कुछ दिनों पहले दिल्ली के पटियाला हाउस स्थित जिला एवं सत्र न्यायालय के प्रधान जिला एवं सत्र न्यायाधीश धर्मेश शर्मा ने हिंदी को लेकर एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि अगर किसी भी पक्ष से अदालत के सामने अनुरोध आता है कि साक्ष्य या किसी अन्य कार्यवाही को हिंदी में दर्ज किया जाए तो राष्ट्रीय राजधानी की अदालतें ऐसा करने के लिए कानूनी तौर पर बाध्य हैं। प्रधान जिला न्यायाधीश ने अपने में यह भी कहा कि, यह समझ में नहीं आता कि विद्वान मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट को किस लाजिस्टिक समस्या से परेशानी है। गवाहों के बयान कंप्यूटर पर दर्ज किए जा सकते हैं। जिसके लिए स्टेनोग्राफर के पास हिंदी फांट होता है। अगर स्टेनोग्राफर हिंदी टाइपिंग नहीं जानता है तो हिंदी टाइप करनेवाले स्टेनोग्राफर के लिए अनुरोध किया जा सकता है। उनकी व्यवस्था की जा सकती है। उन्होंने इससे भी एक कदम आगे जाकर अपने आदेश में कहा कि अगर हिंदी में टाइप करनेवाला स्टेनोग्राफर उपलब्ध नहीं हो सकता है तो मजिस्ट्रेट खुद या अदालत के कर्मचारियों की मदद से गवाहों के बयान हिंदी में दर्ज कर सकते हैं। उन्होंने अपने निर्णय में कानूनी प्रविधानों का उल्लेख भी किया। हिंदी में साक्ष्य दर्ज करने के लिए पक्षकार के अनुरोध को अस्वीकार करना आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 272 और दिल्ली उच्च न्यायालय के नियमों का उल्लंघन होगा। दिल्ली उच्च न्यायालय का नियम है कि देवनागरी लिपि में हिंदी दिल्ली उच्च न्यायालय के अधीनस्थ न्यायालयों की भाषा होगी।
इस निर्णय की पृष्ठभूमि ये है कि दिल्ली के मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट की अदालत में एक केस में चल रहा था। जिसमें एक पक्ष ने मजिस्ट्रेट से अनुरोध किया था कि गवाहों से बहस के दौरान सवाल हिंदी में पूछे जाएं और उनके उत्तर भी हिंदी में ही दर्ज किए जाएं। मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने हिंदी में प्रश्न उत्तर और उसको हिंदी में ही दर्ज करने की याचिका को खारिज कर दिया था। खारिज करते हुए मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने कहा था कि अदालत में इससे संबंधित सुविधा नहीं है। इस कारण उनके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। अपनी याचिका के खारिज होने के बाद गुलशन पाहूजा नाम के व्यक्ति ने इस फैसले के विरुद्ध जिला और सत्र न्यायाधीश की अदालत में अपील की थी। जहां जिला और सत्र न्यायाधीश ने मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट के निर्णय को निरस्त कर दिया। इस निर्णय की जितनी चर्चा होनी चाहिए थी उतनी नहीं हो पाई। इसमें जिस तरह से कहा गया कि संसाधन की कमी या अनुपलब्धता की स्थिति में मजिस्ट्रेट को ये प्रयास करना होगा कि गवाहों के बयान या साक्ष्य हिंदी में दर्ज किए जा सकें। यह निर्णय मजिस्ट्रेट और जज की जिम्मेदारी को भी स्पष्ट रूप से व्याख्यित करने वाला है । आज जब हिंदी को लेकर अकारण राजनीति की जा रही है वैसे में इस तरह के अदालती निर्णय भारतीय भाषाओं में न्याय की दिशा में बढ़नेवाले कदम को शक्ति देनावाला है। दिल्ली उच्च न्यायालय की अधीनस्थ अदालतों में समय समय पर हिंदी के प्रयोग को लेकर विभिन्न प्रकार की पहल की जाती रही है। कुछ वर्षों पूर्व दिल्ली की तीस हजारी अदालत ने भी हिंदी को लेकर एक पहल की थी और इस तरह का प्रविधान किया गया था कि अदालत के विभिन्न विभागों के बीच लिखित संवाद हिंदी में हो।
निचली अदालतों में अंग्रेजी के प्रयोग को देखकर कुछ वर्षों पूर्व की एक घटना याद आती है। गाजियाबाद की एक हाउसिंग सोसाइटी में नया-नया रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन बना था। वहां के नोटिस बोर्ड की पर बाहर से सोसाइटी के फ्लैट्स में काम करने आनेवाली घरेलू सहायिकाओं के लिए हर दिन अंग्रेजी में कोई न कोई सूचना लगी होती थी। उसकी पहली पंक्ति होती थी, आल मेड्स आर रिक्वेस्टेड टू...(सभी सहायिकाओं से अनुरोध है कि...)। उसके बाद जो भी दिशा निर्देश होते थे वो अंग्रेजी में लिखकर नोटिस बोर्ड पर चिपका दिए जाते थे। कोई भी सहायिका उसका पालन नहीं करती थी। रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन के पदाधिकारियों के पास शिकायत आती थी। वो घरेलू सहायिकाओं से बात करते थे तो फिर नियमों का पालन आरंभ हो जाता था। फिर कोई नया निर्देश और फिर अंग्रेजी में नोटिस और फिर उसका अनुपालन नहीं होता था। रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष बहुत परेशान थे कि इस समस्या का हल कैसे निकले। अचानक एक दिन एक बुजुर्ग महिला ने अध्यक्ष महोदय को परेशान देखकर उनकी परेशानी का कारण जानना चाहा। उन्होंने जब कारण बताया तो बुजुर्ग महिला ने उनसे पूछा कि जिनके लिए नोटिस लगाए जाते हैं क्या वो अंग्रेजी जानती हैं? अध्यक्ष को इस प्रश्न से ही अपनी समस्या का हल मिल गया। उसके बाद सभी नोटिस हिंदी में लगने लगीं। उन नोटिसों को सुरक्षा गार्ड भी पढ़ लेते थे। कुछ घरेलू सहायिकाएं भी पढ़ लेती थीं। आपस में उनकी चर्चा हो जाती थी और अनुपालन भी हो जाता था। हमारे देश की न्यायिक व्यवस्था के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। जिनको न्याय चाहिए उनको अंग्रेजी नहीं आती और जिनको न्याय देना है वो अंग्रेजी में ही सारी कार्यवाही करते हैं।
न्याय विभाग की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार काफी पहले से ही मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान के उच्च न्यायालयों में हिंदी में कार्यवाही और निर्णयों की अनुमति है। जब तमिलनाडू सरकार ने तमिल में, गुजरात सरकार ने गुजराती में, छत्तीसगढ़ सरकार ने हिंदी में, बंगाल सरकार ने बंगाली में और कर्नाटक सरकार ने कन्नड में अपने से संबंधित हाईकोर्ट की कार्यवाही का अनुरोध किया तो उनको केंद्र सरकार की अनुमति नहीं मिल पाई। दरअसल 1965 की कैबिनेट कमेटी का एक निर्णय है कि अगर इस तरह का कोई अनुरोध केंद्र सरकार के पास आता है तो सरकार को उसपर उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायधीश की राय लेनी होगी। केंद्र सरकार ने इन राज्यों के प्रस्ताव के आलोक में, 1965 के कैबिनेट के फैसले के अनुसार, मुख्य न्यायाधीश से उनकी राय मांगी। 2012 में उस समय के मुख्य न्यायाधीश ने केंद्र सरकार को बताया कि पूरी अदालत ने राज्यों के प्रस्ताव पर विचार किया और इसको स्वीकार नहीं करने का निर्णय लिया। उसके बाद कई बार इन राज्यों के प्रतिनिधियों ने संसद में भी इस प्रश्न को उठाया लेकिन अबतक कोई निर्णय नहीं हो पाया और अंग्रेजी में ही कार्यवाही चल रही है। न्याय के आकांक्षी को उसकी भाषा में न्याय नहीं मिल पा रहा है। इसका प्रयास किया जाना चाहिए कि कम से कम देशभर की निचली अदालतों में स्थानीय भारतीय भाषाओं में न्यायिक प्रक्रिया चले। गवाहों के बयान, साक्ष्य आदि स्थानीय भारतीय भाषा में हो सकें। इससे न्यायिक प्रक्रिया सुदृढ़ होगी और इसमें नागरिकों की भागीदारी बढ़ेगी।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता की बात पर और गृह मंत्री अमित शाह की अध्यक्षता वाली राजभाषा समिति की राष्ट्रपति को सौंपी गई रिपोर्ट को लेकर देशभर में एक भ्रम का वातावरण बनाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि केंद्र सरकार गैर हिंदी भाषी प्रदेशों पर हिंदी थोपना चाहती है। राजभाषा समिति की रिपोर्ट में किस तरह के सुझाव दिए गए हैं वो अभी तक सार्वजनिक नहीं हुए हैं। बावजूद इसके अंग्रेजी के पैराकार छाती कूटने में लगे हैं कि सरकार आईआईटी, आईआईएम और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में हिंदी को शिक्षा का माध्यम बनाना चाहती है। अभी हाल ही में बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन ने भी हिंदी थोपने के विरोध की घोषणा की। यह स्पष्ट नहीं है कि कहां हिंदी थोपी जा रही है। भाषा पर राजनीति करने और अंग्रेजी कायम रखने से बेहतर है कि भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता मिले। भारतीय भाषाओं में शिक्षा मिले, भारतीय भाषाओं में न्याय मिले, भारतीय भाषा ही शासन प्रशासन की भाषा हो।
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दो बार छाप दिये एक ही बात
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