महारानी वेबसीरीज में एक संवाद है, जैसे ही मुझे लगता है कि मैंने बिहार को समझ लिया है, वैसे ही बिहार एक और झटका देता है। हो सकता है शब्दों में कुछ बदलाव हो लेकिन भाव यही है। इस संवाद में बिहार की जगह अगर वहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का नाम लिख दिया जाए तब भी इस संवाद के अर्थ में कोई बदलाव नहीं होता दिखेगा। कुछ दिनों पहले की बात है बिहार में उर्दू अनुवादकों को समारोहपूर्वक नियुक्ति पत्र बांटा जा रहा था। मुख्य सचिव ने अपने उद्बोधन में विभाग को कई सुझाव दिए। बारी आई मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बोलने की। उन्होंने मुख्य सचिव पर तंज कसते हुए कहा कि प्रवचन तो आपने बहुत अच्छा दिया। आप तो 2007 से मेरे साथ थे। 2008 से ही हम उर्दू अनुवादकों की बहाली (नियुक्ति) के लिए कह रहे हैं लेकिन अबतक नहीं हो पाया है। अभी भी पूरा बहाली नहीं हुआ है। जल्दी से सब पता करके काम पूरा करवाइए। पूरा सभागार पहले ठहाकों से और फिर तालियों से गूंज उठा। वेबसीरीज महारानी के पात्र मिश्रा जी की तर्ज पर बिहार के मुख्य सचिव अमीर सुब्हानी भी सोच रहे होंगे कि जैसे ही उनको लगता है कि वो नीतीश कुमार को समझने लगे हैं तो वो एक झटका देते हैं। प्यार से ही सही लेकिन नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्य सचिव को सार्वजनिक तौर पर झटका तो दे ही दिया।
ठहाकों और तालियों के बीच एक महत्वपूर्ण बात दब सी गई वो ये कि ये समारोह उर्दू के अनुवादकों को नियुक्ति पत्र देने का था। जिसमें नीतीश कुमार ने कहा कि वो 2008 में जिसकी घोषणा की गई थी उसको चौदह साल बाद भी पूरी तरह से संपन्न नहीं किया जा सका। उर्दू को लेकर नीतीश कुमार की चिंता की प्रशंसा की जानी चाहिए। यह अपेक्षा की जाती है कि किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री या उनके अधीन कार्य करनेवाले मंत्रालय या विभाग किसी भी भाषा के साथ भेदभाव नहीं करेंगे। संविधान भी यही कहता है। लेकिन क्या बिहार सरकार इस अपेक्षा को पूरा कर रही है। नीतीश कुमार ने जब तेजस्वी यादव के साथ मिलकर सरकार बनाई तो महागठबंधन की सरकार ने बिहार की दो और स्थानीय भाषाओं के लिए अकादमियां खोलने की घोषणा की। मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में हुई बैठक में निर्णय लिया गया कि वैशाली के आसपास के जिले में बोली जानेवाली बज्जिका और सीमांचल में बोली जानेवाली सुरजापुरी को संरक्षित और समृद्ध करने के लिए दो नई अकादमियों का गठन किया जाएगा। ये घोषणा स्वागतयोग्य है। उर्दू अनुवादकों की नियुक्ति पत्र वितरण समारोह में मुख्यमंत्री स्वयं कह चुके हैं कि उर्दू को लेकर 2008 में जो घोषणाएं की गई थीं वो अबतक धरातल पर नहीं उतर पाई हैं। तो क्या माना जाए कि इन अकादमियों की घोषणाओं को भी पूरा होने में काफी समय लगेगा। ये कब तक हो पाएगा ये तो भविष्य के गर्भ में है।
नीतीश सरकार ने दो नई भाषा अकादमियों की घोषणा की लेकिन जो भाषा और सांस्कृतिक अकादमियां बिहार में पहले से चल रही हैं वो लगभग मृतप्राय हैं। बिहार में पहले से भोजपुरी अकादमी, मगही अकादमी, मैथिली अकादमी और संस्कृत अकादमी अस्तित्व में हैं। पटना के शास्त्री नगर इलाके के सरकारी कर्माचरियों के आवासीय फ्लैट्स में इन सभी अकादमियों का कार्यालय है। इन अकादमियों की हालत इतनी खराब है जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। इनकी आधारभूत जरूरतें पूरी हो सकें, इतनी व्यवस्था भी बिहार सरकार का शिक्षा विभाग नहीं कर पा रहा है। अकादमियों में इतने कम नियमित कर्मचारी हैं कि किसी नए काम के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है। कुछ दिनों पूर्व मगही अकादमी के पूर्व अध्यक्ष और हिंदी के महत्वपूर्ण कवि रामगोपाल रुद्र से संबंधित सामग्री की तलाश में एक मित्र मगही अकादमी पहुंचे थे। कार्यालय में एक कर्मचारी अकेले बैठा था। कुछ सामग्री मिली लेकिन अकादमी कार्यालय बुरी हालत में थी। इनकी हालत देखकर ही किसी के मन में ये प्रश्न भी नहीं उठेगा कि इनकी स्थापना किन उद्देश्यों के लिए की गई थी। ये अकादमियां स्थापना के समय निश्चित किए गए उद्देश्यों की पूर्ति में कितनी सफल रहीं। आंकलन तो उन संस्थानों का हो सकता है जो सक्रिय हों और साधन संपन्न हों। संसाधन की कमी वाले संस्थानों के कार्यों का आकलन लगभग असंभव है। अन्य भाषा अकादमियों की बदहाली के बीच दो नई भाषा अकादमियों की घोषणा का कोई अर्थ नहीं है। दूसरी तरफ उर्दू को लेकर पूरी बिहार सरकार सक्रिय नजर आ रही है। मुख्यमंत्री स्वयं प्रदेश के मुख्य सचिव को सार्वजनिक रूप से सभी बहालियां जल्द करने के लिए कह रहे हैं। क्या अन्य अकादमियां भाषाई सांप्रदायिकता का शिकार हो रही हैं।
समग्रता में बिहार के कला और संस्कृति के परिदृश्य को देखा जाए तो उसको लेकर शासन के स्तर पर एक उदासीनता नजर आती है। भाषा अकादमियों के अलावा शिक्षा विभाग के अंतर्गत बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी और बिहार राष्ट्रभाषा परिषद का संचालन भी होता है। इन दोनों संस्थाओं का बेहद समृद्ध इतिहास रहा है। यहां से अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन हुआ था लेकिन अब उन पुस्तकों का पुनर्प्रकाशन नहीं हो पा रहा है। इन दोनों संस्थाओं का कार्यालय ऐसी जगह पर है जहां से शिक्षा विभाग के उच्चाधिकारी हर दिन गुजरते हैं लेकिन इनकी बदहाली पर किसी की नजर नहीं जाती है या देखकर अनदेखा किया जाता है। अगर ये दोनों संस्थाएं सिर्फ पूर्व प्रकाशित पुस्तकों का प्रकाशन कर दें तो उनकी बिक्री से ही आगे की योजनाओँ पर काम करने लायक धन मिलने की संभावना बन सकती है। संस्कृति विभाग के अंतर्गत बिहार संगीत नाटक अकादमी और बिहार ललित कला अकादमी का संचालन होता है। ये दोनों संस्थाओं में लंबे समय से न तो अध्यक्ष हैं और न ही उपाध्यक्ष। प्रविधान है कि दोनों संस्थाओं में एक अध्यक्ष और दो उपाध्यक्ष को बिहार सरकार नामित करेगी। सचिव का अतिरिक्त प्रभार भी विभाग के अधिकारियों के पास है। ऐसी स्थिति में इन संस्थाओं के क्रियाकलाप लगभग ठप हैं। बिहार में एक और अनूठी घटना हुई। पटना में एक हिंदी भवन बना, लोगों की उम्मीदें जगीं कि वहां हिंदी के प्रोन्नयन को लेकर कार्य हुआ करेंगे। लेकिन पहले वहां एक मैनेजमेंट संस्थान और अब जिलाधिकारी का कार्यालय चल रहा है।
बिहार रचनात्मक रूप से बेहद उर्वर प्रदेश है। पहले भी और अब भी प्रदेश के कई लेखकों की राष्ट्रीय ख्याति रही है। रेणु से लेकर दिनकर तक, रामवृक्ष बेनीपुरी, शिवपूजन सहाय से लेकर उषाकिरण खान तक। वर्तमान में भी कई लेखक रचनात्मक रूप से खूब सक्रिय हैं। इन रचनाकारों और कलाकारों के साथ मिल कर ये भाषा संस्थान प्रदेश के गौरव को और विस्तार दे सकते थे लेकिन अफसोस कि शासन के स्तर पर इनपर ध्यान देनेवाला कोई नहीं है। जिस तरह से उर्दू को लेकर नीतीश सरकार उत्साहित दिखाई देती है और उसके विस्तार के लिए योजनाएं बन रही है, नियुक्तियां हो रही हैं उस अनुपात में सरकार का ध्यान न तो मैथिली, न मगही और न ही भोजपुरी अकादमियों की ओर जा रहा है। अगर इन चार भाषा अकादमियों को कुछ स्थायी कर्मचारी भी मिल जाते तो इनका दैनंदिन कार्य सुचारू रूप से चल पाता। 2015 में पुरस्कार वापसी का जो प्रपंच रचा गया था, उसके कर्ताधर्ता बिहार की ओर आशा भरी नजरों से देख रहे हैं। इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि फिर से विश्व कविता समारोह जैसे किसी आयोजन की रचना हो जाए और कोई अशोक वाजपेयी उसके आयोजन के लिए आगे न आ जाएं। करोड़ों का बजट आवंटन हो और कला संस्कृति के नाम पर मेला लगे।
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