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Saturday, November 26, 2022

प्रगतिशीलता के झंडाबरदार खामोश


हाल में तीन घटनाएं लगभग एक साथ घटी। दिल्ली के जामा मस्जिद में एक नोटिस लगा जिसपर लिखा था कि मस्जिद में लड़की या लड़कियों का अकेले दाखिला मना है। दूसरी घटना में अभिनेत्री ऋचा चड्ढा ने भारतीय सेना का मजाक उड़ाते हुए एक ट्वीट किया। हुआ ये कि लेफ्टिनेंट जनरल उपेन्द्र द्विवेदी ने एक बयान दिया कि भारतीय सेना गुलाम कश्मीर को वापस भारत में मिलाने के आदेश को पूरा करने के लिए तैयार है। इसपर ऋचा चड्ढा ने मजाक उड़ाते हुए टिप्पणी की थी। जामा मस्जिद वाली घटना में दिल्ली के उपराज्यपाल के हस्तक्षेप के बाद मस्जिद प्रबंधन ने अपना निर्णय वापस ले लिया। ट्विटर पर जब चौतरफा हमला होने लगा तो अभिनेत्री ऋचा चड्ढा को भी बात समझ में आई होगी। उसने भी अपनी टिप्पणी पर खेद प्रकट कर दिया। अपने नाना के सेना में होने की बात कहने लगी। तीसरी खबर दारुल उलूम देवबंद से आई। एक ताजा फतवे में कहा गया कि इस्लाम में जन्मदिन मनाना गुनाह है। फतवे में कहा गया कि जन्मदिन मनाना एक खुराफात है क्योंकि इस्लाम और शरीयत में इसका कोई जिक्र नहीं है। जन्मदिन मनाने की परंपरा ईसाइयों की है और मुसलमान उसकी नकल करते हैं। मुसलमानों को इससे बचना चाहिए और शरीयत के बताए रास्ते पर चलना चाहिए।  

जामा मस्जिद में नोटिस वापसी और ऋचा के खेद प्रकट करने के बाद मामले का पटाक्षेप हो गया प्रतीत होता है। लेकिन इन दो घटनाओं के बाद कई प्रश्न उत्पन्न हो गए हैं। जिसपर भारतीय समाज को गंभीरता से विचार करना चाहिए। जामा मस्जिद में अकेली लड़कियों के प्रवेश पर प्रतिबंध का जब इंटरनेट मीडिया पर विरोध आरंभ हुआ तो मस्जिद की ओर से सफाई आई। उस सफाई में मस्जिद के प्रवक्ता ने कहा कि लड़कियां अपने पुरुष मित्रों से मिलने के लिए मस्जिद में आती हैं, डांस करती हैं, वीडियो बनाती हैं, इस वजह से उनके प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया गया। यहां यह याद दिलाना आवश्यक है कि एक वेबसीरीज में जब एक मंदिर के अंदर नायक-नायिका का चुंबन दृष्य फिल्माया गया था तो उसका विरोध हुआ था। केस मुकदमे भी गुए थे। तब कथुत उदारवादियों की तरफ से ये तर्क दिया गया था कि प्रेम तो पवित्र होता है और वो कहीं भी किया जा सकता है। उसको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से भी जोड़ा गया था। तब इस तरह के तर्क देने वाले जामा मस्जिद वाले मसले पर कन्नी काट गए हैं। जबति यहां न तो कोई चुंबन दृश्य था और न ही रोमांटिक नृत्य का वीडियो बना था। 

हिंदुओं और मुसलमानों के बारे में दो अलग अलग मानदंडों पर विचार किया जाना चाहिए। नारी स्वतंत्रता की बात करनेवाली और खुद को उदारवादी प्रचारित करनेवाली क्रांतिकारी महिलाएं भी इन मसलों पर खामोश रहीं। कुछ वर्ष पहले महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर में महिलाओं के प्रवेश पर कितना हंगामा मचा था, ये अब भी पाठकों के स्मरण में होगा। उस वक्त जितनी महिलाएं पक्ष में खड़ी हुई थीं, इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म्स पर जिस तरह का गुस्सा या विरोध देखने को मिला था वो जामा मस्जिद के फैसले के समय कहीं भी नहीं दिखा। वो फिल्मी अभिनेत्रियां भी नहीं दिखाई दीं जो महिला अधिकारों के लिए हाथ में तख्तियां लेकर ट्विटर पर खड़ी हो जाया करती हैं। उनके पास जामा मस्जिद में लड़कियों के प्रवेश पर पाबंदी की खबरें नहीं पहुंच पाती हैं लेकिन शणि शिंगणापुर की आहट से भी परेशानी हो जाती है। इन तथाकथित उदारवादी, प्रगतिशील या महिला अधिकारों की झंडा-डंडा लेकर चलनेवाली महिलाओं की इस तरह की चुनी हुई चुप्पियां उनके सार्वजनिक स्टैंड को सवालों के घेरे में खड़ा कर देती है। इनके इस तरह के स्टैंड से समाज में एक अलग ही किस्म की सांप्रदायिक स्थितियां बनती हैं जिसका असर काफी लंबे समय के बाद देखने को मिलता है। यह स्थिति समाज के लिए घातक है। 

पिछले दिनों जब फिल्मों का बहिष्कार होने लगा था तो इसके विरोध में देशभर में एक चर्चा का वातावरण बनाने की कोशिश की गई थी। उसमें इस तरह की बातें भी की गई थीं कि बहिष्कार की अपील के कारण हमारा समाज हिंदू और मुसलमान के आधार पर बंट रहा है। ऐसा तब नहीं कहा गया था जब आमिर खान ने नरेन्द्र मोदी के विरोध में चलते फिरते इंटरव्यू दिया था। तब आमिर खान को साहसी अभिनेता के तौर पर रेखांकित किया गया था। जब आमिर की फिल्म के बहिष्कार की बात आई तो उसको हिंदू मुसलमान का रंग देकर भारतीय समाज को अपमानित करने की कोशिश की गई। ऋचा चड्ढा ने भारतीय सेना का अपमान किया है, उसका मजाक उड़ाया है। सवाल यही उठता है कि कोई अपने देश की सेना का मजाक कैसे उड़ा सकता है। कहां से दिमाग में इस तरह की सोच आती है। क्यों ये लोग बात-बात में सेना को अपनी क्षुद्र राजनीति का शिकार बना लेते हैं। कल को अगर ऋचा को कोई फिल्म मिलती है या वो किसी वेबसीरीज में नजर आती है और दर्शकों की ओर से उसके बहिष्कार की अपील की जाती है तो उसकी आलोचना का अधिकार किसी को नहीं होगा। बहिष्कार तो विरोध जताने का एक शांतिपूर्ण तरीका भी है। इंटरनेट मीडिया पर ऋचा चड्ढा की टिप्पणियां पढ़कर लगता है कि वो खुद को उदारवादी मानती हैं, सेक्यूलर भी। इंटरनेट मीडिया पर खूब सक्रिय भी हैं लेकिन जामा मस्जिद में लड़कियों के प्रवेश पर पाबंदी के मामले में वो भी चुप्पी को ही चुन लेती हैं। इस तरह का छद्म उदारवाद ज्यादा दिनों तक चल नहीं सकता। 

अब बात कर लेते हैं उस फतवे की जिसमें जन्मदिन के उत्सव को इस्लाम में गुनाह माना गया है। इसपर आगे बढ़ने के पहले फतवे के बारे में कुछ जानकारी। समय समय पर जारी होनेवाला फतवा संकलित होता रहा है। इसके बाद उसको संकलित कर प्रकाशित करवा दिया जाता है। जब किसी आम मुसलमान के मन में अपनी जिंदगी, शरीयत या स्वभाव के बारे में कोई शंका पैदा होती है या उसका किसी मसले पर विवाद हो जाता है तो वो मौलवी के पास जाता है। उनसे अपने शंका का समाधान चाहता है। मौलवी पूर्व में जारी किए गए फतवों के संकलन को देखकर शंका समाधान की कोशिश करते हैं। दारुल उलूम देवबंद के जारी फतवों के कई खंड अबतक प्रकाशित हो चुके हैं। इस तरह के देखा जाए तो फतवे कानून बन जाते हैं। जन्मदिन तो लेकर जो फतवा जारी किया गया है उसका भी दूरगामी असर होगा। इस फतवे पर भी किसी भी प्रगतिशील कामरेड ने मुंह नहीं खोला और चुपचाप इसको गुजर जाने दिया गया। 

साहित्य जगत में भी कई लेखक और लेखिकाएं महिला अधिकारों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लेकर चीखती रहती हैं लेकिन उनमें से भी ज्यादातर लेखिकाएं चुप रहीं। कहीं कुछ नहीं लिखा। हिंदी साहित्य में भी खुद को प्रगतिशील कहनेवाले लेखक भी इन मसलों पर खामोश हैं। प्रगतिशील लेखक जितना मुखर हिंदू धर्म से जुड़ी घटनाओ पर होते हैं उतनी ही गहरी चुप्पी इस्लाम के मसले पर साध लेते हैं। अपने लेखन में भी और अपने बयानों और भाषणों में भी। ये कैसी प्रगतिशीलता है जो धर्म के आधार पर अपना रास्ता तय करती है। ये कैसी प्रगतिशीलता है जो देश के सैनिकों को अपमानित करनेवालों का विरोध करने की हिम्मत नहीं कर पाता है। दरअसल ये छद्म प्रगतिशीलता है जो अपने राजनीतिक आकाओं के कहने पर अपना स्टैंड लेती है। राजनीति करनेवाले अपने वोटबैंक की चिंता करते हैं, करनी भी चाहिए लेकिन जब लेखक या बुद्धिजीवी खुद को राजनीतिक औजार के तौर पर इस्तेमाल करने की छूट देते नजर आते हैं तो समाज में उनकी प्रतिष्ठा कम होती है। 


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