भारतीय स्वाधीनता संग्राम में कश्मीर से कन्याकुमारी तक के लोगों ने एकजुट होकर भाग लिया और योगदान दिया। यह इतिहासकारों की समस्या रही कि उन्होंने स्वाधीनता का इतिहास लिखते समय स्वतंत्रता संग्राम के कई ऐसे नायकों को या तो भुला दिया या उनके महत्व का आकलन सही तरीके नहीं किया गया। दक्षिण भारत के स्वाधीनता सेनानियों की तो ब्रिटिश इतिहासकारों ने उपेक्षा ही की। सुनील खिलनानी ने अपनी पुस्तक इनकारनेशंस में इतिहासकार डेविड वाशब्रुक को उद्धृत किया है। उनके मुताबिक ‘1895 से 1916 के बीच मद्रास (अब चेन्नई) की सड़कों पर कोई ब्रिटिश विरोधी कुत्ता शायद ही भौंका होगा। तूतीकोरन अपवाद था।‘ जब डेविड वाशब्रुक तूतीकोरन को अपवाद मान रहे थे तो उसकी वजह थे, वी ओ चिंदबरम पिल्लै। चिंदबरम पिल्लै ने न केवल ब्रिटिश कंपनियों को चुनौती दी बल्कि उन्होंने स्वदेशी के नारे को साकार भी किया। उन्होंने समंदर में ब्रिटिश कंपनियों के एकाधिकार को चुनौती दी थी। इसकी भी बेहद दिलचस्प कहानी है। चिदंबरम पिल्लै का जन्म 1872 में हुआ था। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वो वकालत करने के लिए तूतीकोरन पहुंचे थे। यहां वो शैव सभा के संपर्क में आए और उनका रुझान साहित्य और संस्कृति की ओर हुआ। शैव सभा में सक्रिय चिदंबरम पिल्लै का लेखकों से संपर्क बढ़ा और एक दिन उनके किसी साथी ने उनको बाल गंगाधर तिलक के लेख आदि पढने को दिए। चिंबरम पिल्लै पर तिलक के लेखन का जबरदस्त प्रभाव पड़ा और उनका युवा मन देश को गुलामी की बेड़ियों के आजाद करवाने के लिए तड़पने लगा।
इस बीच अंग्रेजों ने बंगाल के विभाजन का निर्णय लिया जिसकी देशभर में कठोर प्रतिक्रिया हुई। देशभर में अंग्रजी वस्तुओं का बहिष्कार आरंभ हुआ। युवा पिल्लै ने भी विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के साथ साथ अंग्रेजों के स्कूलों और अन्य संस्थाओं के बहिष्कार की भी अपील की। अब वो सक्रिय राजनीति में आ चुके थे। पिल्लै ने विदेशी वस्तुओं और संस्थाओं के बहिष्कार के लिए अपने इलाके के लोगों को शपथ दिलानी शुरू की। पिल्लै ने लोगों को पानी में खड़े होकर मां काली की शपथ दिलाई थी कि वो विदेशी सामान और संस्थाओं का बहिष्कार करेंगे। इसका जबरदस्त असर तूतीकोरन और आसपास के इलाके में हुआ। इस दौरान ही चिदंबरम पिल्लै ब्रिटिश पुलिस की नजरों में आ गए थे। इतने से पिल्लै का मन नहीं भरा था और वो कुछ बड़ा करके ब्रिटिश राज को चुनौती देना चाहते थे। वो जिस इलाके में रहते थे वो व्यापार का बड़ा केंद्र था। वहां के समुद्री तट पर ब्रिटिश इंडिया स्टीम नेविगेशन कंपनी के जहाजों का कब्जा था। इनके माध्यम से ब्रिटिश कंपनियां भारतीय उत्पाद एक जगह से दूसरे जगह ले जाकर बेचती और मुनाफा कमाती थी। पिल्लै के मन में ये विचार पनप रहा था कि एक देसी जहाज कंपनी होनी चाहिए ताकि यहां के व्यापारियों को लाभ मिल सके। उन्होंने 1906 के अप्रैल में एक योजना बनाई और उसपर अमल आरंभ कर दिया। दिसंबर 1906 में पिल्लै ने अपनी कंपनी स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी बनाई और इस कंपनी का एक जहाज समंदर में उतार दिया। इनकी कंपनी का रेट कम होने की वजह से इनको अधिक यात्री और कारोबारी मिलने लगे। इससे बौखलाई ब्रिटिश कंपनी ने पुलिस और प्रशासन का सहारा लिया। स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी को कानूनी अड़चनें लगाकर बाधित करने का प्रयास किया जाने लगा लेकिन चिदंबरम ने हार नहीं मानी। उन्होंने पैसे जुटाकर दो और जहाज खरीद लिए। ये दोनों जहाज पहलेवाले से बड़े थे। इन दोनों जहाजों पर पिल्लै ने हरा, पीला और लाल झंडा पेंट करवाकर बड़े बड़े अक्षरों में वंदे मातरम लिखवा दिया था। उनका ये प्रयोग बहुत सफल रहा था और लोग उनको स्वदेशी पिल्लै कहने लगे थे।
ये सब चल ही रहा था कि पिल्लै ने एक और युवा साथी शिवम के साथ मिलकर तूतीकोरन में मिल मजदूरों का आंदोलन आरंभ कर दिया। अधिक सुविधा और वेतन की मांग करते हुए कोरल मिल में हड़ताल हो गई। ये हड़ताल इतनी सफल रही कि अंग्रेजों ने मजदूरों से समझौता करना पड़ा। इसके बाद पूरे इलाके में चिदंबरम पिल्लै की लोकप्रियता और बढ़ गई और इससे बढा उनका हौसला भी। लेकिन अंग्रेजों ने चिदंबरम को फंसाने की योजना बना ली थी और उनको देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। इनकी गिरफ्तारी के विरोध में तूतीकोरन में भयंकर हिंसा और आगजनी हुई थी। अंग्रेज सरकार ने आनन-फानन में पिल्ले को डबल उम्रकैद की सजा सुनाकर जेल भेज दिया। जेल में उको आम कैदी की तरह रखा गया और हाड़तोड़ मेहनत करवाई जाती थी। चिंदबरम पिल्लै ने हाईकोर्ट में अपील की और फिर उनका केस प्रीवी काउंसिल तक गया। उनकी सजा कम हुई और चार साल के बाद उनको रिहा कर दिया गया। इन चार सालों में स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी लगभग बंद हो चुकी थी और जहाज बिक गए थे। उनका वकालत का लाइसेंस रद कर दिया गया था। बाद में गांधी से मतभेद के चलते पिल्लै ने 1920 में कांग्रेस पार्टी छोड़ दी। फिर बैंक मैनेजर की नौकरी की। इससे ऊबकर उन्होंने वकालत का लाइसेंस वापस करने की अपील की जिसको न्यायालय ने मान लिया। वो फिर से वकालत भी करने लगे और कांग्रेस पार्टी भी ज्वाइन कर ली। धीरे धीरे वो गुमनामी में चले गए और 1936 में तूतीकोरन के कांग्रेस के कार्यलय में अंतिम सांसे लीं। स्वदेशी का झंडा बुलेंद करनेवाले इस स्वाधीनता सेनानी ने शिपिंग में जिस तरह के स्वावलंबन की राह दिखाई थी उसपर आगे चलकर भारतीय कंपनियों ने काम किया।
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