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Saturday, July 23, 2022

रचनात्मकता से समृद्ध होंगी भाषाएं


दो दिन पहले राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा हुई। फीचर फिल्मों और लोकप्रिय सितारों को पुरस्कार मिले। उनकी खूब चर्चा हुई लेकिन कुछ फिल्मों का उल्लेख नहीं हो पाया। ये उन भाषाओं में बनी फिल्में हैं जो हमारे देश के अलग अलग हिस्सों में बोली जाती हैं। कई बार छोटे भूभाग पर बोली जानेवाली भाषा में बेहतरीन फिल्म देखने को मिल जाती हैं कई बार ऐसा होता कि भौगोलिक रूप से बड़े क्षेत्र में बोली जानेवाली भाषा में अच्छी फिल्में बनती हैं। दो दिन पहले घोषित राष्ट्रीय पुरस्कार में बेस्ट नान फीचर फिल्म के लिए डांगी भाषा की फिल्म टेस्टीमनी आफ एना चुनी गई। इस भाषा के बारे में कम ही जानकारी है। गुजरात का एक जिला है डांग जो महाराष्ट्र की सीमा से लगता है। उस जिले में आदिवासी आबादी है और वहां डांगी बोली जाती है। इस छोटे से आदिवासी बहुल जिले में बोली जानेवाली भाषा में बनी नान फीचर फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार में स्वर्ण कमल प्रदान किया जाएगा। इसी तरह 2020 के लिए ही बेस्ट शार्ट फिल्म कर्बी भाषा में बनी एक फिल्म को दिए जाने की घोषणा की गई है। हरियाणवी में दादा लख्मी पर बनी फिल्म , दिमासा में अमी बरुआ की फिल्म और टुलू में संतोष माडा की फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार दिया जाएगा। इसके अलावा राजस्थानी की एक फिल्म को भी सम्मानित करने की घोषणा की गई है।

उपरोक्त सभी भाषाओं पर विचार करें तो इनमें से कोई भी भाषा संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं है। राजस्थानी को छोड़कर सभी भाषाएं अपेक्षाकृत छोटे भूभाग की भाषा है लेकिन इन भाषाओं में लगातार फिल्में बन रही हैं। लगातार इस वजह से कि पिछले तीन वर्षों के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की सूची देखने पर इस तरह की कई भाषाओं की फिल्में दिखती हैं जिनको स्वर्ण कमल या रजत कमल से सम्मानित किया गया है। 2017 में तो निर्देशक की पहली सर्वोत्तम फिल्म का अवार्ड लक्षद्वीप में बोली जानेवाली भाषा जेसरी में बनी फिल्म सिंजर को दिया गया था। इस फिल्म का चयन करनेवाली जूरी के अध्यक्ष मशहूर फिल्मकार शेखर कपूर थे। करीब 115 मिनट की ये फिल्म लक्षद्वीप में रहनेवाले एक मछुआरे पर वैश्विक आतंकवाद के प्रभाव की कहानी है। फिल्म में ये दिखाया गया है कि जब उसकी बहन और मंगेतर को आईएसआईएस के आतंकवादियों के चंगुल से छुड़ाया जाता है तो पता चलता है कि उनके साथ बलात्कार हुआ है। स्थिति तब और जटिल हो जाती है जब पता चलता है कि युवतियां गर्भवती हैं। जब उनसे संवाद होता है तो ये बात सामने आती हैं कि वो अपना गर्भ गिराने को तैयार नहीं हैं। इस पूरी कहानी और नायक के मन के द्वंद्व को निर्देशक पैंपली ने बेहतरीन तरीके से दर्शकों के सामने रखा है। फिल्म के साथ साथ निर्देशक को भी सम्मानित किया गया था। इसी वर्ष लद्दाखी और टुलू भाषा में बनी फिल्मों को भी पुरस्कृत किया गया था। अगले वर्ष के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में भी राजस्थानी, गारो, सेरदुकपेन जैसी भाषाओं में बनी फिल्मों को सम्मानित किया गया। अगले वर्ष यानि 2019 में पर्यावरण पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मोनपा में बनी फिल्म को दिया गया। इसके साथ ही खासी, मीशिंग, पानिया, टुलू और छत्तीसगढ़ी में बनी फिल्मों को भी पुरस्कार मिले।

उपरोक्त सारी भाषा संविधान की आठवीं अनुसूची में नहीं है। कहने का अर्थ ये है कि संविधान की आठवीं अनुसूची में नहीं होते हुए भी इन भाषाओं में बेहतर कार्य हो रहा है। वो अपनी जमीन से जुड़ी कहानियों और अपने समाज में फैली कुरीतियों पर अपनी कला के माध्यम से प्रहार कर रहे हैं। अच्छी बात ये है कि कला जगत इनके कार्यों को रेखांकित भी कर रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि इन भाषाओं में अधिक से अधिक काम हो ताकि उन इलाकों में फैली कहानियों को देश के सामने लाया जा सके। अब जैसे इस वर्ष अभिनेता यशपाल शर्मा की फिल्म दादा लख्मी को सर्वश्रेष्ठ हरियाणवी फिल्म का पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। दादा लख्मी हरियाणवी के प्रसिद्ध कवि और कलाकार थे। उनको हरियाणा में सूर्य कवि कहा जाता है। लोक कला के क्षेत्र में दादा लख्मी की बहुत प्रतिष्ठा है। अभिनेता यशपाल शर्मा ने श्रमपूर्वक दादा लख्मी के जीवन को पर्द पर उतारा है। इसके लिए उनको इस बात की आवश्कता नहीं हुई कि हरियाणवी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषा हो। किसी भी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग अपनी जगह सही हो सकती है लेकिन उस भाषा के लोगों का ये भी दायित्व होता है कि वो अपनी भाषा में बेहतर काम करें और उसको समृद्ध बनाएं।

इस देश में भाषा के नाम पर स्वाधीनता के बाद से राजनीति हो रही है। कभी राष्ट्रभाषा के नाम पर तो कभी राज्यों के बंटवारे के नाम पर तो कभी शिक्षा नीति में भाषा को मिलनेवाली प्राथमिकता के नाम पर। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के आने के बाद भी भाषा को लेकर एक विभाजन करने की कोशिश की गई थी लेकिन राष्ट्रीय शिक्षा नीति में मातृभाषा का उल्लेख होने की वजह से वो विभान संभव नहीं हो पाया। कला जगत में भाषा के नाम पर राजनीति अपेक्षाकृत कम है लेकिन जो कलाकार भाषा के आधार पर कला से महत्व चाहते हैं उनको अपनी भाषा में रचनात्मक कार्य करना चाहिए। रचनात्मक कार्यों से उस भाषा के प्रति लोगों के मन में एक आकर्षण पैदा होगा और वो अधिक लोगों तक पहुंच सकेगी। अगर हम लक्षद्वीप में बोली जानेवाली भाषा जेसरी में बनी फिल्म संजर का ही उदाहरण लें तो निर्देशक ने अपनी कला के माध्यम से अपनी भाषा को वैश्विक मंच तक पहुंचाया। जिस प्रकार से उन्होंने अपनी फिल्म ने वैश्विक आतंकवाद और उसके प्रभाव का मुद्दा उठाया और उसको वैश्विक मंचों पर सराहना मिली। उसने फिल्म से साथ साथ जेसरी भाषा के बारे में जानने की उत्सकुकता भी पैदा की। इस तरह के प्रयासों से न केवल भाषा का फैलाव होता है बल्कि भाषा को मजबूती भी मिलती है।

देश के अलग अलग हिस्सों में बोली जानेवाली भाषा में फिल्में बनने का एक और लाभ है।    हमारे यहां कथावाचन की एक सुदीर्घ और लंबी परंपरा रही है। उस परंपरा को समृद्ध करने के लिए अपने देश की हर भाषा में जो कदम कदम पर कहानियां बिखरी पड़ी हैं, जो लोककथाएं सुनाई जाती हैं उनको फिल्मों के माध्यम से दुनिया के सामने लाया जा सकते है। 2017 में ही एक फिल्म पुरस्कृत हुई थी जिसका नाम है विलेज राकस्टार और इसकी निर्देशक हैं रीमा दास। असमिया में बनी इस फिल्म में एक उत्तर पूर्व के एक 10 वर्षीय बच्ची धुनू की कहानी है। वो अपना राक बैंड बनाना चाहती है। इस फिल्म में उसके सपने और संघर्ष के बीच चलती कथा है जिसमें उसकी विधवा मां है और लड़कों का एक समूह है। इसको जिस तरह से निर्देशक ने कहानी में पिरोया है वो अद्भुत है। पिछले दिनों कान में आयोजित फिल्म फेस्चिवल में भारत को दुनिया का कंटेंट हब बनाने की बात हुई थी। तमाम तरह की सहूलियतों के साथ साथ हमारे देश की सैकड़ों भाषा में फैली कहानियां भी इस योजना में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। अगर हम गंभीरता से अपनी भाषा को समृद्ध और मजबूत करना चाहते हैं तो उसमें रचनात्मक कार्य करें। दुनियाभर का उदाहरण हमारे सामने है कि कोई भी भाषा आंदोलन से न तो दीर्घजीवी हुई है और न ही समृद्ध। उसमें होनेवाले रचनात्मक कार्य ही उस भाषा को और उसको बरतनेवालों को दीर्घायु बनाते हैं।  

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