कोरोना की दूसरी लहर का असर कला और कलाकारों पर फिर से पड़ने लगा है। पिछले सालभर से कोरोना संक्रमण के बढ़ने की वजह से सार्वजनिक कार्यक्रमों के रद्द होने से कलाकारों के सामने जीविका का संकट उत्पन्न हो गया था। मंच पर परफॉर्म करने वाले घर बैठे थे। बड़े कलाकारों के साथ तबले और हारमोनियम आदि पर संगत करनेवालों के लिए संकट अधिक गहरा था। इस वर्ष के आरंभ से कोरोना संक्रमण के संकट के कम होने से एक उम्मीद जगी थी, लेकिन अब संक्रमण की दूसरी लहर ने उसपर पानी फेर दिया। हाल ही में साहित्य और संस्कृति के लिए काम करनेवाली कोलकाता की संस्था प्रभा खेतान फाउंडेशन ने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के साथ एक बातचीत का आयोजन किया था। विषय था ‘इकोनॉमी इन कल्चर’। इस बातचीत में वित्त मंत्री ने भी कलाकारों की स्थिति पर चिंता प्रकट की। उन्होंने माना कि परफॉर्मिंग आर्ट के कलाकारों के सामने चुनौती बड़ी है । उन्होंने कलाकारों से ये अपेक्षा की कि वो सरकार को बताएं कि इस क्षेत्र की चुनौतियों से कैसे निबटा जाए ताकि इस क्षेत्र की समस्याओं का निदान हो सके। इस बातचीत में आगे निर्मला सीतारमण ने माना कि संस्कृति के क्षेत्र में कई संस्थाएं सांस्थानिक उपेक्षा का शिकार हो रही हैं। वित्त मंत्री ने सांस्कृतिक संस्थाओं की बेहतरी के संदर्भ में पूछे गए प्रश्न के उत्तर में कहा कि धन के साथ-साथ इनको बेहतर करने के लिए ‘सही व्यक्तियों’ की भी जरूरत होती है।
जब मैं ये कार्यक्रम सुन रहा था तो अचानक त्रिपुरा के उनकोटि की छवियां दिमाग में कौंधी। इस वर्ष जब कोरोना संक्रमण थोड़ा कम हुआ था तो मार्च के अंतिम सप्ताह में त्रिपुरा जाने का अवसर मिला था। उनकोटि में पत्थरों पर तराशी गई मूर्तियों की कलात्मकता की प्रशंसा सुनी थी। शिव को मानने वालों के लिए ये आस्था का बड़ा केंद्र भी है। उनकोटि का अर्थ होता है एक करोड़ से एक कम। इसके नाम के साथ भी एक बेहद दिलचस्प कहानी जुड़ी हुई है। मान्यता ये है कि भगवान शिव एक करोड़ देवी देवताओं के साथ काशी जा रहे थे। जब त्रिपुरा के इस स्थान पर पहुंचे तो रात हो गई। शिवजी ने सबके साथ वहीं रात बिताने का निर्णय लिया और सभी देवी-देवताओं को कहा कि रात्रि विश्राम के पश्चात सूर्योदय के पहले सबको काशी के लिए प्रस्थान करना है। अगले दिन पौ फटने के पहले भगवान शंकर जब उठे तो उन्होंने देखा कि सभी देवी देवताएं सो रहे हैं और कोई भी काशी जाने के लिए समय से तैयार नहीं हो पाए हैं। शिव अकेले ही वहां से नियत समय पर चल दिए लेकिन अपने साथ के सभी देवी देवताओं को श्राप दिया कि वो पत्थर के हो जाएं। मान्यता है कि इसी वजह से इस स्थान का नाम ‘उनकोटि’ पड़ा और वहां एक करोड़ से एक कम पत्थर की मूर्तियां या पत्थर पर उकेरे चित्र बने हैं।
अगरतला से करीब पौने दो सौ किलोमीटर की दूरी तय करके जब उनकोटि पहुंचा तो वहां की सुंदरता और पत्थर के मूर्तियों की भव्यता और कलाकारी देखकर आह्लादित हो गया। इस परिसर में नीचे उतरते ही सबसे पहले करीब तीस फीट के ‘उनकोटेश्वर कालभैरव’ की पत्थर की मूर्ति मिलती है। इस मूर्ति का मुकुट ही करीब दस फीट के पत्थर पर बना है जिसपर अद्भुत कलाकारी है। उनके आसपास दो देवियों के चित्र पत्थर पर उकेरे हुए हैं और इसी के पास नंदी की पत्थर की दो मूर्ति भी मिलती है। काफी सीढ़ियां चढ़कर आपको अन्य मूर्तियों को देखने जाना पड़ता है। पत्थर की कई मूर्तियों को उसी परिसर में बने कमरे में बंद करके रखा गया है। काल भैरव की मूर्ति की दूसरी तरफ एक विशाल पत्थर पर गणेश जी की मूर्ति बनी हुई है जिसके दोनों तरफ पत्थर पर हाथी की मुखाकृति वाले चित्र उकेरे हुए हैं। इस परिसर के बारे में संक्षेप में बताने की जरूरत इसलिए है ताकि इसकी भव्यता और कलात्मकता का अंदाज हो सके। ये पूरा परिसर संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत आनेवाली संस्था भारतीय पुरातत्तव सर्वेक्षण की देखरेख में है। वित्त मंत्री ने सही कहा था कि संस्कृति से जुड़ी जगहों को सहेजने के लिए धन से ज्यादा सुरुचि संपन्न मानव संसाधन की आवश्यकता है। भले ही उन्होंने ये बातें कोलकाता की सांस्कृतिक संस्थाओं के बारे में कही हो, लेकिन ये उनकोटि पर भी लागू होता है। इतने बड़े और भव्य परिसर में नागरिक सुविधाओं के नाम पर शौचालय तो बना है लेकिन ऐसा लगा कि उसमें वर्षों से पानी नहीं आया था। बुजुर्गों और दिव्यांगों के लिए भी किसी तरह की सुविधा मुझे नहीं दिखी। इनको अगर थोड़ी देर के लिए छोड़ भी दिया जाए तो जो पत्थर पर बनी मूर्तियां हैं या कला कृतियां हैं वो भी देखरेख के आभाव में जगह जगह से खराब हो रही हैं। कालभैरव की प्रतिमा के नीचे कुछ लोग कपड़े धो रहे थे। उपर के हिस्से में जाने के लिए बनी सीढ़ियां बुरी हालत में हैं। उस परिसर में उगनेवाले जंगली घास भी लंबे समय से काटे नहीं जा सके थे। ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय पुरातत्तव सर्वेक्षण बस परिसर के गेट पर बोर्ड लगाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री माने बैठा है।
यह स्थिति तब है जबकि इस वर्ष के बजट में भारतीय पुरातत्तव सर्वेक्षण के हिस्से में संस्कृति मंत्रालय के बजट से हजार करोड़ रुपए से अधिक का आवंटन है। इसके अलावा संस्कृति मंत्रालय की अन्य योजनाओं के अंतर्गत पूर्वोत्तर के लिए एक सौ दो करोड़ की राशि भी आवंटित की गई है। संस्कृति के साथ-साथ पर्यटन मंत्रालय के बजट का कुछ हिस्सा भी जोड़ दें तो एक अलग ही तस्वीर बनती है। ‘देखो अपना देश’ (डीएडी) योजना के तहत ही उनकोटि जैसे स्थानों के बारे में लोगों को बताया जाए और जब इन स्थानों के बारे में बताया जाए तब वहां उपलब्ध सुविधाओं के बारे में भी जानकारी दी जा सकती है। उनकोटि को तो दो तरह से विकसित किया जा सकता है। एक तो इसको धार्मिक पर्यटन के तौर पर प्रचारित किया जा सकता है। एक ही स्थान पर एक करोड़ से बस एक कम देवताओं का दर्शन लाभ लिया जा सकता है। दूसरे इसको भारतीय मूर्तिकला के अप्रतिम उदाहरण के तौर पर पूरी दुनिया में पेश किया जा सकता है। पूर्वोत्तर भारत में इतनी तरह की कलाओं के उदाहरण मिलते हैं जिनसे न केवल भारतीय कला की समृद्ध परंपरा सामने आती है बल्कि हमारे इतिहास का वो पन्ना भी दुनिया के सामने आ सकता है जो कि हमारी प्राचीन सभ्यता की सुरुचि संपन्नता को भी सामने ला सकती है।
दरअसल हम अपनी विरासत को लेकर उत्साहित ही नहीं होते हैं। उनको सहेजने और उसको पूरी दुनिया के सामने लाने के उपक्रम में भी पिछड़ जाते हैं। उनकोटि जैसी विरासत या कला का नायाब नमूना अगर पश्चिम के किसी देश के पास होता तो वो इसकी इतनी मार्केटिंग करता कि पूरी दुनिया उस स्थान की दीवानी हो जाती। प्रश्न सिर्फ मार्केंटिंग का नहीं है, सवाल तो ये भी कि हम अपने इतिहास को भी इन कलाओं के माध्यम से और इनसे जुड़ी कहानियों से जान सकते हैं। अगर पूरे देश में फैले विरासत के इन अनमोल हीरों को एक माला में पिरो सकें तो यह एक बड़ा काम होगा। इन हीरों को एक माला में पिरोने के लिए एक देश को एक संस्कृति नीति की आवश्यकता है। जितनी जल्दी संस्कृति नीति बनेगी उतनी जल्दी हम ने केवल अपनी गौरवशाली विरासत को सहेज पाएंगे बल्कि नई पीढ़ी के अंदर भी आत्मगौरव का संचार कर पाएंगे।
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