स्वाधीनता आंदोलन में कई ऐसी सेनानी रही हैं जिन्होंने स्वतंत्रता के पहले भी और देश के स्वतंत्र होने के बाद भी अपने कार्यों से भारतीय समाज को प्रभावित किया। ऐसी ही एक सेनानी हैं रमादेवी चौधरी। रमादेवी ने किशोरावस्था में ही अपने पति के साथ देश की स्वाधीनता का स्वप्न देखा और उसको साकार करने में जुट गई। रमादेवी जब 15 वर्ष की थीं तो उनकी शादी हो गई थी। शादी के वक्त उनके पति सरकारी अधिकारी थे। बाद में उन्होंने सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और स्वाधीनता आंदोलन में शामिल हो गए। रमादेवी के स्वाधीनता आंदोलन में शामिल होने की भी बेहद दिलचस्प कहानी है। महात्मा गांधी पूरे देश के दौरे पर थे। उसी क्रम में वो कटक पहुंचे थे और वहां के बिनोद विहारी मंदिर में महिलाओं के साथ उन्होंने एक बैठक की थी। उस बैठक में अन्य महिलाओं के साथ रमादेवी भी शामिल हुई थीं। उस बैठक के बाद उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और अपने पति के साथ कांग्रेस में शामिल हो गई। 1922 के कांग्रेस के गया अधिवेशन में हिस्सा लिया। इस अधिवेशन में शामिल होकर लौटने के बाद रमादेवी ने अपने इलाके की महिलाओं को संगठित करना आरंभ कर दिया।
1930 में गांधी ने जब नमक सत्याग्रह का आह्वान किया तो रमादेवी ने अपने क्षेत्र की महिलाओं को संगठित करने के काम में जुट गईं। महिलाओं की भागीदारी से उत्साहित होकर रमादेवी ने महिलाओं को स्वाधीनता आंदोलन में शामिल करने का अभियान आरंभ किया। उनका ये अभियान अंग्रजों को नागवार गुजरा और 1930 के अंत में रमादेवी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। 1931 में गांधी-इरविन समझौता हुआ तो उसके कई महीने बाद रमादेवी की रिहाई हुई। जेल से बाहर आने के बाद रमादेवी ने अस्पृश्यता के खिलाफ बड़ा जागरूता आंदोलन चलाया। इसके लिए उन्होंने अस्पृश्यता निवारण संघ बनाया। रमादेवी मानती थीं कि समाज में कोई भी बदलाव बगैर स्त्रियों की सक्रिय भूमिका के संभव नहीं है। इसी समय उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर सेवाघर नाम से एक आश्रम की स्थापना की। इस आश्रम के माध्यम से उन्होंने स्वदेशी को बढ़ावा देना और महिलाओं को शिक्षित करने का भी उपक्रम शुरु किया गया। आश्रम की लोकप्रियता बढ़ने लगी थी और बड़ी संख्या में लोग इससे जुड़ने लगे थे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय फिर रमादेवी को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया और उनके आश्रम को अंग्रेजों ने गैरकानूनी घोषित कर बंद कर दिया। दो वर्ष के बाद रमादेवी जब जेल से बाहर आईं तो उन्होंने महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के काम में लग गईं।
1947 में जब देश आजाद हुआ तो रमादेवी ने बिनोवा भावे के सर्वोदय आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी की। भूमि सुधार के लिए उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर ओडीशा में करीब 4000 किलोमीटर की पदयात्रा भी की थी। स्वतंत्रता के बाद महिलाओं की सार्वजनिक जीवन में भागीदारी कम थी। रमादेवी इसको बढ़ाना चाहती थीं। इसके लिए उन्होनें उत्कल खादी मंडल की स्थापना की। इसके माध्यम से वो महिलाओं को रोजगार देना चाहती थीं। उन्होंने ओडीशा के आदिवासियों की बेहतरी के लिए भी काम किया। 1951 में जब देश में अकाल पड़ा था तो अपने संगठन के माध्यम से उन्होंने अकाल पीड़ितों की मदद के लिए भी दिन रात एक कर दिया था। इंदिरा गांधी ने जब देश में इमरजेंसी लगाई तो रमादेवी उसके खिलाफ खड़ी हो गईं थीं। उन्होंने मीडिया पर पाबंदी का विरोध किया था। हरेकृष्ण महताब और नीलमणि राउतराय के साथ मिलकर उन्होंने ग्राम सेवक प्रेस के नाम से एक समाचारपत्र निकाला। इस समाचार पत्र को इंदिरा सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया और रमादेवी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। भारत की आजादी के लिए जेल जानेवाली एक सेनानी स्वतंत्र भारत में फिर से जेल में डाल दी गईं। इमरजेंसी के बाद जब जेल से उनकी रिहाई हुई तो वो शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने लगी। बच्चों को शिक्षा मिले इसके लिए उन्होंने शिशु विहार के नाम से स्कूल आरंभ किया। उनकी देखरेख में कटक में एक कैंसर अस्पताल की स्थापना भी की गई। 1985 में अपने निधन के पहले तक वो लगातार भारत की महिलाओं, बच्चों और समाज के निचले पायदान के लोगों की बेहतरी के लिए काम करती रहीं।
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