ने भी भारतीय कला पर विचार करते हुए लिखा है, ‘वैदिक काल से धर्म और कला का घनिष्ठ संबंध बना रहा है। धर्म और दर्शन के उदार क्षेत्र में संयम और तप के जिन आदर्शों की कल्पना समय-समय पर प्रकट होती रही, उसी को मूर्तिमान रूप में जनता के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए कलाकारों ने प्रयत्न किया। एक प्रकार से भारतीय धर्म, जीवन की पूर्णता को लिए हुए, नृत्य, गीत, अभिनय और कला की प्रवृत्तियों में फला-फूला। इसका प्रभाव धर्म और जीवन दोनों पर अच्छा हुआ। धर्म के प्रांगण में वसंत लक्ष्मी की शोभा का अवतार कला से हुआ। दूसरी ओर धर्म के निर्मल आदर्शों को प्राप्त करके कला का स्वरूप निखर गया।‘ वासुदेव शरण अग्रवाल भी ये मानते हैं कि ‘शिव की सत्ता मणि-दीप की तरह कला के प्रासाद को आलोकित करती है।‘ वासुदेव शरण अग्रवाल ने भारत की कला और संस्कृति को लेकर विपुल लेखन किया है और स्थापना दी है कि कला, वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक समाज को उस दिशा में ले जाने का काम करती है जहां पूर्णता की अनुभूति हो। 

कला का यह स्वरूप हमारे समाज में बहुत लंबे समय तक चला। जब हमारा देश स्वतंत्र हुआ तो अंग्रेज भारत छोड़कर चले गए लेकिन हम उनकी जीवन शैली की बहुत सारी बातों को आधुनिकता मानकर या समझकर अपनाने लगे थे। बाद के वर्षों में ये और भी ज्यादा बढ़ा। हमने पश्चिम के देशों का अंधानुकरण करना आरंभ किया। ये अंधानुकरण इस वजह से भी होने लगा कि हमारा समाज नए के प्रति आस्थावान होने लगा था। नए के प्रति आसक्ति गलत नहीं है लेकिन नए और पुराने में एक संतुलन होना चाहिए था। नए को अपनाने और पुरान को छोड़कर आगे बढ़ने की बढ़ती प्रवृत्ति की वजह से हमसे हमारी परंपरा का सिरा छूटने लगा था। हम आधुनिकता के नाम पर और बाद के दिनों में उत्तर आधुनिकता के नाम पर अपनी कला को भी उधर मोड़ने लगे थे। जब देश में मार्क्सवाद का जोर बढ़ा तो इस दर्शन से प्रभावित लोगों ने उसकी मान्यताओं को, सिद्धातों को साहित्य और कला में भी लागू करना शुरू कर दिया। परिणाम यह हुआ कि हमारी कला की जो आधारभूत मान्यताएं थीं वो नेपथ्य में चली गईं। इसको कई उदाहरणों से समझा जा सकता है। हमारे देश में चित्रकला या मूर्तिकला की जो परंपरा रही है उसमें सौंदर्य और प्रेम का स्पष्ट चित्रण दिखाई देता है, इसको हिमाचल की चित्र शैली से लेकर राजस्थानी चित्र शैली में देखा जा सकता है। मंदिरों के प्रांगण में बनी मूर्तियों में लक्षित किया जा सकता है। राजस्थानी शैली के कई चित्रों में स्त्री मन के प्रेम का एक अटूट प्रवाह दिखाई देता है। कालांतर में इसकी जगह ऐसी चित्रकलाओं ने ले लिया जिनको समझने के लिए जतन करना पड़ता था। उसी दौर में कुछ ऐसे चित्रकार भी हुए जो मार्क्सवाद के दर्शऩ से प्रभानित थे, उन्होंने देश की आस्था को अपमानित करनावाले चित्र भी बनाए। उन चित्रों पर विवाद तो हुआ, चित्रकार ने सुर्खियां भी बटोरीं लेकिन कला समृद्ध न हो पाई। कुछ इसी तरह की बात साहित्य में भी रेखांकित की जा सकती है। हमारे यहां जिस तरह की कविताएं लिखी जाती थीं जिसमें एक गेयता होती थी बाद में आधुनिकता के नाम पर या नए के नाम पर ऐसी कविताएं लिखी जाने लगीं जो गद्य जैसी होती थीं। कविता से लय गायब कर दिया गया। एक दौर में तो भूखी पीढ़ी के नाम से ऐसे लेखक आए जिन्होंने कविता के नाम पर स्तरहीन लेखन किया। आधुनिकता के नाम पर इस तरह के लेखन के बाद साहित्य और कला में उत्तर आधुनिकता का दौर भी आया। ये तो और भी समझ से परे था। आधुनिकता की इस प्रवृत्ति ने कला को अनुभूति से दूर कर दिया। 

संस्कार भारती कला संकुल के शुभारंभ के अवसर पर जिस भारतीय कला और संस्कृति की बात हुई है उसपर कलाप्रेमियों को, कलारसिकों को गंभीरता से विचार करना होगा। भारतीय कला के उस गौरवशाली परंपरा को बढ़ाने के लिए जतन करने होंगे। नए और पुराने के बीच समन्वय और संतुलन बनाकर कला को समृद्ध करना होगा। इस तरह का एक इकोसिस्टम बनाना होगा जिसमें नवोदित कलाकारों का अपनी कला परंपरा से परिचय हो सके। उन बाधाओं को या तत्वों को चिन्हित करना होगा जो आधुनिकता के नाम पर हमारी कला परंपरा को नेपथ्य में धकेलने का काम अब भी कर रहे हैं। संस्कार भारती कला संकुल अगर इस उपक्रम का केंद्र बन पाती है तो ये इमारत न सिर्फ दिल्ली के कला जगत के लैंडस्केप को खूबसूरत बना पाएगी बल्कि पूरे देश के कला जगत को भी एक राह दिखा पाएगी। अन्यथा हमारे महानगरों में उगनेवाले कंक्रीट के जंगलों में तो कई इमारतें बगैर किसी पहचान के निर्जीव खड़ी ही हैं। 

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