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Saturday, September 24, 2022

आंकड़ों और दावों के तिलिस्म में ‘ब्रह्मास्त्र’


पिछले पखवाड़े एक फिल्म आई जिसका नाम है ब्रह्मास्त्र पार्ट वन शिवा। फिल्म त्रयी की ये पहली फिल्म है। इसके निर्माता करण जौहर और अन्य हैं। इसका निर्देशन अयान मुखर्जी ने किया है। रणबीर कपूर और आलिया भट्ट मुख्य भूमिका में हैं। ब्रह्मास्त्र को हिंदी की सबसे महंगी फिल्मों में से एक कहकर प्रचारित किया गया था। फिल्म के निर्माताओं की ओर से बताया गया था कि इस फिल्म को बनाने में 410 करोड़ रुपए खर्च हुए। फिल्म के प्रदर्शित होने के पहले से ये चर्चा आरंभ हो गई थी कि ये फिल्म चलेगी या नहीं। इसके पहले प्रदर्शित आमिर खान की फिल्म लाल सिंह चड्ढा और अक्षय कुमार अभिनीत रक्षाबंधन को दर्शकों का प्यार नहीं मिल पाया था। ये दोनों फिल्में अपनी लागत भी नहीं निकाल पाईं। फिल्म ब्रह्मास्त्र की सफलता को लेकर भी फिल्मों से जुड़े लोग आशंकित थे। इस फिल्म के बायकाट का ट्रेंड भी इंटरनेट मीडिया पर चल रहा था। फिल्म सिनेमाघरों में प्रदर्शित हो गई। इसके निर्माताओं और निर्देशक की तरफ से ये दावा किया गया कि पहले ही दिन इस फिल्म ने पूरी दुनिया में 75 करोड़ रुपए का कारोबार किया। इसको हिंदी फिल्मों की सबसे बड़ी ओपनिंग में से एक बताया गया। इंटरनेट मीडिया पर इस फिल्म के बायकाट की बातें निर्माताओं के दावे में दबने सी लगी। लेकिन कुछ लोग इस फिल्म के पहले दिन के कुल कारोबार की रकम को लेकर प्रश्न भी उठा रहे थे। आमतौर पर किसी भी हिंदी फिल्म की ओपनिंग देशभर के सिनेमाघरों में प्रदर्शन का कुल कारोबार माना जाता रहा है। करण जौहर और उनकी टीम ने पहले दिन कुल वैश्विक कारोबार का ब्यौरा देकर माहौल बनाने का प्रयास किया। निर्देशक अयान मुखर्जी भी कुल वैश्विक कारोबार को ही प्रचारित कर रहे हैं। बावजूद इसके फिल्म 15 दिनों में अपनी लागत 410 करोड़ रुपए का कारोबार नहीं कर पाई है। 

एक और बात जिसपर ध्यान दिया जाना चाहिए। फिल्म ब्रह्मास्त्र के बारे में बताया गया कि वो देशभर में 8000 पर्दे पर प्रदर्शित की गई। फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों का अनुमान है कि एक स्क्रीन पर किसी फिल्म को प्रदर्शित करने का औसत खर्च करीब 30 हजार रुपए आता है। अगर ब्रह्मास्त्र को 8000 स्क्रीन पर प्रदर्शित किया गया तो फिल्म के प्रदर्शन का कुल खर्च 24 करोड़ रुपए होता है। इसके अलावा फिल्म के प्रचार प्रसार पर हुए खर्च को दस करोड़ रुपए भी माना जाए तो ब्रह्मास्त्र पर निर्माण से लेकर रिलीज तक कुल खर्च 444 करोड़ रुपए होता है। दस दिनों के कुल वैश्विक कारोबार को देखा जाए तो 10 दिनों में ब्रह्मास्त्र ने 360 करोड़ का कारोबार किया है। फिल्म उद्योग से जुड़े ट्रेड विश्लेषकों की मानें तो इस फिल्म का चौदह दिनों में देश में सकल कारोबार करीब 266 करोड़ रुपए का है। विदेश में इस फिल्म का सकल कारोबार करीब 93 करोड़ रुपए का है। इस लिहाज से इस फिल्म का सकल वैश्विक कारोबार लागत तक नहीं पहुंच पाई है। लाभ की बात तो दूर । चूंकि करण जौहर को फिल्म उद्योग जगत के अग्रणी निर्माताओं में से एक माना जाता है इसलिए उनकी कारोबार दिखाने के इस तरीके का प्रभाव इंडस्ट्री पर पड़ेगा। इसको विपणन का एक तरीका माना जा सकता है। इस तरीके का प्रभाव सकारात्मक होगा या नकारात्मक इसका आकलन आनेवाले समय में ही हो पाएगा। 

ब्रह्मास्त्र के प्रचार के इस तरीके को देख कुछ वर्षों पूर्व नई दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले की एक घटना की याद आ गई। एक पुस्तक प्रकाशित होकर आनेवाली थी। मेले में इस बात का खूब प्रचार किया जा रहा था कि अमुक पुस्तक अमुक दिन अमुक समय पर प्रकाशित होकर बिक्री के लिए मेले में उपलब्ध होनेवाली है। अमुक दिन भी आ गया। तय समय पर जब पाठक पुस्तक खरीदने पहुंचे तो बताया गया कि पुस्तक का पहला संस्करण बिक गया है। मेले में इस बात की खूब चर्चा रही। प्रकाशक ने भी ये प्रचारित किया कि पुस्तक का पहला संस्करण चंद घंटों में बिक गया। अगले दिन ढेर सारे पुस्तक प्रेमी उस पुस्तक को खरीदने के लिए प्रकाशक के स्टाल पर पहुंचे। वहां वो पुस्तक उपलब्ध थी लेकिन उसके कवर पर छपा था, दूसरा संस्करण। पुस्तक की जमकर बिकी हुई। खरीदनेवाले ये बात करते हुए जा रहे थे कि कुछ तो बात होगी इस पुस्तक में कि कुछ ही समय में पहला संस्करण खत्म हो गया। बाद में पता चला कि ये मार्केटिंग का तरीका था। पुस्तक के पहले संस्करण का प्रकाशन ही दूसरे संस्करण की मुहर के साथ हुआ था। ये बात दूसरे प्रकाशक को पता चली तो वो और आगे चला गया। उसने एक युवा लेखक की पुस्तक प्रकाशित की तो पुस्तक के अंदर लिखवा दिया प्रथम संस्करण जनवरी और द्वितीय संस्करण जनवरी। मतलब एक महीने में दो संस्करण। ये भी प्रचार का एक तरीका था। दूसरे प्रकाशक की पुस्तक अपेक्षित संख्या में नहीं बिकी क्योंकि तबतक पाठकों के बीच ये बात फैल गई थी कि संस्करणों का खेल पुस्तक की बिक्री बढ़ाने और किताब के पक्ष में माहौल बनाने का एक तरीका है। इस तरह से प्रकाशन जगत की साख संदिग्ध हो गई। ब्रह्मास्त्र को लेकर जिस तरह से वैश्विक कारोबार को प्रचारित कर एक माहौल बनाने की कोशिश की गई उससे ये आशंका है कि इससे हिंदी फिल्म जगत की साख कम हो सकती है। माहौल बनाने से नुकसान कम हो सकता है लेकिन फिल्म जब चलती है तो उसका पता चल जाता है। जैसे द कश्मीर फाइल्स की लागत 25-30 करोड़ बताई जाती है लेकिन इसने करीब 300 करोड़ का कारोबार किया। इसको हिट कहा जाता है।     

दरअसल फिल्मों के कारोबार को समझने के लिए हमें सिनेमाघरों से बाहर निकलना होगा। पहले तो किसी फिल्म के हिट या फ्लाप होने का पैमाना सिनेमाघरों से होनेवाले कारोबार या वहां से अर्जित होनेवाले लाभ पर आधारित होता था। बदलते समय और मनोरंजन के अन्य माध्यमों के आने के बाद परिदृश्य बदल गया है। अब माना जाता है कि सिनेमाघरों से 50 प्रतिशत और ओवर द टाप प्लेटफार्म(ओटीटी) और अन्य माध्यमों पर उसको दिखाने के समझौते से पचास फीसदी कारोबार होता है। अब फिल्मकार अपनी फिल्मों को सिनेमाघर में रिलीज होने के पहले ही ओटीटी पर बेच देता है। उससे पैसे मिलते हैं। टेलिवजन पर दिखाने का अधिकार, अन्य भारतीय भाषाओं में रिमेक का अधिकार, म्यूजिक का अधिकार आदि से भी निर्माता अपनी लागत निकाल लेना चाहते हैं। कुछ फिल्मकार तो अपनी फिल्में सीधे ओटीटी प्लेटफार्म पर ही रिलीज करने लगे हैं। अक्षय कुमार की कटपुतली और मधुर भंडारकर की बबली बाउंसर तो ओटीटी पर ही रिलीज हुई। ब्रह्मास्त्र के बारे में भी फिल्म उद्योग जगत में चर्चा है कि इसको ओटीटी पर 150 करोड़ में बेचा गया है। अगर इस राशि को सही मानकर उसके सकल कारोबार में जोड़ भी दिया जाए तो ब्रह्मास्त्र अपनी लागत से कुछ अधिक राशि का कारोबार करेगा। 

जानकारों का ये भी मानना है कि अगर किसी फिल्म पर 450 करोड़ खर्च किया जाता है और पांच सवा पांच सौ करोड़ का कारोबार होता है तो उसको हिट नहीं माना जा सकता है। अगर फिल्म के बनने में अधिक समय लग गया तो उसमें निवेश की गई राशि पर लगनेवाले ब्याज को भी जोड़ा जाता है। ब्रह्मास्त्र को रिलीज करनेवाली सिनेमाघरों की शृंखला चलानेवाली एक कंपनी के शेयर में गिरावट देखी गई। बाजार हमेशा सेंटिमेंट्स पर चलता है और अगर उसको ब्रह्मास्त्र के रिलीज में उपरोक्त कंपनी को लाभ मिलता दिखता तो शेयर चढता। फिल्मों के हिट या फ्लाप की तिलस्मी दुनिया की चर्चा होती रहेगी लेकिन इतना तय है कि फिल्म की विषयवस्तु और उसका ट्रीटमेंट ही उसको हिट बनाती है, विपणन का कोई औजार नहीं।  

Saturday, September 17, 2022

शब्दकोश संस्कृति पर संगठित प्रयास


उपराष्ट्रपति के पद से वेंकैयानायडू का विदाई समारोह चल रहा था। सभी गणमान्य अतिथियों की उपस्थिति में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वेंकैया जी के राजनीतिक गुणों की चर्चा कर रहे थे। राजनीतिक गुणों के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनके भाषा प्रेम की प्रशंसा की। वहां प्रधानमंत्री ने एक सूचना साझा की कि भारत सरकार ने भाषिणी के नाम से एक वेबसाइट बनाई है। प्रधानमंत्री मोदी ने बतया कि इस वेबसाइट पर भारतीय भाषाओं की समृद्धि को प्रदर्शित किया गया है। यहां एक भारतीय भाषा से दूसरी भारतीय भाषा में अनुवाद करने की व्यवस्था है। प्रधानमंत्री इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने मंच पर बैठे लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला और राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश से एक अनुरोध किया। उन्होंने कहा कि संसद के दोनों सदनों में जब कोई सदस्य मातृभाषा में भाषण करें या सदस्य किसी चर्चा में हस्तक्षेप करते हैं तो कई सदस्य के भाषण से या किसी चर्चा पर उनके हस्तक्षेप से बहुत बढिया शब्द निकलते हैं। भारतीय भाषाओं के वो शब्द दूसरी भाषा के सदस्यों के लिए बहुत रुचिकर भी होता है और सार्थक भी लगता है। प्रधानमंत्री ने मंच से ही ओम बिरला और हरिवंश से अनुरोध किया कि हमारे दोनों सदनों में ऐसे सार्थक, रुचिकर और भाषा वैविध्य को लेकर आनेवाले भारतीय भाषा के शब्दों का संग्रह करने की व्यवस्था की जाए। उसके बाद प्रतिवर्ष ऐसे शब्दों का एक संग्रह प्रकाशित करने की परंपरा का आरंभ किया जाए। प्रधानमंत्री मोदी ने वेंकैया जी के मातृभाषा प्रेम के हवाले से एक बेहद गंभीर बात तो की ही, भारतीय भाषाओं के शब्दकोश बनाने की पहल करने का सुझाव भी दे दिया। 

पिछले दिनों हिंदी दिवस के अवसर पर सूरत में आयोजित हिंदी दिवस समारोह में गृह मंत्री अमित शाह ने शब्द सिंधु के नाम से एक खोजपरक डिजीटल शब्दकोश के पहले संस्करण का शुभारंभ किया। ये शब्दकोश हिंदी से हिंदी का है। इसमें शब्दों के अर्थ और आवश्यकतानुसार वाक्य प्रयोग भी दिए गए हैं। इसमें अभी इक्यावन हजार शब्द डाले गए हैं। भविष्य में इस शब्दकोश में शब्दों की संख्या बढ़ाई जाएगी। इसमें विज्ञान. तकनीक, न्यायिक प्रक्रिया और प्रोद्योगिकी से जुड़े शब्दों को शामिल किया गया है। ये शब्दकोश गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग, शिक्षा मंत्रालय के केंद्रीय हिंदी निदेशालय और विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध होने की बात कही गई । इस शब्दकोश में भारतीय भाषाओं के शब्दों को भी शामिल करने का लक्ष्य रखा गया है। शब्दकोश में भारतीय भाषाओं के शब्दों को शामिल करने में एक असुविधा हो रही है। हिंदी के कई शब्द ऐसे हैं जिनका भारतीय भाषाओं और बोलियों में अलग अर्थ होता है। उदाहरण के तौर पर अगर शिक्षा शब्द को लिया जाए तो हिंदी में इसका अर्थ होता सिखाना। कुछ भारतीय भाषा और बोलियों में सिखाने का प्रयोग दंड के तौर पर भी होता है। इस शब्दकोश को बनाने वालों के सामने ये बड़ी चुनौती है कि किस प्रकार से भारतीय भाषाओं और हिंदी के शब्दों में साम्य स्थापित किया जाए ताकि अर्थ का अनर्थ न हो। बताया गया कि भाषा विशेषज्ञ इस पर कार्य कर रहे हैं। इस शब्दकोश का एक लाभ ये है कि सरकारी कार्यालयों में जिस प्रकार की हिंदी का प्रयोग होता है उसको सरल बनाया जा सकेगा। दूसरी भाषाओं से हिंदी में अनुवाद करने में भी ये शब्दकोश सहायक सिद्ध होगा। इस शब्दकोश को अद्यतन करने के लिए विशेषज्ञों और तकनीकविदों की एक समिति निरंतर कार्य कर रही है। इसका संकेत इस बात से भी मिलता है कि अभी इसका पहला संस्करण जारी किया है और भविष्य में इसके अनेक संस्करण प्रकाशित होते रहेंगे। 

सूरत के सम्मेलन में ही राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश ने भी भारतीय भाषाओं के शब्दों को लेकर अपनी प्राथमिकता बताई। उनके मुताबिक भारतीय भाषाओं के सात सौ से अधिक शब्दों का चयन किया गया है जो रुचिकर और सार्थक शब्द हैं। इन शब्दों का उपयोग सभी भाषाओं में हो सकता है। इन प्रयासों से ये लगता है कि भारतीय भाषाओं और हिंदी को समृद्ध करने के लिए सरकारी स्तर पर गंभीरता से प्रयास हो रहे हैं। स्वाधीनता के अमृतकाल में इस तरह की बातों के सामने आने से मातृभाषा या भारतीय भाषाओं के लिए सरकार के स्तर संगठित प्रयास भाषा-प्रेमियों के साथ साथ बौद्धिक जगत के लिए भी संतोष के संकेत हैं। हिंदी में शब्दकोश की परंपरा को पुनर्जीवित करके भाषा को समृद्ध किया जा सकता है। अब भी हिंदी के शब्दकोश की बात होती है तो दशकों पूर्व प्रकाशित ज्ञानमंडल शब्दकोश या फादर कामिल बुल्के के शब्दकोश या फिर हरदेव बाहरी के शब्दकोश तक बात आकर रुक जाती है। अपने देश में शब्दकोश संस्कृति सशक्त नहीं हो पाई है। शब्दों के अर्थ और उसकी उत्पत्ति को लेकर हम सजग नहीं रहते हैं। हिंदी या भारतीय भाषाओं में जो भाषाई समृद्धि है उसको जानने समझने के लिए शब्दकोश संस्कृति को पुनर्जीवित करना होगा। इससे न केवल अकादमिक जगत में बल्कि पूरे भारतीय समाज में सांस्कृतिक चेतना का विकास होगा। शब्दकोश को अद्यतन करने और उसमें अन्य भाषाओं के शब्दों को शामिल करके न केवल भाषा को समृद्ध किया जा सकता है बल्कि इसका दायरा भी बढ़ाया जा सकता है। एक तरह से देखें तो ये औपनिवेशिक भाषाओं के चंगुल से मुक्ति का अभियान भी है।

इस संबंध में फ्रांस का उदाहरण दिया जा सकता है। सूरत में एक चर्चा के दौरान पता चला कि फ्रांस के लोग अपनी भाषा और मातृभाषा को लेकर कितने सजग हैं। एक मित्र ने बताया कि फ्रांस में अगर आप रास्ता भटक जाएं तो कभी भी किसी फ्रेंच से अंग्रर्जी में रास्ता न पूछें। वो बिना बताए आगे बढ़ जाएगा। आप भले ही हिंदी या भोजपुरी या तमिल में बात करें वो ठहरकर आपके हावभाव से आपके प्रश्नों को समझने का प्रयास करेंगे और आपकी सहायता भी करेंगे। जैसे ही आपने अंग्रेजी में कुछ कहा कि वो आपसे बात किए बिना आगे बढ़ जाएंगे। लेकिन स्वाधीनता के पचहत्तर वर्ष बीतने के बाद भी हमारे देश में विदेशी भाषा की अहमियत बनी हुई है। अगर इसके कारणों की पड़ताल करेंगे तो इसके पीछे स्वाधीनता के बाद के शीर्ष भारतीय नेतृत्व की कमजोरी और उनका विदेशी भाषा प्रेम ही दिखाई पड़ता है। भाषा के नाम पर इस देश ने बहुत राजनीति देखी, भाषा को लेकर हिंसा भी हुई है, भाषाई आधार पर राज्यों का विभाजन भी हुआ है। दो भाषाओं के बीच कटुता भी देखी गई है। पूर्व में साहित्य अकादमी के चुनाव के दौरान इस तरह की कटुता खुलकर सामने आती रही है। हिंदी का विरोध भी देखा गया। हिंदी विरोध के पीछे राजनीति रही है जिसने शिक्षा और अकादमिक जगत में भाषाई विष फैलाने का काम किया है। अब इस विष को खत्म करने का कार्य आरंभ हुआ है। हिंदी नहीं बल्कि सभी भारतीय भाषाओं को साथ लेकर चलने की नीति पर कार्य हो रहा है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता देने की बात की गई है। इस दिशा में समग्रता में कार्य भी हो रहा है। 

यह अनायस नहीं है कि प्रधानमंत्री एक सभा में भारतीय भाषाओं के शब्दकोश बनाने की बात करते हैं। इसके लिए संसद के दोनों सदनों के जिम्मेदार अधिकारियों से अनुरोध करते हैं और दूसरी तरफ गृह मंत्री हिंदी शब्दकोश को अद्यतन करने का उपक्रम आरंभ करते हैं। उसके क्रियान्वयन की जानकारी राष्ट्र को देते हैं। यह सरकार का भाषा के प्रति अपने दायित्व का निर्वहन भी है और अपनी संस्कृति पर अभिमान भी। अपनि संस्कृति पर अभिमान के इस अभियान में हर भारतीय नागरिक को जुड़ना चाहिए और आनेवाली पीढ़ी को शब्दकोश से संपर्क बनाने और बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। 


Sunday, September 11, 2022

विरह और प्रेम का राग पहाड़ी


फिल्मी गीतों में रागों का प्रयोग लंबे अरसे से हो रहा है लेकिन जब संगीतकार लोक से जुड़े दृश्यों को दिखाते हैं तो उनकी पहली पसंद राग पहाड़ी होती है। जैसा कि इस राग के नाम से ही स्पष्ट है कि इसकी उत्पत्ति पहाड़ी इलाकों में हुई होगी। माना जाता है कि हिमालय की तराई वाले इलाकों में ये राग प्रचलन में रहा है। संगीत के जानकारों का कहना है कि राग पहाड़ी को सबसे पहले कश्मीर के लोकगीतकारों ने आरंभ गाना किया। संगीत की परंपरा में इसको बजाने का समय देर शाम या रात्रि के आरंभिक समय को माना गया है। इस राग का संबंध बिलावल थाट से है और इसमें राग पीलू की सुगंध भी महसूस की जा सकती है। इस राग की एक विशेषता ये भी है कि इसको आरोह और अवरोह में परिभाषित नहीं किया जा सकता है। इस राग की एक विशेषता ये है कि इसको सुनते हुए कई बार प्रेम की अग्नि और विरह की पीड़ा के साथ साथ प्रेमी की प्रतीक्षा करती नायिका के मनोभावों को इस राग में अभिव्यक्ति मिलती है। इस राग को सुनते हुए कई बार ये भ्रम होता है कि ये एक धुन है। अगर इसको बजाने या गानेवाला कलाकार अगर सिद्ध होता है तो इसके राग के आरोह और अवरोह को बरतने में इसके सरगम के मानकों का इतनी निपुणता से विन्यास करता है कि वो इसको राग की ऊंचाई प्रदान कर देता है। इसी कारण ये राग सधता है और लोक संगीत को एक खास प्रकार की कर्णप्रियता से सजाता है। 

फिल्मों में जब भी लोक से जुड़े प्रसंग आते हैं तो राग पहाड़ी संगीतकारों और गायकों की पसंद बन जाता है। राज कपूर ने राग पहाड़ी का अपनी कई फिल्मों में उपयोग किया है। फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ में नायिका मंदाकिनी जब पर्दे पर ‘हुस्न पहाड़ों का ओ साहिबा, क्या कहना कि बारों महीने, यहां मौसम जाड़े का’ गाती है तो राग पहाड़ी अपने उत्स पर होती है। इस गाने का संगीत दिया है रवीन्द्र जैन ने और इसको लता मंगेशकर ने अपनी आवाज से अमर कर दिया। आर डी बर्मन को भी राग पहाड़ी बेहद पसंद था और वो अपनी कई फिल्मों के गानों में राग पहाड़ी का उपयोग किया करते थे। 1966 में एक फिल्म आई थी ‘तीसरी मंजिल’ जिसमें एक गाना था ‘ओ मेरे सोना रे, सोना रे, सोना...।‘ इसको लिखा था मजरूह सुल्तानपुरी ने। इस गीत में आर डी बर्मन ने बेहद खूबसूरती के साथ राग पहाड़ी का उपयोग किया था। आर डी बर्मन ने  इस गीत का संगीत तैयार करते समय राग पहाड़ी और जैज के छोटे टुकड़ों को गीत में पिरो दिया था। आशा और रफी की आवाज में ये गीत पचास साल से अधिक समय से श्रोताओं की पसंद बना हुआ है। 

Saturday, September 10, 2022

भाषाई सांप्रदायिकता से हिंदी की हानि


दो दिन बाद हिंदी दिवस है। हिंदी भाषा के बारे में जमकर चर्चा होगी। हिंदी को बाजार और रोजगार से जोड़ने की कई तरह की बातें होगी। स्वाधीनता के बाद से लेकर अबतक हिंदी की व्याप्ति बढ़ने पर हिंदी समाज प्रसन्न भी होगा। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने को लेकर अधिक प्रयास करने पर बल देते लोग भी मिलेंगे। हिंदी को  संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए केंद्र सरकार से अपील भी होगी। हर वर्ष हिंदी दिवस और हिंदी पखवाड़े में इस तरह के वाक्य सुनाई पड़ते हैं। हिंदी के विकास और उसकी समृद्धि को लेकर कार्य भी हो रहे हैं। शब्दकोश से लेकर भारतीय भाषाओं के कोश तैयार किए जा रहे हैं। हिंदी को तकनीक से जोड़ने के लिए सांस्थानिक और व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास किया जा रहा है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भले ही हिंदी शब्द का उल्लेख नहीं है लेकिन मातृभाषा और भारतीय भाषा को प्राथमिकता की बातें हैं। इंजीनियरिंग और अन्य तकनीकी शिक्षा के लिए हिंदी में पुस्तकें तैयार की जा रही हैं। पर स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के बाद अब अमृतकाल में हमें उन ऐतिहासिक कारणों को भी देखना चाहिए जिसकी वजह से हिंदी को पराधीन हिंदुस्तान में संघर्ष करना पड़ा और जिसका असर स्वाधीनता के बाद भी हिंदी पर दिखाई दे रहा है। 

पिछले दिनों उपरोक्त कारणों की पड़ताल कर रहा था तो गोरखपुर में आयोजित हिंदी साहित्य सम्मेलन के 19वें अधिवेशन में 2 मार्च 1930 को गणेश शंकर विद्यार्थी का अध्यक्षीय भाषण देखने को मिला। अपने भाषण में गणेश शंकर विद्यार्थी ने विस्तार से उन कारणों और परिस्थितियों की चर्चा की है जिसकी वजह से हिंदी को पराधीन भारत में परिधि पर डालने और उसको वहीं बनाए रखने का षडयंत्र किया गया। गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने लंबे वक्तव्य के आरंभ में ही इस ओर ध्यान दिलाया था। उन्होंने तब कहा था कि ‘आज से उन्नीस वर्ष पहले जब इस सम्मेलन का जन्म नहीं हुआ था और उसके जन्म के पश्चात भी कई वर्षों तक अपनी मातृभाषा का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करने के लिए पग पग पर न केवल संस्कृत, प्राकृत, शौरसैनी, मागधी, सौराष्ट्री आदि की छानबीन करते हुए शब्द-विज्ञान और भाषा-विज्ञान के आधार पर यह सिद्ध करने की आवश्यकता पड़ा करती थी कि हिंदी भाषा संस्कृत या प्राकृत की बड़ी कन्या है, किंतु बहुधा बात यहां तक पहुंच जाया करती थी और यह भी सिद्ध करना पड़ता था कि नानक और कबीर, सूर और तुलसी की भाषा का बादशाह शाहजहां के समय जन्म लेनेवाली उर्दू बोली के पहले, कोई अलग गद्य रूप भी था। जिस भाषा में पद्य की रचना इतने ऊंचे दर्जे तक पहुंच चुकी हो, उसके संबंध में इस बात की सफाई देनी पड़े कि उसका उस समय गद्य रूप भी था, इससे बढ़कर कोई हास्यास्पद बात हो नहीं सकती।‘  गणेश शंकर विद्यार्थी के मुताबिक उस समय ये संभव हो सकता है कि गद्य लिखने की परिपाटी न हो और बड़े बड़े ग्रंथ पद्य में लिखे जाते रहे हों। उन्होंने इस संबंध में ईरान, ग्रीस, रोम और चीन का उदाहरण देकर अपनी बातें स्पष्ट की थीं। हिंदी को लेकर इस तरह की बातें कहनेवालों पर उपहास की शैली में प्रहार भी किया था। अब अगर हम गणेश शंकर विद्यार्थी के उपरोक्त कथन को देखें तो वो हिंदी को भाषा कहते हैं और उर्दू को बोली। इससे भी साफ होता है कि उस समय हिंदी और उर्दू की क्या स्थिति रही होगी। 

गणेश शंकर विद्यार्थी के चिंतन के मूल में एक और बात थी जो उनके वक्तव्य में परिलक्षित होती है। उनके मुताबिक राजनीतिक पराधीनता पराधीन देश की भाषा पर अत्यंत विषम प्रहार करती है। राजनीतिक पराधीनता का भाषा पर किस प्रकार असर पड़ता है उसको भी विद्यार्थी जी स्पष्ट किया। उन्होंने तब कहा था कि ‘राजनीतिक पराधीनता ने भारतवर्ष में भी उसी प्रकार, जिस प्रकार उसने अन्य देशों में किया, भाषा विकास की राह में रोड़े अटकाने में कोई कमी नहीं की।...इस देश के मुसलमान शासकों के कारण भारतीय भाषाओं का सहज सवाभाविक विकास नहीं हो सका। सबसे अधिक हानि हिंदी की हुई। उनकी सत्ता देश के उत्तर, पश्चिम और मध्यवर्ती भाग में थी। यही प्रदेश शाही सत्ता के कारण अरबी अक्षरों और फारसी साहित्य से इतने प्रभावित हुए कि उनका रंग रूप ही बदल गया। एक भाषा दूसरी भाषा के संसर्ग में आकर शब्दों और वाक्यों का सदा दान-प्रतिदान किया करती है। यह हानिकारक या अपमानजनक बात नहीं है किन्तु जब ये दान-प्रतिदान प्रभुता या पराधीनता के भाव से होता है, एक भाषा को दूसरी भाषा के शब्दों  और वाक्यों को इसलिए लेना पड़ता है कि दूसरी भाषा के लोग बलवान हैं, उनकी प्रभुता है, उनको प्रसन्न करना है, उनके सामने झुकना है, तो इससे लेनेवाले की उन्नति नहीं होती, वो अपनी गांठ का बहुत कुछ खो देते हैं और पर-भाषा की सत्ता को स्वीकार करके अपनी परवशता और हीनता को पुष्ट करते हैं और अपने सर्वसाधारण जन से दूर जा पड़ते हैं। इस देश में विजेताओं के साथ फारसी के प्रवेश से ये बातें हुईं।‘  अब यहां से सूत्र पकड़ने की आवश्यकता थी जिसमें बाद के विद्वानों से चूक हुई या उनमें से कुछ अपनी विचारधारा की वजह से इन कारणों को जानबूझकर छोड़ दिया। परिणाम ये हुआ कि हिंदी भाषियों को यह सिद्ध करने की आवश्यकता पड़ी कि फारसी के आगमन और उर्दू के जन्म के पहले भी हिंदी गद्य का स्वतंत्र अस्तित्व था।

इस प्रकार का वातावरण लंबे कालखंड तक चला और फिर मगुलों के बाद इस देश पर अंग्रेजों का शासन कायम हुआ। उस समय अदालतों की भाषा फारसी थी। अंग्रेजों ने फारसी के स्थान पर उर्दू को स्थापित कर दिया। जबकि उर्दू का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं था। गणेश शंकर विद्यार्थी के मुताबिक उस समय मुसलमान जिस हिंदी को बोलते और लिखते थे और जिसमें वे फारसी के कुछ शब्दों का प्रयोग करते थे वही उर्दू थी। अंग्रेजों ने उत्तर भारत में उर्दू को ऐसा स्थान देकर जो उसे पहले से प्राप्त न था, हिंदी और उर्दू के विवाद का सूत्रपात किया। इस प्रकार बहुसंख्यक हिंदी भाषा-भाषी लोगों की सुविधा और विकास में बाधा उत्पन्न कर दी। अब अगर इन बिंदुओं पर विचार करें तो हिंदी के लंबे संघर्ष को समझा जा सकता है। स्वाधीनता संग्राम के दौरान हिंदी का उपयोग एक बार फिर से बढ़ा और उसको हिंदुस्तान के लोगों को जोड़ने वाली भाषा के तौर पर देखा जाने लगा। उस समय के कई नेताओं ने हिंदी को राष्ट्रभाषा की संज्ञा देते हुए ये अपेक्षा की थी कि स्वाधीनता के बाद हिंदी देश की राष्ट्रभाषा बनेगी। ये सबको स्वीकार भी था। अगर हम स्वाधीनता संग्राम के दौरान होनेवाले विरोध अभियानों का नाम देखें तो हिंदी की स्थिति स्पष्ट होती है। असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, जैसा सुंदर हिंदी शब्द हो, नमक सत्याग्रह या पूर्ण स्वराज या भारत छोड़ो आंदोलन। ये हिंदी शब्दों की स्वीकार्यता और संप्रेषणीयता थी जिसने पूरे हिन्दुस्तान को एक कर दिया। जब गांधी दक्षिण अफ्रका से भारत वापस लौटे थे तब वो भी हिंदी के पक्षधर थे। वो हिंदी को राष्ट्रभाषा के तौर पर देखते थे लेकिन कालांतर में वो हिन्दुस्तानी के पक्षधर होते चले गए। वो हिन्दुस्तानी जिसको लेकर स्वाधीनता के बाद संविधान सभा में बहस हुई, पहले आमचुनाव के बाद संसद में बहस हुई लेकिन आज वो अपनी पहचान और प्रासंगिकता दोनों खो चुका है। मुगलों के समय हिंदी आक्रांताओ की भाषाई सांप्रदायिकता का शिकार बनी, उसके बाद अंग्रेजों ने हिंदी को उर्दू से दबाने की कोशिश की। अंग्रेजी को प्राथमिकता देकर भारतीय भाषाओं का तिरस्कार किया। कुल मिलाकर अमृतकाल में हमें इन बातों पर विचार करते हुए हिंदी और भारतीय भाषाओं को मजबूत करने का प्रण लेना चाहिए। 

कब हटेंगे परतंत्रता के चिन्ह ?


स्वाधीनता दिवस पर लाल किले से प्रधानमंत्री ने देश की जनता से अमृत काल में पांच प्रण का आह्वान किया था। उसमें से एक प्रण था गुलामी के अंश की समाप्ति। इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन को जोड़ने वाली सड़क का नाम कर्तव्य पथ किया गया। इसके लान में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा उसी जगह लगाई जहां जार्ज पंचम की प्रतिमा थी तो इसको प्रधानमंत्री के गुलामी के अंश की समाप्ति के आह्वान से जोडा गया। लेकिन कर्तव्य पथ के चार से पांच किलोमीटर के दायरे में गुलामी के कई निशान अब भी हैं। इंडिया गेट से निकलनेवाली सड़कें आक्रांताओं के नाम पर हैं। अकबर रोड से लेकर हुमांयू और शाहजहां रोड तक। औरंगजेब रोड का नाम तो बदला लेकिन औरंगजेब लेन अब भी है। यहां से थोड़ी दूर बंगाली मार्केट के पास बाबर रोड और बाबर लेन मुगल आक्रांताओं की याद दिलाता रहता है। हुमांयू को कई इतिहासकार उदार बादशाह के रूप में देखते हैं। लेकिन उसने भारतीय संस्कृति को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया। भारतीय कलाओं को नेपथ्य में धकेलकर फारसी कलाओं को प्राथमिकता दी। फारस से वास्तुविद और चित्रकार आदि हिन्दुस्तान बुलाए। कहा जा सकता है कि भारत में सांस्कृतिक स्लतनत की स्थापना हुमांयू ने की। मुगल सल्तनत को मजबूती प्रदान करने के लिए जासूसी का पूरा तंत्र विकसित करनेवाले मिर्जा नजफ खां के नाम पर भी एक सड़क है जो लोदी कालोनी के बाहर से निकलती है। जिस तुगलक राजवंश ने देश की जनता पर भायनक अत्याचार किया, अकाल के समय जनता को लूटा उसके नाम पर तुगलक रोड, तुगलक लेन और तुगलक क्रेसेंट अपनी मौजूदगी से उनके अत्याचारों की याद दिलाता है।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ मुगलों और उनके कर्मचारियों के नाम पर नई दिल्ली इलाके में सड़कें हैं। उन अंग्रेजों के नाम पर भी सड़कें हैं जिन्होंने हमारे देश को गुलाम बनाने और गुलाम बनाए रखने में भूमिका निभाई। हिन्दुस्तान के विभाजन की जमीन तैयार करनेवाले और देश में सांप्रदायिकता का बीज बोने वाले चेम्सफोर्ड के नाम पर भी सड़क है। एक और अंग्रेज अफसर था जिसका नाम था विलियम मैल्कम हेली था। 1912 में दिल्ली का कमिश्नर नियुक्त हुआ था। उसको जनता के बीच ब्रिटिश राज की स्वीकार्यता बढ़ाने का काम सौंपा गया था। उसने चतुराई से ये कार्य किया। उसके नाम पर हेली रोड है। गुलामी के ऐसे कई चिन्ह देश की राजधानी में अब भी बने हुए हैं। कर्तव्य पथ के अस्तित्व में आने के बाद क्या ये उम्मीद की जानी चाहिए कि अमृत काल में परतंत्रता के इन प्रतीकों को हटाया जाएगा।   

Saturday, September 3, 2022

राजनीति के ‘रंगबाज’ और ‘महारानी’

मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू होने के बाद बिहार में सामाजिक बदलाव की बयार बही थी। लगभग उसी समय बिहार में कई ऐसे बाहुबली भी उभरे जो बाद में राजनीति के रास्ते विधानसभा और संसद के सदस्य बने। इनमें पप्पू यादव से लेकर आनंद मोहन तक और शहाबुद्दीन से लेकर सूरजभान सिंह तक का नाम शामिल है। बाद के दिनों में भी ये क्रम चलता रहा और स्थानीय स्तर के अपराधी भी विधानसभा पहुंचने लगे। इन आपराधिक प्रवृत्ति वाले नेताओं का लगभग सभी राजनीतिक दल ने अपने हित में उपयोग किया। किसी ने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले इन नेताओं उपयोग सरकार बनाने के लिए समर्थन जुटाने में किया तो किसी ने सरकार बचाने के लिए। 1990 के बाद के दशकों में बिहार की राजनीति का अपराधीकरण तेज हुआ। उसी समय राजनीति के अपराधीकरण पर देशव्यापी चर्चा हुई थी। चुनाव में बूथ लूटने और कब्जा करने की घटनाएं भी खूब हुई, चुनावी हिंसा भी। ये वही दौर था जब बिहार में जाति और विचारधारा के नाम पर सामूहिक नरसंहार हुए। नक्सलियों ने विचारधारा और समानता हासिल करने की आड़ में नरसंहार किए तो जाति आधारित निजी सेनाओं के बीच भी खूनी खेल खेला गया। जातियों के नए नेता पैदा होते चले गए। जातियों के बीच चौड़ी होती खाई को नेताओं ने अपने वोटबैंक के तौर पर उपयोग करना आरंभ कर दिया। पाटने की कोशिश किसी ने नहीं की। लालू प्रसाद यादव जैसे गरीब परिवार से आनेवाले व्यक्ति बिहार के मुख्यमंत्री बने तो सामाजिक न्याय का नारा जोरशोर से लगा। उनपर जब घोटाले का आरोप लगा तो उन्होंने अपने राजनीतिक सहयोगियों को नजरअंदाज करते हुए अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया। कहना न होगा कि उस समय बिहार में राजनीति और अपराध की दुनिया में बहुत कुछ घट रहा था जो किसी फिल्मी पटकथा से कम रोचक और दिलचस्प नहीं था। बिहार में उन्हीं दिनों की राजनीतिक घटनाओं और बाहुबलियों को केंद्र में रखकर कई बेवसीरीज बने भी और अब भी बन रहे हैं।

हाल में दो वेबसीरीज आई है जिसके केंद्र में बिहार की राजनीति, बिहार के बाहुबली और बिहार की राजनीतिक और आपराधिक घटनाएं हैं। जी 5 पर बाहुबलियों को केंद्र में रखकर एक सीरीज आती है जिसका नाम है ‘रंगबाज’। इस वेब सीरीज के पहले सीजन में उत्तर प्रदेश के खतरनाक अपराधी श्रीप्रकाश शुक्ल के कारनाओं पर आधारित पूर्वांचल की राजनीति को दिखाया गया था। इसमें हरिशंकर तिवारी और वीरेन्द्र शाही के बीच चलनेवाले खूनी खेल को फिक्शनलाइज किया गया था। रंगबाज का पहला सीजन 22 दिसंबर 2018 को रिलीज हुआ था। इस शृंखला में 20 दिसंबर 2019 को राजस्थान के गैंगस्टर आनंदपाल सिंह के अपराध पर सीरीज आई। इस कहानी में राजस्थान की राजनीति के उन आयामों को भी दर्शकों के सामने पेश किया गया है जिसके बारे में देश दुनिया को जानकारी कम थी। ‘रंगबाज फिर से’ नाम से के बाद इस वर्ष 29 जुलाई को ‘रंगबाज, डर की राजनीति’ के नाम से बिहार के सिवान के बाहुबली नेता शहाबुद्दीन के बनने और उनके मिटने की कहानी को दर्शकों के सामने पेश किया गया है। रंगबाज के इस सीजन में बिहार में सामाजिक न्याय के दौर की राजनीति के दांव पेंच और अपने राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए हिंसा का सहारा लेने के बारे में विस्तार से बताया गया है। शहाबुद्दीन के किरदार के साथ विनीत कुमार सिंह ने न्याय किया है। वेब सीरीज के इस सीजन की स्क्रिप्ट बहुत कसी हुई है। इसमें शहाबुद्दीन की प्रेमकथा वाले प्रसंग को भी उभारा गया है। शहाबुद्दीन के चरित्र के क्रूरतम पक्ष पर अपेक्षाकृत कम फोकस किया गया है। चंदा बाबू, जिनके बेटों की हत्या हुई थी, के दर्द और संघर्ष को उभारने में निर्देशक लगभग नाकाम रहे हैं। कहा जा सकता है कि ये सीजन शहाबुद्दीन पर केंद्रित है इस वजह से चंदा बाबू पर ज्यादा फोकस नहीं किया गया है। अगर चंदा बाबू के दर्द और संघर्ष को उभारा गया होता तो शहाबुद्दीन के कारनामों को अधिक प्रामाणिकता के साथ पेश किया जा सकता था। दरअसल इस तरह से सीरीज के लेखक सुनी सुनाई बातों, पुस्तकों और इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री के आधार पर कहानी कंस्ट्रक्ट करते हैं। उनको उस दौर के समाचरपत्रों को भी देखना चाहिए और कहानी लिखने के पहले प्राथमिक स्त्रोतों तक पहुंचना चाहिए था।

बिहार के मुख्यमंत्री रहते हुए लालू प्रसाद यादव जब घोटाले के भंवर में फंसे तो उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया था। उस घटना पर केंद्रित वेब सीरीज महारानी का दूसरा सीजन भी आया है। दूसरे सीजन में निर्देशक और लेखक ने इसकी कहानी को बहुत अधिक काल्पनिक बनाकर फिल्मी बनाने की कोशिश की है। इसमें पति पत्नी के बीच के संघर्ष में ‘वो’ की एंट्री कहानी को ‘पति पत्नी और वो’ की ओर ले जाती है। केंद्रीय पात्र भीमा भारती का अपनी पार्टी की कार्यकर्ता कीर्ति सिंह के साथ प्रेम चलता है। फिल्मी अंदाज में तीज वाले दिन जब भीमा भारती अपनी प्रेमिका कीर्ति सिंह के साथ अकेले कमरे में होते हैं तो रानी भारती की एंट्री कराई जाती है। ये बेहद पुराना फार्मूला रहा है। इस सीरीज में भी जब ये प्रसंग आता है तो दर्शक चौंकता नहीं है क्योंकि उसको पता है कि आगे क्या होनेवाला है। प्रेम प्रसंग के अलावा इसमें राजनीति की तमाम साजिशें हैं, तिकड़में हैं, डरा धमकाकर नेताओं को अपने पाले में लाने की कोशिश भी है। पूरी कहानी अविभाजित बिहार में चलती है जहां शिबू सोरेन का किरदार भी महत्वपूर्ण पात्र के रूप में सामने आता है। झारखंड राज्य को लेकर सियासी सौदेबाजी भी है। इसके अलावा कई किरदार बिहार की समकालीन राजनीति के नेताओं से मेल खाते हैं। बहुत वर्षों पहले पटना में एक विधायक ने एक लड़की के साथ रेप किया था। वो आपराधिक वारदात देश भर में चर्चित हुआ था। उस घटना को भी महारानी सीजन 2 में दिखाकर इसको बिहार की कहानी बताने और बनाने की कोशिश निर्माताओं ने की है। और तो और इसमें चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के चरित्र से मेल खाता एक महिला पात्र गढ़ा गया है जो हमेशा लैपटाप पर आंकड़ों का खेल करती है। अपने नेता की छवि निर्माण में लगी रहती है।

रानी भारती के रोल में हुमा कुरैशी ने बेहतरीन अभिनय किया है लेकिन उनको अपने उच्चारण पर काम करने की जरूरत है। जब वो बिहार की कम पढ़ी लिखी मुख्यमंत्री के रूप में बोलती हैं तो ये उनके बोली से परिलक्षित नहीं होता है। कई स्थितियों में उनका इस तरह का उच्चारण खटकता है। बावजूद इन कमियों के महारानी का सीजन 2 पहले सीजन से बेहतर है। अब निर्माताओं ने तीसरे सीजन का भी संकेत दे दिया है। भीमा भारती की हत्या हो जाती है। दूसरे सीजन के अंत में जिस तरह से वेबसीरीज को मर्डर मिस्ट्री बनाने की कोशिश हुई है उसको देखकर लगता है कि इस सीरीज को लिखनेवालों के सामने राजनीति की जमीन को पकड़े रहने की चुनौती होगी। अन्यथा राजनीति से आरंभ होकर ये वेबसीरीज प्रेम त्रिकोण के रास्ते अपराध कथा में बदल जाएगी। ये अच्छी बात है कि बिहार की राजनीति और यहां की आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं पर मनोरंजन की दुनिया का ध्यान गया है। बिहार में इस तरह के पात्रों और घटनाओं की कमी नहीं है। अभी न बने लेकिन भविष्य में इस बात की संभवाना तो है ही कि जब महारानी का चौथा या पांचवा सीजन आएगा तो उसमें नीतीश कुमार के राजनीतिक दांव-पेंच और अलग अलग पार्टियों के साथ सरकार बनाने की घटनाओं पर भी रोचक कहानी कंस्ट्रक्ट होगी। तब इसको देखना और दिलचस्प होगा।