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Saturday, May 1, 2021

सृजनशीलता का स्वर्णिम शिखर


सत्यजित राय, भारतीय फिल्म जगत का एक ऐसा नाम, जिसपर हर भारतीय को गर्व है। सिनेमा के वैश्विक पटल पर सत्यजित राय ने अपनी फिल्मों के माध्यम से रचनात्मकता का परचम लहराया। उनकी बनाई हर फिल्म कला का नायाब नमूना है। एंड्रयू रॉबिंसन की पुस्तक ‘सत्यजित राय, द इनर आई’ में सत्यजित राय की फिल्मकला पर कई बेहतरीन टिप्पणियां हैं। इनमें से एक टिप्पणी तो प्रख्यात लेखक वी एस नायपॉल की भी है जो इनकी फिल्मों की या इन फिल्मों के दृश्यों की तुलना शेक्सपियर के लेखन से करते हैं जहां कम शब्दों में ऐसी बात कह दी जाती है जिसकी व्याप्ति बहुत अधिक होती है। उनकी फिल्मों का कलात्मक मूल्यांकन करते समय बहुधा समीक्षकों से कोई न कोई सिरा छूट ही जाता है। साहित्य को सिनेमा में रूपांतरित करने की कला में सत्यजित राय पारंगत थे। ‘पथेर पांचाली’ से लेकर ‘आगंतुक’ या ‘गणशत्रु’ या फिर ‘शतरंज के खिलाड़ी’ तक उन्होंने मशहूर साहित्यकारों की कृतियों को उठाया और उसको फिल्मी पर्दे पर इस तरह से उकेरा कि वो क्लासिक बन गई। सत्यजित राय ने विभूति भूषण, रवीन्द्रनाथ टैगोर, प्रेमेन्द्र मित्र और प्रेमचंद की कृतियों पर फिल्में बनाईं और कह सकते हैं कि ये सभी फिल्में और सौंदर्य और कहन में मूल कहानी या रचना से कमतर नहीं है बल्कि कई बार तो इस सत्यजित राय का ट्रीटमेंट उसको और बेहतर बना देता है। सत्यजित राय एक ऐसे निर्देशक थे जिनका फिल्म निर्माण के हर क्षेत्र पर दखल रहता था। 

राय के मित्र चिदानंद दासगुप्त ने उन्नीस सौ सत्तावन में अमृत बाजार पत्रिका में एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘पटकथा फिल्म निर्माण का आरंभ है और संपादन उसका अंत होता है। निर्देशक इन दोनों स्तंभों पर निर्भर रहता है, कम से कम सत्यजित राय के मामले में तो ऐसा ही है। दोनों पर संपूर्ण नियंत्रण के माध्यम से सत्यजित अपने कृतित्व को अपनी सोची हुई तस्वीर की समग्र अभिव्यक्ति में रूपायित करते हैं।‘ दरअसल उनके ऐसा कहने के पीछे की सोच ये थी कि सत्यजित राय का शिल्प इस सिद्धांत पर आधारित होता था कि फिल्मकार को छायांकन की श्रेष्ठ समझ हो, वो संगीत में निपुण हो, विषय़ को उसके मूल स्वरूप में चित्रित करने की सलाहियत हो और अपने अभिनेताओं से उच्च श्रेणी का अभिनय करवाने की क्षमता हो। सत्यजित राय में ये सभी गुण थे। फिल्म ‘चारुलता’ में सत्यजित राय ने कैमरा थाम लिया था और फिल्म ‘तीन कन्या’ में उन्होंने संगीत की जिम्मेदारी भी उठा ली थी। कालांतर में तो सत्यजित राय ने संगीत की अपनी एक शैली ही विकसित कर ली थी। लेकिन फिल्मों में पार्श्व संगीत के पक्ष में सत्यजित राय नहीं थे। उन्होंने एक बार कहा भी था कि अगर अपनी फिल्मों का मैं इकलौता दर्शक होता तो उसमें पार्श्व संगीत नहीं डालता। उनका मानना था कि संगीत बाहरी तत्व है और उसके बिना भी अभिव्यक्ति संभव है। पटकथा लेखन में वो ये जानते थे कि मूल कहानी में से क्या रखना है और क्या छोड़ देना है। उनकी तमाम फिल्मों की पटकथा का अगर विश्लेषण किया जाए तो यह बात साफ तौर पर उभर कर आती है कि उसमें न तो अतिभावुकता होती थी, न ही दर्शकों को चमत्कृत करने या उसको प्रभावित करने के लिए कोई विशेष युक्ति अपनाई जाती थी। उन्नीस सौ बयासी में एक समारोह में राय ने माना भी था कि पटकथा का उद्देश्य कहानी का सहज प्रवाह होना चाहिए। उन्होंने कहा था कि, श्रेष्ठ फिल्म संवाद वो होता है जिसे सुनकर दर्शक को लेखक के अस्तित्व का भान ही न हो। मैं ऐसी फिल्म की बात कर रहा हूं जो यथार्थ के एहसास को दृश्य में बांधती है। यथार्थ को जस का तस रख देना कभी भी कला नहीं हो सकती है।‘ सत्यजित राय कभी भी अपनी फिल्म में काम करनेवाले अभिनेताओं से रिहर्सल नहीं करवाते थे। उनका मानना था कि अधिक रिहर्सल से अभिनय की स्वाभाविकता पर असर पड़ता है। अभिनेताओं से बेहतर निकलवाने का उनका अपना एक अनोखा तरीका था, वो करते ये थे कि सेट पर कहानी के अनुरूप ऐसा वातावरण तैयार कर देते थे कि अभिनेता या अभिनेत्री उसके प्रभाव में आकर अपना सर्वश्रेष्ठ देने की कोशिश करते थे, देते भी थे। वो हमेशा शूटिंग से पहले अपने अभिनेताओं को कहानी और सीन समझाते थे और अपनी अपेक्षा भी बताते थे। इस बात के लिए भी प्रेरित करते थे कि वो अपना स्वाभाविक अभिनय करें।  

भारतीय फिल्म के इस कुशल चितेरे के जन्म शताब्दी वर्ष का आरंभ आज से हो रहा है। भारत सरकार ने भी फिल्म से जुड़े इस कलाकार के जन्म शताब्दी वर्ष को भव्यता से मनाने का फैसला किया है। संस्कृति मंत्रालय और विदेश मंत्रालय भी शताब्दी वर्ष के दौरान सत्यजित राय से जुड़े आयोजन करेंगे। सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने घोषणा की है कि इस वर्ष से सत्यजित राय के नाम से एक लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार दिया जाएगा। इस पुरस्कार में दस लाख रुपए की राशि देने की घोषणा भी की गई है। ये पुरस्कार गोवा में आयोजित होने वाले अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया के दौरान दिए जाएंगे। पूरे वर्ष तक सत्यजित राय की फिल्मों का प्रदर्शन आदि भी होगा। सत्यजित राय की फिल्म कला की बारीकियों पर जमकर चर्चा होनी चाहिए, उसके विविध रूपों पर फिल्म के जानकारों के बीच विमर्श होने से नए लोगों की फिल्मों को लेकर दृष्टि और संपन्न होगी।  

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