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Saturday, February 26, 2022

अराजकता का रंगमंच,अव्यवस्था का खेला


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इन दिनों अपने चुनावी भाषणों में एक शब्द का प्रयोग कई बार करते हैं वो है ईकोसिस्टम। जब वो ईकोसिस्टम की बात करते हैं तो उनका निशाना उस संगठित समूह की ओर होता है जो उनकी पार्टी और उनके कार्यों को विफल करना चाहती है, लक्ष्य तक पहुंचने की राह में रोड़े अटकाती है। इस ईकोसिस्टम का प्रभाव राजनीति के बाद सबसे अधिक संस्कृति से जुड़ी संस्थाओं में देखा जा सकता है। इस ईकोसिस्टम का प्रभाव देखना हो तो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में पिछले पांच छह साल में घटने वाली घटनाओं को देखा जा सकता है।  ईकोसिट्म के सदस्य वहां इस कदर हावी हैं कि संस्थान  के हर तरह के काम में रोड़े अटकाए जाते हैं। पिछले दिनों राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की दीवार पर प्रधानमंत्री का एक बेहद ही आपत्तिजनक चित्र बना दिया गया। बड़े आकार के चित्र को दीवार पर उकेरने में घंटों लगे होंगे लेकिन विद्यालय प्रशासन को इसकी भनक नहीं लगी । चित्र जब व्हाट्सएप पर साझा किया जाने लगा तो प्रशासन हरकत में आया। चित्र मिटाया गया। उस शिक्षक पर कोई कार्रवाई नहीं हुई जिसकी देखरेख में आपत्तिजनक चित्र बना। यहां भी ईकोसिस्टम सक्रिय हुआ और पहले इसको अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ा गया लेकिन जब कार्यकारी निदेशक के कार्यालय से दबाव बना तो इसको छात्रों की उत्साह में की गई गलती बताकर मामले को रफा दफा करने की कोशिशें हुईं। किसी पर भी कोई कार्रवाई हुई हो ये पता नहीं चल पाया। 

नई दिल्ली के बहावलपुर हाउस में चलनेवाला राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नाट्य प्रशिक्षण देता है। नाट्य प्रशिक्षण के क्षेत्र में इस संस्था की देश-विदेश में बहुत प्रतिष्ठा है। इन दिनों ये संस्था अपनी इस प्रतिष्ठा को बचाने के लिए संघर्षरत है। आए दिन इसके कैंपस में हाय-हाय के नारे गूंजते हैं। इस संस्था के अध्यक्ष प्रख्यात अभिनेता और पूर्व सांसद परेश रावल हैं। परेश रावल को 2020 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की कमान सौंपी गई थी। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि संस्थान के अध्यक्ष का पद करीब तीन साल तक खाली रहा था। परेश रावल के पहले रतन थिएम 2017 में पदमुक्त हो चुके थे। संस्थान में सितंबर, 2018 के बाद से कोई नियमित निदेशक भी नहीं है। ज्यादतर प्रशासनिक कार्य तदर्थ आधार पर हो रहे हैं। इस संस्थान में सरकार ने दो बार निदेशक नियुक्त करने की प्रक्रिया आरंभ की लेकिन अब तक सफलता नहीं मिल पाई है। पहली बार जब निदेशक नियुक्ति की प्रक्रिया आरंभ तो अज्ञात कारणों से नियुक्ति अटक गई। जब परेश रावल अध्यक्ष बने तो उन्होंने दुबारा प्रक्रिया आरंभ की, साक्षात्कार आदि संपन्न हुआ और सफल अभ्यार्थियों का पैनल बनाकर संस्कृति मंत्रालय भेज दिया गया। इस बीच पहली सूची में चयनित पैनल का एक व्यक्ति अदालत चला गया और मामला लंबा उलझ गया। अदालत से केस के निस्तारण के भी कुछ महीने बीत चुके हैं लेकिन निदेशक की नियुक्ति नहीं हो पा रही है।  

इतने महत्वपूर्ण संस्थान में निदेशक के नहीं होने और करीब तीन वर्ष तक अध्यक्ष नहीं होने की वजह से वहां व्यवस्था लड़खड़ा गई। प्रशासनिक भी और अकादमिक भी। जब व्यवस्था लड़खड़ाती है तो अराजकता का जन्म होता है। वहां भी हुआ। ईकोसिस्टम मजबूत हुआ। इस तरह के नाटकों पर काम होने लगा जो अपने समाज की सही तस्वीर पेश नहीं करता है। आपत्तिजनक भी है। कोई देखनेवाला नहीं है और ईकोसिट्म मजबूत है तो इस तरह के काम निर्बाध गति से चलते भी रहते हैं। स्टूडेंट प्रोडक्शन के नाम पर जिन नाटकों को तैयार करवाया जाता है उसको लेकर कोई नियम नहीं होने की वजह से फूहड़ नाटकों के प्रदर्शन को बढ़ावा मिलता है। किसी भी संस्थान का पाठ्यक्रम निर्धारित होता है, यहां भी है लेकिन स्टूडेंट प्रोडक्शन का एक ऐसा रास्ता है जिसका कोई पाठ्यक्रम या नाटकों की कोई सूची निर्धारित नहीं है। जो भी निर्देशक या शिक्षक पढ़ाने आएगा वो अपनी मर्जी के नाटक का चयन करेगा। अगर नाटक की स्क्रिप्ट है तब तो उसका पता संस्थान के अन्य विभाग को लग सकता है लेकिन अगर नाटक इंप्रोवाइज्ड है तो उसका पता प्रोडक्शन के बहुत करीब आने पर ही चलता है। इसकी आड़ में ही मनमाने नाटकों का प्रदर्शन होता रहता है। कई बार राजनीतिक एजेंडे वाले नाटकों का भी प्रोडक्शन होता है तो कई बार यौन उनमुक्तता को विषय बनाकर समाज की भद्दी छवि पेश की जाती है। बताया जाता है कि इस महीने के आरंभ में इस तरह के एक नाटक का प्रदर्शन वहां हुआ। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री का आपत्तिजनक चित्र भी राजनीतिक एजेंडे वाले एक नाटक की तैयारी के दौरान ही बनाया गया बताते हैं। 

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय संस्कृति मंत्रालय के अधीन है और भारत सरकार से वित्त पोषित है। जब परेश रावल को वहां का अध्यक्ष बनाया गया था तो उम्मीद जगी थी कि नाट्य विद्यालय की प्रतिष्ठा वापस लौटेगी। परेश रावल ने अपने कार्यकाल के आरंभिक दिनों में इसके लिए प्रयास भी किए थे। उत्साह में देशभर में नाट्य प्रदशनों को लेकर बडी बड़ी बातें की थीं लेकिन ईकोसिस्टम ने उनके कुछ नया करने के मंसूबों पर पानी फेर दिया। अब तो वो संस्थान में यथास्थितिवाद को बनाए रखने के लिए ही संघर्ष करते नजर आ रहे हैं। ईकोसिट्म ने अध्यक्ष के एक सहयोगी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है और उसको हटाने का दबाव बनाया जा रहा है। अध्यक्ष के सहयोगी का दोष इतना है कि उसने पूर्व में हुई गड़बड़ियों को सामने लाने का काम आरंभ किया है। ईकोसिस्टम को ये मंजूर नहीं है। ईकोसिट्म को न तो छात्रों की परवाह है ना ही विद्यालय की प्रतिष्ठा की। ईकोसिस्टम में तो वहां ऐसे सदस्य भी हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वो कम्युनिस्ट पार्टी के भी सक्रिय सदस्य हैं और पार्टी की इंटरनेट पर चलनेवाली गतिविधियों को संचालित भी करते हैं। अर्जुन देव चारण सालों से संस्थान के उपाध्यक्ष के पद पर बने हुए हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की हालत का अंदाज इस बात से ही लगाया जा सकता है कि वहां की वेबसाइटट तक अपडेट नहीं हो रही है। 

आवश्यकता इस बात की है कि संस्कृति मंत्रालय में उच्चतम स्तर पर इस संस्थान पर ध्यान दिया जाए। यहां नियमित निदेशक की नियुक्ति की जाए ताकि प्रशासनिक कार्य पटरी पर आ सके। मंत्रालय एक शार्टकट निकालता है कि निदेशक की नियुक्ति होने तक मंत्रालय के किसी अफसर को संस्थान का प्रभार दे दिया जाए। यह स्थायी समाधान नहीं है। आवश्यक नहीं कि जिस अधिकारी को नाट्य विद्यालय का प्रभार दिया जाए उसकी रुचि इस विधा या कला में हो। हमारे सामने ललित कला अकादमी और संगीत नाटक अकादमी का उदाहरण है जहां अधिकारी इन संस्थाओं को चला रहे हैं। ये दोनों संस्थाएं कैसे चल रही हैं इस बारे में कई बार इस स्तंभ में लिखा जा चुका है, उसको दोहराने का कोई लाभ नहीं। जरूरत इस बात की भी है कि इस संस्थान के पाठ्यक्रम को अद्यतन किया जाए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुरूप पाठ्यक्रम में बदलाव किया जाना आवश्यक है। संस्थान के अध्यक्ष परेश रावल को भी सामने आकर नेतृत्व करना होगा। उनको भी ये समझना होगा कि अभिनय और इससे जुड़ी विधाओं में उनके अनुभव का विपुल लाभ किस तरह से छात्रों को और संस्थान को मिले। ईकोसिस्टम को खत्म करने का सबसे अच्छा तरीका है कि उसके सामने उनसे बड़ी लकीर खींच दी जाए। कोसने का वक्त निकल चुका है, अब कर दिखाने का समय है। संस्कृति मंत्रालय में इस वक्त योग्य मंत्रियों की टीम है और उम्मीद की जानी चाहिए कि ये टीम ईकोसिस्टम के दुष्प्रभावों को कम करने या खत्म करने के क्षेत्र में सक्रिय होंगे।     


Thursday, February 24, 2022

चुनाव प्रचार में तकनीक का बोलबाला


उत्तर प्रदेश विधानसभा के चार चरणों के चुनाव संपन्न हो चुके हैं। पहले दो चरण के चुनाव पर कोरोना महामारी की छाया रही और ज्यादातर चुनाव प्रचार आभासी माध्यमों के जरिए हुए। बाद में चुनाव का पारंपरिक रंग देखने को मिला। इस चुनाव में एक नया ट्रेंड देखने का मिला वो है इंटरनेट मीडिया और तकनीक का चुनाव प्रचार में उपयोग। 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार देश की जनता ने तकनीक का कमाल देखा था। उस वक्त नरेन्द्र मोदी ने पहली बार अपने चुनाव प्रचार के दौरान होलोग्राम तकनीक का उपयोग किया था। इस तकनीक में वो अपने निवास से जमसभा को संबोधित करते थे, न्यूज चैनलों के स्टूडियो में लाइव दिखाई देते थे। इससे समय की बचत होती थी। उस चुनाव में फेसबुक और ट्विटर का भी उपयोग हुआ था। चुनाव में तकनीक का उपयोग उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान भी देखने को मिल रहा है। इस बार प्रचार में ट्विटर के स्पेसेज का जमकर उपयोग हो रहा है। इसमें किसी भी ट्वीटर हैंडल से आडियो के जरिए कहीं से भी जुड़ा जा सकता है। किसी भी विषय पर चर्चा आयोजित की जा रही है। हर दिन शाम को ट्विटर स्पेसेज पर राजनीतिक चर्चा सुनी जा सकती है। नेता और राजनीतिक दलों से जुड़े लोग अपने घर से या यात्रा के दौरान भी स्पेसेज पर जनता के सामने अपनी बात रखते हैं। स्पेसेज आयोजित करनेवाला होस्ट किसी को भी बोलने की अनुमति दे सकता है। चुनाव के आंरंभिक काल से ही बीजेपी उत्तर प्रदेश के हैंडल से नियमित अंतराल ट्विटर स्पेसज पर आयोजित हो रहा है। अलग अलग राजनीतिक दल भी स्पेसेज आयोजित करते हैं।

ट्विटर की कंटेंट पार्टनरशिप की इंडिया प्रमुख अमृता त्रिपाठी के मुताबिक स्पेसेज की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है और संस्थान, राजनीतिक दल और पत्रकार भी इसका उपयोग राजनीतिक चर्चा के लिए कर रहे हैं। अमृता ने बताया कि ट्विटर भी लगातार अपनी इस सेवा में नए नए फीचर जोड़ने पर काम कर रहा है। ट्विटर स्पेसेज पर होनेवाली चर्चा को अब रिकार्ड भी किया जा सकता है ताकि बाद में भी लोग चर्चा को सुन सकें। स्पेसज पर आयोजित चर्चा को शेड्यूल भी किया जा सकता है और आयोजन का समय और विषय आयोजक के हैंडल पर चर्चा आरंभ होने तक दिखता है। ट्विटर के प्लेटफार्म पर आयोजित चर्चा में जितने लोग जुड़े दिखाई देते हैं उससे कहीं अधिक लोग उसे सुन रहे होते हैं। इसको इंटरनेट पर भी सुना जा सकता है जो संख्या चर्चा के दौरान दिखती नहीं है। इस प्लेटफार्म को आभासी चौपाल कहा जा सकता है। ट्विटर के अलावा फेसबुक रूम पर भी राजनीतिक चर्चा सुनी जा सकती है। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान क्लबहाउस की लोकप्रियता भी दिखी थी। इस ऐप के जरिए उस समय राजनीतिक चर्चा और नेताओं से संवाद के कई कार्यक्रम हुए थे।

चुनाव के दौरान मैसेजिंग प्लेटफार्म का भी खूब उपयोग हो रहा है। व्हाट्सएप, टेलीग्राम और सिग्नल पर संदेशों और इमोजी का आदान-प्रदान पुरानी बात हो गई है। उत्तर प्रदेश,उत्तराखंड, गोवा  आदि राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान मैसेजिंग एप पर राजनीतिक संदेशों वाले स्टिकर और जीआईएफ का प्रयोग देखने को मिला। विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं की भिन्न-भिन्न मुद्राओं वाले स्टिकर उपयोग में लाए जा रहे हैं। इन स्टीकरों ने चुनाव चिन्ह वाले बैज और बिंदी का स्थान ले लिया है। तकनीक के प्रयोग ने चुनाव प्रचार को एक नया आयाम प्रदान किया है।    



Saturday, February 19, 2022

वैचारिक जकड़न में इतिहास लेखन


इतिहास, ये एक ऐसा शब्द है जिसको लेकर स्वाधीन भारत में लंबे समय से बहस चलती रही है। पश्चात्य और वामपंथी इतिहासकार हमेशा से इस बात को स्थापित करने में लगे रहे कि भारतीयों ने अपना इतिहास लिखा ही नहीं। कई बार तो यहां तक कह दिया जाता है कि भारतीयों के पास इतिहास लेखन का विवेक ही नहीं था। 1947 में जब देश स्वतंत्र हुआ तो वामपंथी इतिहासकारों ने विदेशी इतिहासकारों के लेखन को पत्थर की लकीर मान लिया। उनके लेखन को ही प्रचारित प्रसारित करते रहे। पीढ़ियों तक उनका लिखा इतिहास भारत के विद्यालयों से लेकर महाविद्यालयों और विश्वविद्यालय के छात्रों को पढ़ाया जाता रहा है। जब भी इतिहास लेखन ने पाश्चात्य-वामपंथी धारा से अलग हटकर कुछ करने की कोशिश की तो उसकी प्रामाणिकता को लेकर संदेह का वातावरण बनाने का प्रयास हुआ। इस प्रयास में सफलता भी मिली। अब भी वामपंथी इतिहासकारों का ये प्रयास जारी है। ताजा मामला है विक्रम संपत का। वीर सावरकर पर दो खंडों में लिखी उनकी पुस्तक में वर्णित तथ्यों में जब किसी प्रकार की कमजोरी नहीं मिली तो उनके लेखन को संदेहास्पद बनाने के लिए दूसरे हथकंडों का उपयोग किया जाना लगा। मामला इतना बढ़ा कि विक्रम संपत को अदालत की शरण लेनी पड़ी जहां से उनको राहत मिली। विक्रम संपत अकेले उदाहरण नहीं हैं । जिस भी इतिहासकार ने इतिहास लेखन का वैकल्पिक मार्ग चुना और भारतीय पौराणिक ग्रंथों के आधार पर लिखने की कोशिश की उनको नीचा दिखाने की कोशिश की गई। उनके अकादमिक कार्य को कोरी कल्पना तक करार दे दिया गया। पुराणों और वेदों में लिखे गए तथ्यों को कल्पना बताकर या साहित्य बताकर खारिज किया जाता रहा है। वामपंथी इतिहासकारों ने कभी भी पुराणों में वर्णित राजवंशों के कालखंड की तरफ देखा ही नहीं। कई इतिहासकार पुराणों की ऐतिहासिकता को भी संदिग्ध मानते हैं। संदिग्ध मानने की वजह बताए बगैर सीधा निर्णय सुना देते हैं। 

एफ ई पार्जिटर जैसे पश्चिमी विद्वान एक तरफ पुराणों में उल्लिखित कई बातों को अपने इतिहास लेखन का आधार बनाते हैं और दूसरी तरफ भारतीय इतिहास लेखन की परंपरा और प्रविधि पर संदेह भी करते हैं। उनके लेखन में ये विरोधाभास दिखता है। आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से संबद्ध संस्कृत के विद्वान आर्थर एंटनी मैकडानेल से लेकर अलबरुनी तक बेहिचक ये कहते रहे हैं कि भारतीयों को इतिहास लिखना नहीं आता है। मैकडानेल ने तो अपनी पुस्तक संस्कृत साहित्य में भी भारतीय इतिहास लेखन को लेकर निर्णयात्मक टिप्पणी की थी। उन्होंने लिखा था कि इतिहास लेखन भारतीय साहित्य की कमजोरी है, बल्कि ये कह सकते हैं कि भारतीय साहित्य में इतिहास लेखन अनुपस्थित है। वो यहीं नहीं रुकते हैं और यहां तक कह देते हैं कि भारतीय साहित्य में इतिहास बोध की कमी पूरे संस्कृत साहित्य पर एक छाया की तरह दिखाई देती है। अलबरुनी तो एक कदम आगे बढ़ जाता है जब वो कहता है कि दुर्भाग्य से हिंदुओं ने इतिहास को कालक्रम के अनुसार नहीं संजोया और वो शासकों के कालखंड को दर्ज करने को लेकर लापरवाह रहे। इस तरह की टिप्पणियों को स्वाधीन भारत के इतिहासकारों ने गंभीरता से लिया और उसके आधार पर ही व्याख्या करने में लग गए। होना ये चाहिए था कि इसको परखने की कोशिश होती लेकिन वैसा नहीं हुआ। परिणाम ये हुआ कि वो भी विदेशी इतिहासकारों और विद्वानों की तरह दोष के शिकार हो गए। विदेशी विद्वान अगर पुराणों को छोड़ भी देते और सिर्फ कल्हण की राजतरंगिणी को ही देख लेते तो उनकी भारतीय इतिहास लेखन को लेकर पैदा हुई भ्रांति दूर हो सकती थी। 

उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में पश्चिमी देशों में या पश्चिम के अकादमिक जगत में इतिहास लेखन की जो प्रविधि थी वो इतिहास लेखन की भारतीय पद्धति से बिल्कुल अलग थी। पश्चिम के इतिहासकार जब भारत का इतिहास लिखने लगे तो उन्होंने अपने देश के इतिहास लेखन के औजारों को अपनाया। स्वाधीन भारत में वामपंथियों ने मार्क्सवादी सिद्धांतों के आधार पर इतिहास लेखन किया। ये दोनों ही भारतीय इतिहास लेखन की परंपरा को समझने में विफल रहे। वो ये भी समझने में विफल रहे कि इतिहास सिर्फ कालखंड का निर्धारण या शासकों के नामों और युद्ध में जय पराजय का लेखा-जोखा मात्र नहीं है। इतिहास सिर्फ राजनीतिक घटनाओं का विवेचन भी नहीं है, इतिहास तो समवेत रूप से समाज की परंपराओं को रेखांकित करता है। इसमें राजनीति, धर्म, समाज के बनने और बिगड़ने की खोज होती है और उसके आधार पर आकलन होता है। जब भारत पराधीन हुआ तो सिर्फ राजनीतिक रूप से ही पराधीन नहीं हुआ बल्कि गुलामी ने अकादमिक जगत को भी प्रभावित किया । पाश्चात्य लेखकों के प्रभाव के पहले भारतीय इतिहास लेखन की प्रविधि और दृष्टि अलग थी जो पराधीनता के काल में बदल गई। उम्मीद की गई थी कि स्वाधीनता के बाद हम अपने प्राचीन ग्रंथों और इतिहास लेखन के तौर तरीकों को अपनाते हुए गुलामी के कालखंड का परिस्थितियों के आधार पर भारतीय पद्धति से विश्लेषण करेंगे लेकिन ऐसा हो न सका। काशी प्रसाद जायसवाल जैसे कई इतिहासकारों ने भारतीय पद्दति अपनाने की कोशिश की थी लेकिन उनको हाशिए पर डाल दिया गया। 1970 के बाद जब भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का गठन हुआ तो तमाम वामपंथी इतिहासकार उसके कर्ताधर्ता हुए। वहां से इतिहास लेखन की धारा ऐसी बदली कि भारतीय लेखन पद्धति नेपथ्य में चली गई और मार्क्सवादी पद्धति केंद्र में आ गई। कभी उसको सुधारने की कोशिश भी नहीं की गई बल्कि उसको मजबूती ही प्रदान की गई।

स्कूली छात्रों को पढ़ाई जानेवाली किताबों में भी इन वामपंथी इतिहासकारों के मार्गदर्शन में तैयार किया गया। नेशनल काउंसिल आफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) ने जिस तरह की इतिहास पुस्तकें तैयार की वो भी छात्रों को परोक्ष रूप से यही बताती रही कि भारतीयों के पास इतिहास लेखन का विवेक ही नहीं था। घटनाओं  का विचारधारा के आधार पर वर्णन किया गया। एक ही उदाहरण काफी होगा कि स्कूली छात्रों को ये पढ़ाया जाता रहा कि महात्मा गांधी की हत्या एक हिंदू ब्राह्मण ने की। ये उनको मन में एक समुदाय और जाति के खिलाफ नफरत का बीज बोने के लिए किया गया प्रतीत होता है। इस बात की क्या आवश्यकता थी कि गांधी के हत्यारे की जाति छात्रों को बताई जाए। पता नहीं कि पुस्तक में संशोधन हुआ या अब भी यही पढ़ाया जा रहा है। पिछले दिनों एनसीईआरटी के नवनियुक्त निदेशक प्रोफेसर दिनेश प्रसाद सकलानी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा कि इतिहास लेखन का काम इतिहासकारों का है । अगर उनके पास किसी पाठ्य सामग्री को लेकर कोई शिकायत आती है तो वो विशेषज्ञों से जांच करवाने के बाद उसपर निर्णय लेंगे। अच्छी बात है पर जो शिकायतें पहले से मौजूद हैं उसकी जांच भी प्राथमिकता के आधार पर करवानी चाहिए। इस स्तंभ में कई बार एनसीईआरटी की इतिहास और अन्य विषयों के पुस्तकों में वर्णित तथ्यों को लेकर चर्चा की जा चुकी है। अनुच्छेद 370 का जिस तरह से उल्लेख एनसीईआरटी की पाठ्य पुस्तक में है उसपर निदेशक महोदय को विचार करना चाहिए। एनसीईआरटी की भूमिका इस वजह से महत्वपूर्ण है कि छात्रों को भारत का वही इतिहास पढाया जाए जो किसी विचारधारा में रंगा हुआ न हो। 

इसके अलावा अकादमिक जगत में भी इतिहास लेखन की उस प्रणाली को मजबूत करना होगा जिसमें भारतीय साहित्य में उपलब्ध तथ्यों का उपयोग हो। भारतीय साहित्य में उपलब्ध स्त्रोंतों का आधार हो। उस पूर्वग्रह से मुक्त होकर इतिहास लिखना होगा कि भारतीयों के पास इतिहास लेखन का विवेक ही नहीं है। अगर समग्रता में देखें और पौराणिक ग्रंथों में  उपलब्ध स्त्रोतों को आधार बनाया जाए तो भारतीय इतिहास लेखन की स्वदेशी प्रणाली को पुनर्जीवित किया जा सकता है।    


Saturday, February 12, 2022

वैचारिक दासता से मुक्ति की दरकार


गीतकार मजरुह सुल्तानपुरी को उनकी एक कविता के लिए जेल भेज दिया गया था। तब देश में कांग्रेस का शासन था और नेहरू जी प्रधानमंत्री थे। संविधान और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान ये बातें कहीं। कुछ बुद्धिजीवियों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर तथ्यों को तोड़ मरोड़कर पेश कर करने का आरोप लगाया। नरेन्द्र मोदी को बेहतरीन गल्पकार तक बता दिया गया। विद्वान माने जानेवाले  कुछ स्तंभकारों ने प्रधानमंत्री को लेकर अनर्गल टिप्पणियां कीं। प्रधानमंत्री ने राज्यसभा में दिए अपने वक्तव्य में लता मंगेशकर के भाई ह्रदयनाथ मंगेशकर को वीर सावरकर की कविता को लेकर आकाशवाणी से निकाले जाने का उदाहरण दिया। विवाद मजरुह सुल्तानपुरी पर कही उनकी बातों को लेकर आरंभ हुआ। आरोप लगानेवालों ने जो प्रसंग बताया उसके मुताबिक मजरुह वामपंथी थे। स्वाधीनता  को झूठी आजादी बताकर वामपंथियों ने उस समय की सरकार के खिलाफ आंदोलन और षडयंत्र रचा था, उसमें मजरुह की गिरफ्तारी की बात की गई।

तथ्यों को जान लेते हैं कि मजरुह की गिरफ्तारी किस वजह से हुई थी। आजादी के बाद वामपंथियों का सरकार के खिलाफ विद्रोह चल रहा था। अलग-अलग क्षेत्र में काम करनेवाले कम्युनिस्ट उस विद्रोह में शामिल हो रहे थे। हिंदी फिल्म जगत भी उससे अछूता नहीं रहा था। सिनेमा से जुड़े कुछ लेखक, गीतकार, निर्देशक और अभिनेता भी उस आंदोलन में हिस्सा ले रहे थे। मजरुह उनमें से एक थे। मजरुह जिस कवि गोष्ठी या मुशायरे में जाते थे तो एक कविता अवश्य पढ़ते थे। उस कविता की कुछ पंक्तियां थीं- ये भी है हिटलर का चेला/मार लो साथी जाने न पाए/कामनवेल्थ का दास है नेहरू/मार लो साथी जाने न पाए। इस कविता में नेहरू का नाम लेकर मजरुह ने हमला किया था और उनके पहनावे को खादी का केंचुल बताकर तंज किया था। मजरुह को मुंबई में गिरफ्तार कर लिया गया। कांग्रेस से जुड़े कई लोगों ने उनको सलाह दी कि नेहरू से माफी मांग लें तो रिहाई हो जाएगी। मजरुह ने माफी नहीं मांगी और उनको लंबा समय जेल में बिताना पड़ा। उसी समय प्रदर्शन करते समय अभिनेता बलराज साहनी भी गिरफ्तार हुए थे। कैफी आजमी गिरफ्तारी से बचने के लिए भूमिगत हो गए थे। कई फिल्मों के संवाद लेखक अख्तर उल ईमान को सरकार के खिलाफ षडयंत्र रचने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। अख्तर उल ईमान मशहूर अभिनेता अमजद खान के श्वसुर थे। ये तथ्य है और इसका उल्लेख सरकारी अभिलेखों में मिलता है। उस दौर में लिखी पुस्तकों में भी। बहुत संभव है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में कविता पर जेल भेजे जाने की ये पहली घटना हो। तो जो विद्वान लेखक प्रधानमंत्री को संसद की मर्यादा भंग करने की नसीहत दे रहै हैं या उनके भाषण को अर्धसत्य बता रहे हैं उनको अपने लेखन पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।

कलाकारों के खिलाफ कार्रवाई सिर्फ नेहरू जी के जमाने में ही नहीं हुई। कालांतर में जब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनीं तो उनके कार्यकाल में भी फिल्म से जुड़े लोगों को विरोध करने की सजा मिली। प्रख्यात अभिनेता देवानंद ने अपनी आत्मकथा रोमांसिंग विद लाइफ में इमरजेंसी के दौर की एक घटना का उल्लेख किया है। देवानंद के मुताबिक इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी सातवें आसमान पर थीं। गूंगी गुड़ियानिरंकुश हो गई थीं और अपनी हनक स्थापित करने में लगी थी। संजय गांधी अपनी मां की वारिस के तौर पर खुद को स्थापित कर चुके थे। कांग्रेस ने उस समय दिल्ली में एक रैली की थी जिसमें देवानंद भी शामिल हुए थे। दिलीप कुमार भी। उन्होंने रैली के दौरान के अपने अनुभव के आधार पर लिखा कि संजय गांधी या कांग्रेस की प्रोपगंडा मशीनरी फासीवादी तरीके से काम कर रही थी। रैली के बाद देवानंद और दिलीप कुमार को कांग्रेस की तरफ से संदेश दिया गया कि दूरदर्शन केंद्र जाकर इमरजेंसी के समर्थन में बयान रिकार्ड करवाएं। दिलीप कुमार हिचक रहे थे लेकिन देवानंद ने साफ मना कर दिया कि वो इमरजेंसी के समर्थन में बयान नहीं देंगे। देवानंद ने लिखा है कि उनके मना करने के तुरंत बाद से दूरदर्शन पर उनकी फिल्मों के प्रदर्शन को बैन कर दिया गया। किसी भी सरकारी माध्यम में देवानंद के नाम लिखे जाने तक पर पाबंदी लगा दी गई। इसके पहले किशोर कुमार के साथ भी ऐसा किया जा चुका था क्योंकि उन्होंने गाने से मना कर दिया था।

इस घटना से व्यथित होकर देवानंद ने उस समनय के सूचना ओर प्रसारण मंत्री से भेंट की। मंत्री ने छूटते ही देवानंद से पूछा कि आपको दिक्कत क्या है? देवानंद ने उनको स्पष्ट किया कि वो दबाव में किसी तरह का बयान इमरजेंसी के समर्थन में नहीं दे सकते हैं। मुलाकात खत्म हो गई। कुछ दिनों बाद गांधी परिवार की करीबी अभिनेत्री नर्गिस से देवानंद की मुंबई में एक पार्टी में मुलाकात हुई। नर्गिस ने भी देवानंद से सरकार के समर्थन में बयान न देने की चर्चा की और कहा कि वो अनावश्क रूप से जिद पाले बैठे हैं। बात खत्म हो गई लेकिन जो एक पंक्ति देवानंद ने लिखी है उसका उल्लेख आवश्यक है। देवानंद के मुताबिक इस पूरे प्रकरण के बाद संजय गांधी के दरबारियों ने उनको चिन्हित कर लिया था। उस वक्त देवानंद की फिल्म देस परदेस बन रही थी और वो उसके भविष्य को लेकर चिंतित थे। देवानंद ने भले ही मना कर दिया लेकिन उस वक्त फिल्मों के अधिकांश कलाकार इंदिरा गांधी और इमरजेंसी के समर्थन में थे। इन दिनों एक वरिष्ठ अभिनेत्री लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र की बात जोर शोर से कर रही हैं, लेकिन उस वक्त आपातकाल का समर्थन किया था। इमरजेंसी में इंदिरा गांधी की सरपरस्ती में संजय गांधी के फासीवादी कदमों की चर्चा विनोद मेहता भी अपनी पुस्तक द संजय स्टोरी में करते हैं। ये सूची बहुत लंबी है। स्वतंत्र भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने की चार बेहद गंभीर कोशिशें हुईं जो नेहरू, इंदिरा, राजीव और मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुई। इस स्तंभ में एकाधिक बार इसकी चर्चा की जा चुकी है।

अब प्रश्न ये उठता है कि जब संसद में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात उठाकर प्रधानमंत्री ने नेहरू के दौर को याद किया तो एक विचारधारा विशेष के पोषक स्तंभकारों ने उसपर सुनियोजित तरीके से प्रतक्रिया क्यों दी। अगर आप ध्यान से प्रधानमंत्री के भाषण को सुनेंगे तो उत्तर भी उसमें ही निहित है। उन्होंने अपने भाषण में एक ईको सिस्टम की बात की। भारतीय जनता पार्टी के विरोधी कहें या कांग्रेस के समर्थकों का वो ईको सिस्टम इस तरह का है कि उसमें वैकल्पिक विचारों के लिए जगह ही नहीं है। वो सिर्फ अपने सिद्धांतों को और अपने विचारों को ही दुनिया का श्रेष्ठ विचार मानते हैं। दूसरे विचारों का उपहास करना और उनसे इतर विचारों को हेय समझना और बताना उनकी योजना का हिस्सा है। इसी श्रेष्ठता ग्रंथि को लेकर चलनेवाले स्तंभकार और कथित इतिहासकार आजाद भारत में घटी घटनाओं का विश्लेषण करते समय वैचारिक दोष के शिकार हो जाते हैं। इस कारण उनके लेखन में समग्र दृष्टि का अभाव दिखाई देता है। इतिहास पर लिखनेवालों से ये अपेक्षा की जाती है कि वो वैचारिक रूप से निरपेक्ष रहकर और समग्र दृष्टि के साथ लेखन करेंगे। अफसोस कि हमारे देश में स्वाधीनता के बाद का इतिहास लेखन वैचारिक जकड़न से मुक्त नहीं हो पाया। यह अकारण नहीं है कि स्वाधीन भारत में घटनेवाली राजनीतिक घटनाओं पर लिखते समय भी वैचारिक दासता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। स्वाधीनता के अमृत काल में वैचारिक दासता से मुक्ति भी आवश्यक है।

 

Tuesday, February 8, 2022

राम और कृष्ण की भक्त थीं लता जी


लता मंगेशकर लगातार को भक्ति के पद गाने में बहुत आनंद आता था। उन्होंने मीरा के कई पद गाए। उनको जयदेव का गीत गोविन्द भी बेहद प्रिय था। लता मंगेशकर बचपन से ही कृष्ण के प्रति आकर्षित रहती थीं। बाद में जब मीरा, सूरदास और जयदेव के पदों को पढ़ा तो उनकी कृष्ण में आस्था और गहरी हो गई। वो कोई भी गीत कागज पर लिखती थीं तो सबसे पहले वहां श्रीकृष्ण लिखती थीं और उसके बाद गीत के बोल। इससे जुड़ा एक प्रसंग लता जी ने अपने एक इंटरव्यू में बताया था। लता जी का उदयपुर के महाराज महाराणा भागवत सिंह से पारिवारिक रिश्ता था। एक बार वो, पंडित नरेन्द्र शर्मा, उषा मंगेशकर और ह्रदयनाथ मंगेशकर उदयपुर गए और महाराणा मेवाड़ भागवत सिंह से मिलने उनके महल पहुंचे। भागवत सिंह बहुत प्रसन्न थे। महाराणा ने उनसे कहा कि आप तो कृष्ण की भक्त हैं, आपको मीरा के पद गाना और सुनना दोनों बेहद पसंद है। आपको अपनी पूर्वज मीराबाई के भगवान का दर्शन करवाते हैं। फिर महाराज उनको एक कमरे में लेकर गए। वहां बेहद करीने से रखे गए कृष्ण की छोटी सी मूर्ति के दर्शन करवाए। भागवत सिंह ने लता मंगेशकर को बताया कि ये कृष्ण की वही मूर्ति है जिसको गोद मे लेकर मीराबाई पूजा किया करती थीं। कृष्ण की उस मूर्ति को देखकर लता जी की आंखों में आंसू आ गए। कृष्ण भक्त लता अपने अराध्य की मूर्ति का दर्शन कर बेहद रोमांचित थीं।   

दूसरा वाकया राम भक्ति से जुड़ा है। लता मंगेशकर ‘राम रतन धन पायो’ वाला रिकार्ड तैयार कर रही थीं। उसी समय उनके बेहद नजदीकी पंडित नरेन्द्र शर्मा ने उनसे कहा कि ‘राम ऐसे अकेले भगवान हुए हैं कि अगर कोई उनकी तन मन से सेवा करे तो तो उसका सारा कार्य सिद्ध होता है। राम ही वो ईश्वर हैं जो सत्य के छोर पर खड़े होकर आपको अंत में निर्वाण की दशा में ले जाते हैं। लता मंगेशकर ने यतीन्द्र मिश्र को बताया कि, पंडित नरेन्द्र शर्मा की ये बात उनको गहरे तक छू गई और पता नहीं क्या हुआ कि इस रिकार्ड के बनते बनते तक उनकी राम में श्रद्धा बढ़ने लगी। लता जी ने आगे कहा कि, ‘तभी से मैं राम भक्त हूं और मैं मानती हूं कि उनके जैसा चरित्र बल किसी दूसरे पौराणिक किरदार में ढूंढने से नहीं मिलेगा। पंडित नरेन्द्र शर्मा ने लता जी से कहा था कि देखना तुम्हारा ये रिकार्ड सबसे अधिक चलेगा। आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि जब ये रिकार्ड रिलीज हुआ तब से लेकर आजतक उसके मुकाबले कोई रिकार्ड नहीं चला। बधाई और आशीर्वाद के जितने भी पत्र आजतक मुझे मिलते रहे हैं वो पहले या बाद में कभी इस तरह से नहीं मिले। इसको मैं रामजी का आशीर्वाद मानती हूं।‘  इन दो प्रसंगों से स्पष्ट है सकता है कि लता जी बेहद धार्मिक और आस्थावान महिला थीं। 

प्रतिभा को मिलती रही अंतराष्ट्रीय मान्यता


कोरोना महामारी के दौर में ओवर द टाप (ओटाटी) प्लेटफार्म और तकनीक के अन्य माध्यमों के जरिए देश विदेश में फिल्मों का प्रदर्शन होता है। फिल्म निर्माता या कंपनी फिल्म के मुनाफे को प्रचारित करती हैं तो बहुधा फिल्म के विदेश में प्रदर्शन से होनेवाली आय को भी जोड़ा जाता है। आमिर खान की फिल्म दंगल या इरफान खान अभिनित फिल्म हिंदी मीडियम की विदेश में प्रदर्शन से होनेवाली आय पर भी खूब बातें हुईं। करण जौहर की फिल्मों की विदेश में सफलता को भी प्रचारित किया जाता रहा है। जब इन फिल्मों के विदेश में सफलता की बात होती है तो हम ये भूल जाते हैं कि भारतीय निर्माताओं की फिल्में स्वाधीनता के पहले से विदेशी दर्शकों को आकर्षित करती रही हैं। किश्वर देसाई ने अपनी पुस्तक द लाइफ एंड टाइम्स आफ देविका रानी में हिमांशु राय की फिल्म कर्मा के लंदन और बर्मिंघम के सिनेमा में प्रदर्शन और उसको लेकर उत्सुकता के बारे में विस्तार से लिखा है।  ये फिल्म 1933 में लंदन में रिलीज हुई थी और इसका निर्माण भारत, ब्रिटेन और जर्मनी के निर्माताओं ने संयुक्त रूप से किया था। इसके लीड रोल में हिमांशु राय और देविका रानी थी। 68 मिनट की इस फिल्म को देखने के लिए उस वक्त लंदन का पूरा अभिजात्य वर्ग उमड़ पड़ा था। आक्सफोर्ड स्ट्रीट पर इस फिल्म का एक बड़ा पोस्टर लगा था जिसमें सिर्फ देविका रानी की तस्वीर लगी थी। इस फिल्म के बारे में लंदन के समाचारपत्रों में कई प्रशंसात्मक लेख छपे थे। उसके बाद भी कई हिंदी फिल्मों को विदेश में सराहना मिली थी। इससे परतंत्र भारत के फिल्मकारों और कलाकारों का स्वयं पर भरोसा भी गाढ़ा हुआ था। 

जब देश आजाद हुआ तो भारतीय फिल्मों खासतौर पर हिंदी फिल्मों को लेकर पूरी दुनिया में एक उत्सुकता का माहौल बना। फिल्म इतिहासकारों के मुताबिक इसकी वजह ये थी कि दुनिया के अलग अलग देशों के लोग भारत के बारे में जानना चाहते थे। 1952 में दिलीप कुमार और निम्मी की एक फिल्म आई थी ‘आन’। इस फिल्म को योजनाबद्ध तरीके से दुनिया के 28 देशों में रिलीज किया गया था। दुनिया की 17 भाषाओं में इस फिल्म का सबटाइटल तैयार किया गया था। लंदन में इस फिल्म के प्रीमियर पर ब्रिटेन के उस समय के प्रधानमंत्री लार्ड एटली के उपस्थित रहने का उल्लेख कई जगहों पर मिलता है। अंग्रेजी में इसको सैवेज प्रिंसेस तो फ्रेंच में मंगला, फी दिज आंद ( मंगला, भारत की लड़की) के नाम से रिलीज किया गया था। इस फिल्म में निम्मी ने जिस चरित्र को निभाया था उसका नाम मंगला था। इस फिल्म को कुछ समय बाद जापान में भी रिलीज किया गया था और वहां के दर्शकों ने भी इसको खूब पसंद किया था। राज कपूर की फिल्म ‘आवारा’ हिंदी में 1951 में रिलीज हो गई थी। 1954 में मास्को और लेनिनग्राद में भारतीय फिल्म फेस्टिवल में राज कपूर की इस फिल्म का प्रदर्शन हुआ। इस फिल्म को दर्शकों ने खूब पसंद किया और वहां के अखबारों में राज कपूर के अभिनय की जमकर प्रशंसा हुई। राज कपूर का जादू ऐसा चला कि इस फिल्म को रूस के अन्य सिनेमाघरों में भी प्रदर्शित किया गया। इस फिल्म के बाद ‘श्री 420’ आई उसको भी रूस के दर्शकों ने बेहद पसंद किया था। इस फिल्म के प्रीमियर पर जब राज कपूर वहां पहुंचे थे तो दर्शकों को काबू में करना मुश्किल हो गया था। फिर तो राज कपूर की हर फिल्म रूस में रिलीज होने लगी और व्यावसायिक रूप से भी सफल हुई । राज कपूर की फिल्मों को तो इजरायल के दर्शकों ने भी खूब पसंद किया था। वहां तो राज कपूर की फिल्म ‘श्री 420’ का गाना ‘ईचक दाना बीचक दाना’ तो इतना अधिक लोकपर्य हुआ कि इजरायल के गायक नईम ने उसको अपनी भाषा में गाया। कई फिल्म इतिहासकारों का मानना है कि रूस और चीन में राज कपूर की फिल्में इस वजह से दर्शकों को पसंद आ रही थीं कि वो समाजवादी विचारधारा के नजदीक थीं। पर राज कपूर खुद कह चुके हैं कि उनकी फिल्में विचार या विचारधारा को ध्यान में रखकर नहीं बनाई जाती हैं। उनकी फिल्मों में दर्शकों की संवेदना का ध्यान रखा जाता है। 

1960 के दशक और उसके बाद बनी फिल्में भी विदेश में लोकप्रिय हुईं जिनमें मुगले आजम प्रमुख हैं। 1965 आई देवानंद की फिल्म गाइड को भी विदेश में पसंद किया गया। उसके बाद शोले फिल्म को भी अंतराष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिली। कालांतर में करण जौहर की रोमांटिक फिल्मों ने भी अंतराष्ट्रीय दर्शकों को अपनी ओर खींचा लेकिन तबतक हिंदी फिल्मों में पैसा आ चुका था और तकनीक भी बेहतर हो चुकी थीं। तकनीक के मामले में भी अगर हिंदी फिल्मों के सफर को देखें तो हिंदी फिल्मकारों ने कम संसाधन होने के बावजूद बेहतरीन दृश्यों की संरचना की। व्ही शांताराम जैसे निर्देशक तो बैलगाड़ी के अगले हिस्से में कैमरा लगाकर जिमी जिब तैयार कर मूविंग शाट्स लेते थे। उस जमाने में एल्यूमिनियम शीट्स पर पानी डालकर समंदर की लहर का अहसास करवाने वाले शाट्स बनाए जाते थे। तकनीक के मामले में भी हिंदी फिल्मों ने बहुत लंबा सफर तय कर लिया है। वीएफएक्स के इस दौर में तो गानों से लेकर नायकों की त्वचा तक को बेहतर बनाया जा सकता है। इस तरह से हम देखें तो भारतीय फिल्मकारों ने स्वाधीनता के पहले जो एक विश्वास अर्जित किया था उसकी बुनियाद पर बाद के फिल्मकारों ने सफलता की बुलंद इमारत खड़ी की। 

Saturday, February 5, 2022

राष्ट्र पर राहुल की लचर दलील


राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा में हिस्सा लेते हुए कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने संसद में कुछ ऐसी बातें कहीं जिस पर, उनको लगता है कि चर्चा की जानी चाहिए। पहली बात तो उन्होंने ये कही कि भारत राष्ट्र नहीं है और ये राज्यों का संघ है। उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के सदस्यों को भारतीय संविधान पढ़ने की भी सलाह दी और कहा कि संविधान में लिखा है कि भारत राज्यों का संघ है और वो राष्ट्र नहीं है।इसके आगे वो नरेन्द्र मोदी पर हमलावर हुए। संविधान के अनुच्छेद एक में ये अवश्य लिखा है कि भारत राज्यों का संघ होगा लेकिन पूरे संविधान में ये कहीं नहीं लिखा है कि भारत एक राष्ट्र नहीं है। दरअसल राहुल गांधी ने संविधान का अनुच्छेद एक तो पढ़ लिया लेकिन वो संविधान की प्रस्तावना पढ़ना भूल गए, प्रतीत होता है। संविधान की मूल प्रस्तावना और इमरजेंसी के समय हुए संशोधन के बाद की प्रस्तावना में भारत के लिए राष्ट्र शब्द का उल्लेख है। प्रस्तवाना में लिखा है कि ...उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए...। ये तो स्पष्ट  कि संविधान भारत को एक राष्ट्र के तौर पर देखता है। अगर संविधान की प्रस्तावना और संविधान सभा की बहस को देखें तो ये अधिक स्पष्ट होता है। संविधान सभा की बहस में राज्यों के यूनियन आफ स्टेट्स और फेडरल शब्द के उपयोग को लेकर लंबी बहस हुई थी। उस बहस में बाबा साहब अंबेडकर, प्रो के टी शाह, एच वी कामथ आदि ने हिस्सा लिया था। भारत औप भारत वर्ष नाम पर भी लंबी चर्चा हुई थी। तमाम दलीलों के बाद भारत को राज्यों के संघ के तौर पर स्वीकृत किया गया था। फेडरल स्टेट की मांग को खारिज कर दिया था। दरअसल राजनीतिक भाषणों में जब अकादमिक पुट दिया जाता है तो इस तरह की त्रुटियां हो जाती हैं, क्योंकि राजनीतिक भाषणों में समग्रता में अपनी बात कहने का अवसर नहीं होता है जबकि अकादमिक बहसों या लेखन में अपनी बात समग्रता में कही जा सकती है। राहुल गांधी की चिंता राज्यों के अधिकारों को लेकर है। सविंधान के अलग अलग अनुच्छेद में राज्यों के अधिकारों की चिंता की गई है। ये बात संविधान सभा की बहस में बाबा साहेब अंबेडकर ने भी कई बार दोहराई है। 

दरअसल जब राहुल गांधी भारत के राष्ट्र होने की अवधारणा का निषेध करते हैं तो वो जाने अनजाने कम्युनिस्टों के सोच को आगे बढ़ाते प्रतीत होते हैं। देश की स्वाधीनता के बाद कम्युनिस्टों ने भी राष्ट्र की अवधारणा को, लोकतंत्र की अवधारणा को, लोक कल्याणकारी राज्य का निषेध किया था। कम्युनिस्ट हमेशा से अंतराष्ट्रीयता को मानते रहे। यह अनायस नहीं है कि उनकी पार्टी का नाम भारत की कम्युनिस्ट पार्टी है, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी नहीं। कम्युनिस्ट विचारधारा लोक कल्याणकारी सबल राष्ट्र की पक्षधर नहीं रही है। कम्युनिस्ट पार्टियों में ये बहस चलती रही है कि सरकार की नीतियों को गरीबों तक पहुंचने दिया जाए या नहीं। आप अगर ध्यान से देखेंगे तो नक्सली हमेशा से स्कूल और अस्पतालों पर हमला करते हैं और उनको नष्ट करने की फिराक में रहते हैं। उनका मानना है कि अगर सभी वर्गों तक सरकारी सुविधाओं या योजनाओं का लाभ पहुंच गया तो वर्ग संघर्ष के माध्यम से मजदूरों का राज कायम नहीं हो सकेगा। कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन के आधार को देखेंगे तो वहां भी भारत से अधिक रूस और चीन में व्याप्त विचारधारा का असर दिखता है। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) में जब विभाजन हुआ और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी बनी तो वैचारिक भिन्नता का आधार रूस और चीन की साम्यवादी विचारधारा थी। एक गुट रूस तो दूसरा चीन की विचारधारा को लेकर आगे बढ़ना चाहता था। जब देश आजाद हुआ था तो जवाहरलाल नेहरू रूस के अधिक करीब थे। रूस की कम्युनिस्ट पार्टी चाहती थी कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी नेहरू को लेकर उदार रहे। जबकि सीपीआई का एक गुट इसके खिलाफ था। 1962 में चीन के साथ युद्ध होने के बाद भी सीपीआई का एक गुट चीन की पैरोकारी में लगा रहा। माओ को लेकर नारा भी लगता था उनका चेयरमैन हमारा चेयरमैन। चीन के साथ युद्ध के दो वर्ष बाद पार्टी में विभाजन हुआ। जब राष्ट्र के निषेध की बात होती है तो कम्युनिस्टों की पुरानी वैचारिकी जीवंत हो उठती है। आज जब पूरा देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है तो राहुल गांधी का राष्ट्र की अवधारणा का निषेध चौंकाता है। उन्होंने कहा कि भारत में हमेशा संवाद से शासन चला है और इस संबंध में उन्होंने अशोक, मौर्य और गुप्तवंश की चर्चा की। शायद राहुल गांधी जोश में बिंदुसार के शासन काल के युद्धों को भूल गए, भूल तो वो कलिंग युद्ध को भी गए। 

दूसरी बात राहुल गांधी ने कही कि भारत मे हर राज्य का अपना इतिहास है, अपनी भाषा है और अपनी संस्कृति है। इतिहास और भाषा तक तो बात समझ आती है लेकिन अलग अलग संस्कृति की बात गले नहीं उतरती है। पूरे भारत की संस्कृति एक ही है जहां हम विविधता का उत्सव मनाते हैं। ये बात हमारे पौराणिक ग्रंथों से भी सिद्ध होती है और वासुदेव शरण अग्रवाल, कुबेरनाथ राय और रामधारी सिंह दिनकर के लेखन से भी स्पष्ट होता है। जब हम संस्कृति की बात करते हैं तो हमें उसके मूल तत्वों को समझना होगा। दिनकर ने स्पष्ट किया है कि संस्कृति ऐसी चीज है जिसे लक्ष्णों से तो हम जान सकते हैं किंतु उसकी परिभाषा नहीं दे सकते। कुछ अर्शों में वो सभ्यता से भिन्न गुण है। सभ्यता वो चीज है जो हमारे पास है, संस्कृति वह गुण है जो हममें व्याप्त है। दिनकर के अलावा अगर हम राजनीतिशास्त्र के विद्वानों की तरफ से दिए गए आयडिया आफ इंडिया की बात भी करें तो वहां भी स्पष्ट है कि भारत की संस्कृति तो एक ही है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और कच्छ से लेकर कोलकाता तक भाषा, पहनावे, और खान-पान में विविधता दिखाई देती है लेकिन पूरे देश की संस्कृति में भारत की व्याप्ति नजर आती है। इस वजह से स्वाधीनता के बाद अपने एक लेख में वासुदेव शरण अग्रवाल कहते हैं कि ‘राष्ट्र संवर्धन का सबसे प्रबल कार्य संस्कृति की साधना है। उसके लिए बुद्धिपूर्वक यत्न करना होगा। इस देश की संस्कृति की धारा  अति प्राचीन काल से बहती आई है उसके प्राणवंत तत्व को अपनाकर ही हम आगे बढ़ सकते हैं।‘ जब हम राष्ट्र को ही निगेट करेंगे तो हमको संस्कृतियां भी अलग अलग नजर आएंगी । 

राहुल गांधी के भाषण के इस बिंदुओं पर अगर हम समग्रता में देखें तो लगता है कि वो किस तरह से कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रभाव में आकर अपनी ही पार्टी की विरासत को भूल रहे हैं। बाबा साहेब अंबेडकर के संविधान की मूल भावना और सरदार पटेल की राष्ट्र निर्माण के अथक परिश्रम की भी अनदेखी कर रहे हैं। स्वाधीनता आंदोलन में अपना सर्वस्व होम करनेवाले सेनानियों के योगदान को भूल रहे हैं। तात्कालिक राजनीतिक सफलता के लिए इस तरह की जुमलेबाजी की अपेक्षा 136 साल पुरानी पार्टी के अध्यक्ष रहे व्यक्ति से नहीं की जा सकती है। इस तरह के बयानों से हो सकता है तात्कालिक राजनीतिक लाभ मिल जाए। अपने राजनीतिक विरोधी नरेन्द्र मोदी को घेरने में सफलता मिल जाए।कुछ राज्यों में शासन कर रही क्षेत्रीय दलों का समर्थन कांग्रेस को मिल जाए, कुछ चुनावी फायदा हो जाए लेकिन इसका असर लंबे समय तक रहेगा, इसमें संदेह है। इतनी पुरानी पार्टी के अध्यक्ष पद पर रहे व्यक्ति से ये अपेक्षा की जाती है कि वो देश को समझे, उसके संविधान की मूल भावना को समझे, देशवासियों की भावना को उनकी संवेदनाओं को समझें और उसके अनुसार सार्वजनिक बयान दें।   



Friday, February 4, 2022

स्त्रियों की आर्थिक आजादी की पक्षधर


स्वाधीनता आंदोलन में कई ऐसी सेनानी रही हैं जिन्होंने स्वतंत्रता के पहले भी और देश के स्वतंत्र होने के बाद भी अपने कार्यों से भारतीय समाज को प्रभावित किया। ऐसी ही एक सेनानी हैं रमादेवी चौधरी। रमादेवी ने किशोरावस्था में ही अपने पति के साथ देश की स्वाधीनता का स्वप्न देखा और उसको साकार करने में जुट गई। रमादेवी जब 15 वर्ष की थीं तो उनकी शादी हो गई थी। शादी के वक्त उनके पति सरकारी अधिकारी थे। बाद में उन्होंने सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और स्वाधीनता आंदोलन में शामिल हो गए। रमादेवी के स्वाधीनता आंदोलन में शामिल होने की भी बेहद दिलचस्प कहानी है। महात्मा गांधी पूरे देश के दौरे पर थे। उसी क्रम में वो कटक पहुंचे थे और वहां के बिनोद विहारी मंदिर में महिलाओं के साथ उन्होंने एक बैठक की थी। उस बैठक में अन्य महिलाओं के साथ रमादेवी भी शामिल हुई थीं। उस बैठक के बाद उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और अपने पति के साथ कांग्रेस में शामिल हो गई। 1922 के कांग्रेस के गया अधिवेशन में हिस्सा लिया। इस अधिवेशन में शामिल होकर लौटने के बाद रमादेवी ने अपने इलाके की महिलाओं को संगठित करना आरंभ कर दिया। 

1930 में गांधी ने जब नमक सत्याग्रह का आह्वान किया तो रमादेवी ने अपने क्षेत्र की महिलाओं को संगठित करने के काम में जुट गईं। महिलाओं की भागीदारी से उत्साहित होकर रमादेवी ने महिलाओं को स्वाधीनता आंदोलन में शामिल करने का अभियान आरंभ किया। उनका ये अभियान अंग्रजों को नागवार गुजरा और 1930 के अंत में रमादेवी  को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। 1931 में गांधी-इरविन समझौता हुआ तो उसके कई महीने बाद रमादेवी की रिहाई हुई। जेल से बाहर आने के बाद रमादेवी ने अस्पृश्यता के खिलाफ बड़ा जागरूता आंदोलन चलाया। इसके लिए उन्होंने अस्पृश्यता निवारण संघ बनाया। रमादेवी मानती थीं कि समाज में कोई भी बदलाव बगैर स्त्रियों की सक्रिय भूमिका के संभव नहीं है। इसी समय उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर सेवाघर नाम से एक आश्रम की स्थापना की। इस आश्रम के माध्यम से उन्होंने स्वदेशी को बढ़ावा देना और महिलाओं को शिक्षित करने का भी उपक्रम शुरु किया गया। आश्रम की लोकप्रियता बढ़ने लगी थी और बड़ी संख्या में लोग इससे जुड़ने लगे थे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय फिर रमादेवी को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया और उनके आश्रम को अंग्रेजों ने गैरकानूनी घोषित कर बंद कर दिया। दो वर्ष के बाद रमादेवी जब जेल से बाहर आईं तो उन्होंने महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के काम में लग गईं। 

1947 में जब देश आजाद हुआ तो रमादेवी ने बिनोवा भावे के सर्वोदय आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी की। भूमि सुधार के लिए उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर ओडीशा में करीब 4000 किलोमीटर की पदयात्रा भी की थी। स्वतंत्रता के बाद महिलाओं की सार्वजनिक जीवन में भागीदारी कम थी। रमादेवी इसको बढ़ाना चाहती थीं। इसके लिए उन्होनें उत्कल खादी मंडल की स्थापना की। इसके माध्यम से वो महिलाओं को रोजगार देना चाहती थीं। उन्होंने ओडीशा के आदिवासियों की बेहतरी के लिए भी काम किया। 1951 में जब देश में अकाल पड़ा था तो अपने संगठन के माध्यम से उन्होंने अकाल पीड़ितों की मदद के लिए भी दिन रात एक कर दिया था। इंदिरा गांधी ने जब देश में इमरजेंसी लगाई तो रमादेवी उसके खिलाफ खड़ी हो गईं थीं। उन्होंने मीडिया पर पाबंदी का विरोध किया था। हरेकृष्ण महताब और नीलमणि राउतराय के साथ मिलकर उन्होंने ग्राम सेवक प्रेस के नाम से एक समाचारपत्र निकाला। इस समाचार पत्र को इंदिरा सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया और रमादेवी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। भारत की आजादी के लिए जेल जानेवाली एक सेनानी स्वतंत्र भारत में फिर से जेल में डाल दी गईं। इमरजेंसी के बाद जब जेल से उनकी रिहाई हुई तो वो शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने लगी। बच्चों को शिक्षा मिले इसके लिए उन्होंने शिशु विहार के नाम से स्कूल आरंभ किया। उनकी देखरेख में कटक में एक कैंसर अस्पताल की स्थापना भी की गई। 1985 में अपने निधन के पहले तक वो लगातार भारत की महिलाओं, बच्चों और समाज के निचले पायदान के लोगों की बेहतरी के लिए काम करती रहीं।