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Saturday, February 5, 2022

राष्ट्र पर राहुल की लचर दलील


राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा में हिस्सा लेते हुए कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने संसद में कुछ ऐसी बातें कहीं जिस पर, उनको लगता है कि चर्चा की जानी चाहिए। पहली बात तो उन्होंने ये कही कि भारत राष्ट्र नहीं है और ये राज्यों का संघ है। उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के सदस्यों को भारतीय संविधान पढ़ने की भी सलाह दी और कहा कि संविधान में लिखा है कि भारत राज्यों का संघ है और वो राष्ट्र नहीं है।इसके आगे वो नरेन्द्र मोदी पर हमलावर हुए। संविधान के अनुच्छेद एक में ये अवश्य लिखा है कि भारत राज्यों का संघ होगा लेकिन पूरे संविधान में ये कहीं नहीं लिखा है कि भारत एक राष्ट्र नहीं है। दरअसल राहुल गांधी ने संविधान का अनुच्छेद एक तो पढ़ लिया लेकिन वो संविधान की प्रस्तावना पढ़ना भूल गए, प्रतीत होता है। संविधान की मूल प्रस्तावना और इमरजेंसी के समय हुए संशोधन के बाद की प्रस्तावना में भारत के लिए राष्ट्र शब्द का उल्लेख है। प्रस्तवाना में लिखा है कि ...उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए...। ये तो स्पष्ट  कि संविधान भारत को एक राष्ट्र के तौर पर देखता है। अगर संविधान की प्रस्तावना और संविधान सभा की बहस को देखें तो ये अधिक स्पष्ट होता है। संविधान सभा की बहस में राज्यों के यूनियन आफ स्टेट्स और फेडरल शब्द के उपयोग को लेकर लंबी बहस हुई थी। उस बहस में बाबा साहब अंबेडकर, प्रो के टी शाह, एच वी कामथ आदि ने हिस्सा लिया था। भारत औप भारत वर्ष नाम पर भी लंबी चर्चा हुई थी। तमाम दलीलों के बाद भारत को राज्यों के संघ के तौर पर स्वीकृत किया गया था। फेडरल स्टेट की मांग को खारिज कर दिया था। दरअसल राजनीतिक भाषणों में जब अकादमिक पुट दिया जाता है तो इस तरह की त्रुटियां हो जाती हैं, क्योंकि राजनीतिक भाषणों में समग्रता में अपनी बात कहने का अवसर नहीं होता है जबकि अकादमिक बहसों या लेखन में अपनी बात समग्रता में कही जा सकती है। राहुल गांधी की चिंता राज्यों के अधिकारों को लेकर है। सविंधान के अलग अलग अनुच्छेद में राज्यों के अधिकारों की चिंता की गई है। ये बात संविधान सभा की बहस में बाबा साहेब अंबेडकर ने भी कई बार दोहराई है। 

दरअसल जब राहुल गांधी भारत के राष्ट्र होने की अवधारणा का निषेध करते हैं तो वो जाने अनजाने कम्युनिस्टों के सोच को आगे बढ़ाते प्रतीत होते हैं। देश की स्वाधीनता के बाद कम्युनिस्टों ने भी राष्ट्र की अवधारणा को, लोकतंत्र की अवधारणा को, लोक कल्याणकारी राज्य का निषेध किया था। कम्युनिस्ट हमेशा से अंतराष्ट्रीयता को मानते रहे। यह अनायस नहीं है कि उनकी पार्टी का नाम भारत की कम्युनिस्ट पार्टी है, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी नहीं। कम्युनिस्ट विचारधारा लोक कल्याणकारी सबल राष्ट्र की पक्षधर नहीं रही है। कम्युनिस्ट पार्टियों में ये बहस चलती रही है कि सरकार की नीतियों को गरीबों तक पहुंचने दिया जाए या नहीं। आप अगर ध्यान से देखेंगे तो नक्सली हमेशा से स्कूल और अस्पतालों पर हमला करते हैं और उनको नष्ट करने की फिराक में रहते हैं। उनका मानना है कि अगर सभी वर्गों तक सरकारी सुविधाओं या योजनाओं का लाभ पहुंच गया तो वर्ग संघर्ष के माध्यम से मजदूरों का राज कायम नहीं हो सकेगा। कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन के आधार को देखेंगे तो वहां भी भारत से अधिक रूस और चीन में व्याप्त विचारधारा का असर दिखता है। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) में जब विभाजन हुआ और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी बनी तो वैचारिक भिन्नता का आधार रूस और चीन की साम्यवादी विचारधारा थी। एक गुट रूस तो दूसरा चीन की विचारधारा को लेकर आगे बढ़ना चाहता था। जब देश आजाद हुआ था तो जवाहरलाल नेहरू रूस के अधिक करीब थे। रूस की कम्युनिस्ट पार्टी चाहती थी कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी नेहरू को लेकर उदार रहे। जबकि सीपीआई का एक गुट इसके खिलाफ था। 1962 में चीन के साथ युद्ध होने के बाद भी सीपीआई का एक गुट चीन की पैरोकारी में लगा रहा। माओ को लेकर नारा भी लगता था उनका चेयरमैन हमारा चेयरमैन। चीन के साथ युद्ध के दो वर्ष बाद पार्टी में विभाजन हुआ। जब राष्ट्र के निषेध की बात होती है तो कम्युनिस्टों की पुरानी वैचारिकी जीवंत हो उठती है। आज जब पूरा देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है तो राहुल गांधी का राष्ट्र की अवधारणा का निषेध चौंकाता है। उन्होंने कहा कि भारत में हमेशा संवाद से शासन चला है और इस संबंध में उन्होंने अशोक, मौर्य और गुप्तवंश की चर्चा की। शायद राहुल गांधी जोश में बिंदुसार के शासन काल के युद्धों को भूल गए, भूल तो वो कलिंग युद्ध को भी गए। 

दूसरी बात राहुल गांधी ने कही कि भारत मे हर राज्य का अपना इतिहास है, अपनी भाषा है और अपनी संस्कृति है। इतिहास और भाषा तक तो बात समझ आती है लेकिन अलग अलग संस्कृति की बात गले नहीं उतरती है। पूरे भारत की संस्कृति एक ही है जहां हम विविधता का उत्सव मनाते हैं। ये बात हमारे पौराणिक ग्रंथों से भी सिद्ध होती है और वासुदेव शरण अग्रवाल, कुबेरनाथ राय और रामधारी सिंह दिनकर के लेखन से भी स्पष्ट होता है। जब हम संस्कृति की बात करते हैं तो हमें उसके मूल तत्वों को समझना होगा। दिनकर ने स्पष्ट किया है कि संस्कृति ऐसी चीज है जिसे लक्ष्णों से तो हम जान सकते हैं किंतु उसकी परिभाषा नहीं दे सकते। कुछ अर्शों में वो सभ्यता से भिन्न गुण है। सभ्यता वो चीज है जो हमारे पास है, संस्कृति वह गुण है जो हममें व्याप्त है। दिनकर के अलावा अगर हम राजनीतिशास्त्र के विद्वानों की तरफ से दिए गए आयडिया आफ इंडिया की बात भी करें तो वहां भी स्पष्ट है कि भारत की संस्कृति तो एक ही है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और कच्छ से लेकर कोलकाता तक भाषा, पहनावे, और खान-पान में विविधता दिखाई देती है लेकिन पूरे देश की संस्कृति में भारत की व्याप्ति नजर आती है। इस वजह से स्वाधीनता के बाद अपने एक लेख में वासुदेव शरण अग्रवाल कहते हैं कि ‘राष्ट्र संवर्धन का सबसे प्रबल कार्य संस्कृति की साधना है। उसके लिए बुद्धिपूर्वक यत्न करना होगा। इस देश की संस्कृति की धारा  अति प्राचीन काल से बहती आई है उसके प्राणवंत तत्व को अपनाकर ही हम आगे बढ़ सकते हैं।‘ जब हम राष्ट्र को ही निगेट करेंगे तो हमको संस्कृतियां भी अलग अलग नजर आएंगी । 

राहुल गांधी के भाषण के इस बिंदुओं पर अगर हम समग्रता में देखें तो लगता है कि वो किस तरह से कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रभाव में आकर अपनी ही पार्टी की विरासत को भूल रहे हैं। बाबा साहेब अंबेडकर के संविधान की मूल भावना और सरदार पटेल की राष्ट्र निर्माण के अथक परिश्रम की भी अनदेखी कर रहे हैं। स्वाधीनता आंदोलन में अपना सर्वस्व होम करनेवाले सेनानियों के योगदान को भूल रहे हैं। तात्कालिक राजनीतिक सफलता के लिए इस तरह की जुमलेबाजी की अपेक्षा 136 साल पुरानी पार्टी के अध्यक्ष रहे व्यक्ति से नहीं की जा सकती है। इस तरह के बयानों से हो सकता है तात्कालिक राजनीतिक लाभ मिल जाए। अपने राजनीतिक विरोधी नरेन्द्र मोदी को घेरने में सफलता मिल जाए।कुछ राज्यों में शासन कर रही क्षेत्रीय दलों का समर्थन कांग्रेस को मिल जाए, कुछ चुनावी फायदा हो जाए लेकिन इसका असर लंबे समय तक रहेगा, इसमें संदेह है। इतनी पुरानी पार्टी के अध्यक्ष पद पर रहे व्यक्ति से ये अपेक्षा की जाती है कि वो देश को समझे, उसके संविधान की मूल भावना को समझे, देशवासियों की भावना को उनकी संवेदनाओं को समझें और उसके अनुसार सार्वजनिक बयान दें।   



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