समकालीन हिंदी साहित्य में होनेवाले विमर्शों में अधिकतर लेखक आलोचना को लेकर उदासीन दिखाई पड़ते हैं। कुछ युवा और कई अधेड़ होते लेखक तो आलोचना के अंत की घोषणा करते नजर आते हैं। फेसबुकजीवी लेखक तो आलोचना की आवश्यकता को ही नकार रहे हैं। उनके मुताबिक साहित्य को न तो आलोचक की आवश्यकता है और न ही आलोचना की। हिंदी आलोचना पर कई तरह के आरोप लगते हैं। कुछ कहते हैं कि आलोचना रचना केंद्रित नहीं रही और वो लेखक केंद्रित हो गई है। आलोचकों के अलग अलग खेमे हैं और वो अपने खेमे के लेखकों की औसत रचनाओं को भी कालजयी साबित करने में जुटे रहते हैं। इसकी वजह से आलोचना की साख छीजती है। इसमें दो राय नहीं कि आलोचक की व्यक्तिगत रुचि और संबंधों के निर्वाह की वजह से आलोचना विधा को नुकसान पहुंचा है। इसके अलावा एक महत्वपूर्ण तथ्य को भी रेखांकित किया जाना चाहिए। इस वक्त जो आलोचक सक्रिय हैं उनकी तैयारी भी उतनी नहीं है कि वो किसी रचना को व्याख्यायित करके पाठकों के सामने उसके अर्थ खोल सकें। आलोचना पर लगनेवाले तमाम आरोप सही हो सकते हैं लेकिन जो लोग आलोचना की आवश्यकता पर प्रश्न उठाते हैं उनको समझना चाहिए कि आलोचना के बिना रचना और रचनाकार की प्रतिष्ठा स्थापित नहीं हो सकती है।
स्वाधीनता के बाद से देखें तो हिंदी साहित्य की अलग अलग विधा में अलग अलग तरह की प्रवृत्तियां दिखाई पड़ती हैं। उदाहरण के लिए कहानी में नई कहानी, अकहानी, आंचलिक कहानी, सचेतन कहानी, समांतर कहानी आदि का दौर दिखाई देता है। कविता में भी नई कविता,अकविता, प्रयोगवादी कविता, प्रगतिवादी कविता की चर्चा होती है। कविता और कहानी की इन प्रवृत्तियों को स्थापित करने में आलोचकों की बड़ी भूमिका रही है। समकालीन हिंदी साहित्यिक परिदृश्य में कोई विशेष प्रवृति नजर नहीं आती है, क्यों? क्योंकि समकालीन दौर के आलोचक इस विधा को गतिशील बनाए रखने में चूक गए। आलोचना के कई दशक पुराने औजारों के आधार पर ही रचना को परखने की ऐतिहासिक भूल हुई। हिंदी आलोचना पर तमाम तरह के आरोप लगते हैं, लेकिन आलोचना की दयनीय स्थिति क्यों हुई इसके पीछे के कारणों को जानने की गंभीर कोशिश नहीं होती। ये कोशिश इसलिए नहीं होती है कि अगर इन कारणों तक पहुंचेगें तो हिंदी आलोचना के पुराने गढ़ और मठ ध्वस्त होने लगेंगे। पाश्चात्य आलोचना के सिद्धांतों की नकल करते हुए पूर्व में जो विद्वतापूर्ण व्याख्याएं की गईं है वो सारी मान्यताएं संदेह के घेरे में आ जाएंगी। संस्कृत काव्यशास्त्र में रचना को समझने की जो प्रविधि है वो बेहद वैज्ञानिक है। इसमें जिस शब्द शक्ति की बात है वो पाश्चात्य आलोचना में कहां दिखाई देती है। हमारे देश का रस सिद्धांत या ध्वनि सिद्धांत कितनी बारीकी से कविता को विन्यस्त करता है इसकी कल्पना भी आई ए रिचर्ड्स को नहीं थी। जिस विदेशी लेखक को रस सिद्धांत या धव्नि सिद्धांत के बारे में जानकारी नहीं थी उससे सीखकर भारतीय आलोचक हिंदी कविता की व्याख्या कर रहे थे। ठीक से याद नहीं आ रहा है लेकिन कहीं पढ़ा था कि संस्कृत के अलंकारशास्त्र और उपमा के बारे में पश्चिमी आलोचकों की अज्ञानता उनको हास्यास्पद बना देती है।
पश्चिम के आलोचकों के अलावा हिंदी आलोचना में मार्क्सवादी सिद्धातों के आधार पर रचना की आलोचना की गई। इस विचारधारा के लेखकों ने मार्क्सवादी सिद्धांतों की जड़ता को अपनी ताकत बनाने की कोशिश की। परिणाम ये हुआ कि मार्क्सवादी आलोचना जड़ होती चली गई और उनका विकास अवरुद्ध होता गया। रामचंद्र शुक्ल के बाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा ने रचना से मुठभेड़ करते हुए आलोचना के अपने प्रतिमान बनाए। कुछ हद तक नामवर सिंह ने भी। नामवर के बाद जो भी ख्यात आलोचक हुए वो रचना से टकराने में हिचकते नजर आते हैं। मार्क्सवादी विचारधारा के प्रभाव में वो रचना को लेकर समाज की ओर जाते तो हैं लेकिन समग्रता से मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं। इसका एक और दुपरिणाम ये हुआ कि रचना को खोलने के जो औजार रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा के यहां दिखाई देते हैं वो बाद के आलोचकों के यहां नहीं दिखते हैं। इन औजारों की अनुपस्थिति के कारण हिंदी आलोचना की धार कुंद होती चली गई और इस विधा में एक वैचारिक सन्नाटा पसरता चला गया। अशोक वाजपेयी कभी कभार आलोचना में तलवारबाजी करते हैं लेकिन वो भी इस विधा को गतिशील नहीं बना पाते हैं। उनकी अपनी सीमाएं हैं जिसको वो पार नहीं कर पाते हैं। बाद के आलोचकों ने भी रचना के पाठ में समय के साथ हो रहे बदलाव को पकड़ने की कोशिश नहीं की और वो आलोचना के नए प्रतिमान गढ नहीं पाए।
पिछले दिनों सुधीश पचौरी की एक पुस्तक आई है ‘नयी साहित्यिक सांस्कृतिक सिद्धान्तकियां’। इस पुस्तक में सुधीश पचौरी ने आलोचना के नए प्रतिमान स्थापित करने की कोशिश की है। उन्होंने रचना से टकराने और फिर उसके आधार पर उसको व्याख्यित करने का आग्रह किया है। सुधीश पचौरी स्पष्ट रूप से कहते हैं कि रचना सिर्फ रचना नहीं होती वह एक जटिल और पेचीदा नेटवर्क का हिस्सा होती है। इसको वो अलग तरीके से सामने रखते हैं। इस संदर्भ में वो जायसी की पद्मावत और तुलसीदास के रामचरित मानस का उदाहरण देकर नया प्रतिमान गढ़ने का प्रयास करते हैं। वो बताते हैं कि रामचंद्र शुक्ल ने करीब नब्बे वर्ष पहले जायसी के पद्मावत की भूमिका लिखी थी और उसे प्रेमगाथाओं की काव्य परंपरा में ऊंचा स्थान दिया था। इसमें उन्होंने लौकिक प्रेम की अलौकिकता के बारे में बताया था। शुक्ल जी का ये पाठ ही पद्मावत का अंतिम पाठ बन गया। उनकी स्थापना है कि जैसे ही संजय लीला भंसाली ने 2017 में फिल्म पद्मावत बनानी आरंभ की तो इसका नया पाठ सामने आने लगा। जैसे जैसे फिल्म को लेकर विवाद बढ़ा तो पद्मावत के तीन पाठ सामने आए। सुधीश पचौरी मानते हैं कि पद्मावत का पहला पाठ फिल्मी पाठ था जिसे निर्माता निर्देशक बना रहा था जो दो सौ करोड़ रुपए की आर्थिकी से जुड़ा था। दूसरा पाठ कर्णी सेना का क्षत्रियवादी (जातिवादी) पाठ था जिसमें इस्लाम विरोधी पाठ भी सक्रिय था। तीसरा पाठ राजनीतिक रहा जिसको संसद की बहसों और चुनाव के दौरान देखा गया। उनके मुताबिक इसके बाद पद्मावत का अकादमिक पाठ भी बदला। इसी तरह से जब तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना की थी तो उस समय का उसका पाठ अलग था और अब बिल्कुल अलग है। अब उसको पावर टेक्सट कहा जा सकता है।
अपनी इस पुस्तक में सुधीश पचौरी ने हिंदी आलोचना की सीमाओं पर ठीक से विचार किया है। वो मानते हैं कि आरंभ में हिंदी आलोचना खुद को संस्कृत से जोड़कर देखती थी। धीरे-धीरे वो इससे दूर होती चली गई। बाद में अंग्रेजी साहित्य शास्त्र ने उसकी जगह ले ली। वो बेहद तल्ख अंदाज में कहते हैं कि संस्कृत का काव्यशास्त्र जो हिंदी को उत्तराधिकार में मिला था उसकी कुंजियां बना ली गईं लेकिन उसमें गहरे नहीं उतरा गया। इसलिए उसका नया संस्कार नहीं हो सका। सुधीश पचौरी ने अपनी इस पुस्तक में भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा से रस, छंद, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि आदि पर विस्तार से प्रकाश डाला है। उन्होंने ध्वनि सिद्धांत के पुनर्पाठ की बात भी की है और इसकी पश्चिम के सिद्धांत और सिद्धांतकारों की स्थापनाओं से तुलना करके इसकी श्रेष्ठता साबित की है। हिंदी आलोचना को अगर कठघरे में खड़ा करना है तो इस तरह से करना होगा जैसे सुधीश पचौरी ने किया है। अगर हमें हिंदी आलोचना की दुर्दशा की बात करनी है तो उसकी भूल गलतियों को लेकर गंभीरता से विमर्श करना होगा।न इसका महत्वपूर्ण लाभ ये होगा कि जो ऐतिहासिक भूलें हुई हैं उसका परिमार्जन हो सकेगा।
4 comments:
सर आचार्य शुक्ल भी तो आलोचना में तेन से प्रभावित थे । और तेन की समाजशास्त्रीय व्याख्या ( जाति , वातावरण और क्षण के सिद्धांत का समुच्चय ) को लेकर आए थे । तेन की साहित्य की समाजशास्त्रीय व्याख्या और आचार्य शुक्ल की लोकमंगल की साधनावस्था में समानता इसी कारण दिखती है ।
दूसरी बात ये सर कि क्या प्राचीन भारतीय रस सिद्धांत के आधार पर आज की रसविहीन कविता जिसमें छंद तुक आदि किसी को स्वीकारा नहीं गया उसका मूलवयांकन कैसे होगा ?
मैं आपकी इस बात से पूर्णत: सहमत हूँ कि आलोचना को अप्रासंगिक बताना सही नहीं है । साहित्य के समृद्धि के लिए और मानकीकरण के लिए और नयी मीडिया की चुनौतियों से निपटने के लिए बहुत जरूरी है कि आलोचना पर नये तरह से काम हो नये मानदंड बनें । उसके लिए संभवत: भारतीय पाश्चित्य दोनों आलोचना के सिद्धांत अपर्याप्त होंगे ।
सर आचार्य शुक्ल भी तो आलोचना में तेन से प्रभावित थे । और तेन की समाजशास्त्रीय व्याख्या ( जाति , वातावरण और क्षण के सिद्धांत का समुच्चय ) को लेकर आए थे । तेन की साहित्य की समाजशास्त्रीय व्याख्या और आचार्य शुक्ल की लोकमंगल की साधनावस्था में समानता इसी कारण दिखती है ।
दूसरी बात ये सर कि क्या प्राचीन भारतीय रस सिद्धांत के आधार पर आज की रसविहीन कविता जिसमें छंद तुक आदि किसी को स्वीकारा नहीं गया उसका मूलवयांकन कैसे होगा ?
मैं आपकी इस बात से पूर्णत: सहमत हूँ कि आलोचना को अप्रासंगिक बताना सही नहीं है । साहित्य के समृद्धि के लिए और मानकीकरण के लिए और नयी मीडिया की चुनौतियों से निपटने के लिए बहुत जरूरी है कि आलोचना पर नये तरह से काम हो नये मानदंड बनें । उसके लिए संभवत: भारतीय पाश्चित्य दोनों आलोचना के सिद्धांत अपर्याप्त होंगे ।
बढ़िया प्रस्तुति
हिंदी के साहित्यिक एवं आलोचनात्मक परिदृश्य को खंगालता विचारोत्तेजक, सार्थक आलेख। साधुवाद 💐
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