आज हिंदी फिल्म के विषयों को लेकर निरंतर विवाद होते हैं। कई बार फिल्मों में राजनीति और राजनीतिक दलों के एजेंडा भी दिखाई पड़ते हैं। आज बहुत ही कम फिल्मकार राष्ट्र सर्वप्रथम के सोच के साथ फिल्म बनाते नजर आते हैं। बीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों और इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में कई ऐसी फिल्में आईं जिसने आतंकवाद और सांप्रदायिकता का विषय तो फिल्म के लिए चुना लेकिन मंशा विचारधारा विशेष का पोषण था। कई बार राजनीति भी। लेकिन हमारे देश में ऐसे कई फिल्मकार हुए जिन्होंने राष्ट्र की एकता और अखंडता को शक्ति देनेवाली फिल्में बनाईं। ऐसे ही एक फिल्मकार थे व्ही शांताराम। देश की स्वाधीनता के बाद वो दहेज पर फिल्म बनाने की तैयारी कर रहे थे। फिल्म की स्क्रिप्ट पर काम चल रहा था। उसी वक्त दक्षिण भारत में भाषा के आधार पर अलग आंध्र प्रदेश की मांग को लेकर आंदोलन चलने लगा। स्वाधीनता सेनानी श्रीरामलु आमरण अनशन पर थे। उनकी मौत हो गई। आंदोलन भड़क गया। इस आंदोलन ने शांताराम को व्यथित कर दिया। उन्होंने दहेज पर फिल्म बनाने की योजना रोक दी। तय किया कि वो अपना देश के नाम से एक फिल्म बनाएंगे। फिल्म हिंदी और तमिल दोनों भाषा में बनाई जाएगी। उनके मित्रों ने बहुत समझाया कि फिल्म दहेज की योजना को रोककर ‘अपना देश’ बनाने की योजना में लाभ नहीं होगा। उस समय शांताराम धनाभाव से गुजर रहे थे। पैसे के आगे उन्होंने देश को रखा।
फिल्म अपना देश का पहला दृश्य स्वाधीनता के उत्सव का रखा गया। शांताराम ने इसमें एक डांस सीक्वेंस रखा। जिसमें भारत माता को बेड़ियों में जकड़ा दिखाया गया। भारत माता के आसपास नृत्यांगनाएं और उनके साथी परफार्म कर रहे थे। वो विभिन्न प्रदेशों की पोशाक पहने थे। नृत्य करते करते सबने मिलकर भारत माता को बेड़ियों से मुक्त कर दिया। अचानक एक व्यक्ति भारत के नक्शे से एक टुकड़ा उठा लेता है। सभी के बीच उसको लेकर झगड़ा शुरु हो जाता है। विभिन्न प्रदेशों के पोशाक पहने लोगों के बीच हो रहे इस झगड़े के दृश्यांकन से शांताराम ये संदेश दे रहे थे कि किस तरह भूमि के टुकड़े को लेकर भारत के लोग आपस में लड़ रहे हैं। झगड़े के बीच उन्होंने भारत माता को दुखी दिखाया था। भारत माता को दुखी देखकर सब फिर से एक होने लगते हैं। जमीन के जिस टुकड़े को लेकर विवाद हो रहा था उसको नक्शे पर सही जगह लगा दिया जाचा है। सब प्रसन्नतापूर्व डांस करने लगते हैं। सब एक हो जाते हैं। शांताराम इस नृत्य के माध्यम से ये संदेश देना चाहते थे कि जमीन के टुकड़े को लेकर आपस में लड़ाई झगड़ा अच्छी बात नहीं है। इससे न केवल भारत माता को दुख पहुंचता है बल्कि देश की एकता कमजोर होती है। शांताराम ने इस नृत्य सीक्वेंस में भारत के नक्शे को लेकर जिस तरह का दृश्यांकन किया गया था, उनके मन में ये आशंका पैदा हो गई थी कि फिल्म पर पाबंदी लग सकती है। मोरार जी देसाई की मदद से फिल्म सेंसर से पास हो गई।
शांताराम की मुश्किल खत्म नहीं हुई थी। उस समय की प्रमुख पत्रिका फिल्मइंडिया के सपादक बाबूराव पटेल शांताराम की फिल्म के विरोध में थे। उन्होंने सभी राज्य सरकारों को पत्र लिखकर फिल्म पर पाबंदी लगाने की मांग की। उनके पत्र के बाद कई राज्य सरकारों ने रिलीज के पहले शांताराम से फिल्म की एक कापी मांगी। शांताराम थोड़े विचलित हुए। लेकिन उनको अपनी कला पर भरोसा था। दिल्ली में इस फिल्म के प्रदर्शन के पहले बाबूराव पटेल के दोस्तों ने इसके विरोध में पोस्टर लगाए थे। लेकिन तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल फिल्म के पक्ष में खड़े हो गए। उन्होंने इसके निर्बाध प्रदर्शन की व्यवस्था कर दी। इन सारे विवाद का फायदा हुआ और फिल्म ने कई जगहों पर सिल्वर जुबली मनाई। 1949 में हिंदी और तमिल में प्रदर्शित इस फिल्म ने देश की एकता और अखंडता को लेकर पूरे देश में एक संदेश दिया था लेकिन अफसोस कि इस देश में भाषा के नाम पर राज्यों का बंटवारा रोका न जा सका।
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