इन दिनों पूरे देश में प्रमुख रूप से दो चर्चा हो रही है। एक बीबीसी की डाक्यूमेंट्री इंडिया, द मोदी क्वेश्चन की और दूसरी शाह रुख खान की फिल्म पठान की। वामपंथी छात्र संगठन बीबीसी की डाक्यूमेंट्री का सार्वजनिक प्रदर्शन करना चाह रहे हैं। इसपर विवाद हो रहे हैं। फिल्म पठान को सफल बताकर उसी ईकोसिस्टम के लोग भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों को घेरने का प्रयास कर रहे हैं। बीबीसी की डाक्यूमेंट्री की आड़ में वो दल भी हमलावर हैं जिनके नेता ऐश्वर्या राय से लेकर क्रिकेट की अधिक चर्चा होने पर पर मीडिया को घेरते रहे हैं। अगर डाक्यूमेंट्री की ही चर्चा करनी थी तो ‘आल दैट ब्रीथ्स’ और ‘द एलिफेंट व्हिस्पर्स’ की चर्चा करते। उनका सार्वजनिक प्रर्दर्शन करते। ये दोनों आस्कर अवार्ड के लिए शार्टलिस्टेड हैं। इसकी चर्चा नहीं करके वामदलों का ईकोसिस्टम एक ऐसी डाक्यूमेंट्री की चर्चा करने में लगा है जिसका रिसर्च तो दोषपूर्ण है ही उसकी मंशा पर भी प्रश्नचिन्ह है। द मोदी क्वेश्चन में गुजरात हिंसा के बहाने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को घेरा जा रहा जिसपर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आ चुका है।
बीबीसी की डाक्यूमेंट्री अंतराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि खराब करने का एक प्रयास है। ऐसा नहीं है कि इस तरह का प्रयास पहली बार हुआ है। पिछले महीने ‘द इकोनामिस्ट’ में एक लेख प्रकाशित हुआ था, द मिथ आफ अ होली काउ। इस लेख में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से गाय और हिंदू राष्ट्र को जोड़कर देखा गया। इस लेख के लेखक ने गिनकर ये बताया कि ऋगवेद में 700 जगहों पर गाय का उल्लेख है लेकिन गोमांस नहीं खाने की बात कहीं नहीं है। ग्रंथों से खोज-खोजकर बताया गया है कि प्राचीन काल में गोमांस खाने का उल्लेख मिलता है। लेख में आर्य समाज को हिंदू फंडामेंटलिस्ट समूह बताया गया है। आर्यसमाजियों ने भारत की हिंदू पहचान को फिर से स्थापित करने के लिए गोरक्षा को औजार बनाया था। वो हिंदू पहचान जो मुस्लिम आक्रांताओं की वजह से धूमिल पड़ गया था। लेख में देश की स्वतंत्रता के लिए भी गोरक्षा के उपयोग का तर्क दिया गया है। इस संदर्भ में गांधी को उद्धृत किया गया है। गांधी गोरक्षा को विश्व को हिदुत्व का तोहफा मानते थे और कहते थे कि हिंदुत्व तबतक रहेगा जबतक गाय की रक्षा करनेवाले हिंदू रहेंगे। कहना न होगा कि लेखक ने गोरक्षा को हिदुंत्व से जोड़कर उसपर राजनीति करनेवालों और घटनाओं को गिनाया। फिर उसको मोदी और मोदी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि से जोड़ा। यहां लेख में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दक्षिण पंथी अर्धसैनिक संगठन तक बता दिया। ये तो एक उदाहरण मात्र है जबकि ऐसे कई लेख ‘द इकोनामिस्ट’ जैसी पत्रिकाएं में प्रकाशित होते रहे हैं। इस तरह के लेखों को आधार बनाकर वामपंथी ईकोसिस्टम छाती कूटने लगता है।
अगले वर्ष देश में लोकसभा चुनाव होने हैं। अभी जिस तरह का माहौल है और चुनावी सर्वे और चुनावी पंडित जो संकेत दे रहे हैं उससे लगता है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी तीसरी बार केंद्र में सरकार बनाएगी। एक तरफ विपक्षी दल यात्राओं आदि के माध्यम से सरकार पर हमलावर हैं तो दूसरी तरफ ईकोसिस्टम को काम पर लगाया गया है। पिछले दिनों कन्नड के लेखक देवनूरु महादेवा की एक पुस्तिका पर नजर पड़ी। इस पुस्तिका का नाम है आरएसएस, द लांग एंड द शार्ट आफ इट। पुस्तिका मूल रूप से कन्नड में लिखी गई है। पुस्तक के बारे में बात करने के पहले जान लेते हैं कि देवनूरु महादेवा कौन हैं। पुस्तिका में ही लिखा है कि इन्होंने 2015 में पुरस्कार वापसी अभियान के दौरान साहित्य अकादमी और पद्मश्री पुरस्कार लौटाने की घोषणा की थी। ये भी बताया गया है कि छात्र जीवन में देवानूरु महादेवा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रभाव में थे। बाद में उनका कई कारणों से मोहभंग हो गया। छोटी सी पुस्तिका की भूमिका रामचंद्र गुहा ने लिखी है और अंत में योगेन्द्र यादव की एक लंबी टिप्पणी भी है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि एक लंबे लेख को पुस्तिका की शक्ल दी गई। कई भाषाओं में इसको अनुदित कर प्रकाशित करवाया गया।
अपनी इस पुस्तिका में देवानूरु महादेवा की स्थापना है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मनुस्मृति के चातुर्वण के आधार पर समाज को बांटकर रखना चाहता है। इस्लाम और ईसाई धर्म का विरोध संघ इस वजह से करता है क्योंकि इन दोनों धर्मों में चतुर्वण का निषेध है। संघ को ये निषेध स्वीकार नहीं । संघ चहता है कि समाज में जाति व्यवस्था बनी रहे। देवानूरु महादेवा अपनी इस स्थापना के लिए गुरुजी गोलवलकर और वीर सावरकर के लेखों और पुस्तकों को उद्धृत करते हैं। उनका दावा है कि झूठ संघ का कुलदेवता है। एक जगह वो सुरुचि प्रकाशन से 1997 में प्रकाशित पुस्तक ‘परम वैभव के पथ पर’ को उद्धृत करते हुए बताते हैं कि उसमें संघ से जुड़े 40 संगठनों का उल्लेख है। फिर कहते हैं कि उस समय ये स्थिति थी तो अब न जाने कितने संगठन इसकी छत्रछाया में पल रहे होंगे। जब किसी चीज को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करना होता है तो तथ्यों के साथ इसी तरह से छेड़छाड़ की जाती है। डा सदानंद दामोदर सप्रे की इस पुस्तक में 31 संगठनों का विवरण है जिसको देवानूरु महादेवा 40 बता रहे हैं। यहां तक कि वो धर्म संसद को भी संघ की संस्था के तौर पर उल्लिखित करते हैं। एक जगह लेखक विरोधी दल के नेता की तरह हर भारतीय को 15 लाख के वादे और करोड़ों को नौकरी आदि का प्रश्न उठाते हैं। लेखक या गुहा और यादव जैसे उनके समर्थकों को ये बताना चाहिए कि उनकी पालिटिक्स क्या है।
अपनी इस पुस्तिका में लेखक चतुर्वण को लेकर भी भ्रमित हैं। वो व्यवसाय आधारित जाति व्यवस्था और जन्म आधारित जाति व्यवस्था का घालमेल करते हुए दोषपूर्ण निष्कर्ष देते हैं। भारत रत्न से सम्मानित लेखक डा पांडुरंग वामन काणे ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक धर्मशास्त्र का इतिहास के पहले खंड में विस्तार से वर्ण पर विचार किया है। काणे ने एक जगह कहा है कि ‘जन्म और व्यवसाय पर आधारित जाति व्यवस्था प्राचीन काल में फारस रोम और जापान में भी प्रचलित थी। किंतु जैसी परंपराएं भारत में चलीं और उनके व्यावहारिक रूप जिस प्रकार भारत में खिले, वे अन्यत्र दुर्लभ थे और यही कारण था कि अन्य देशों में पाई जानावेली व्यवस्था खुल-खिल न सकी और समय के प्रवाह में पड़कर समाप्त हो गई।‘ पता नहीं देवानूरु महादेवा ने कौन सी मनुस्मृति और कौन सा अनुवाद पढ़ा । अगर इसका उल्लेख कर देते तो स्पष्ट होता। मनुस्मृति के कई अंग्रेजी अनुवाद हुए। डा बुहलर के अनुवाद को बेहतर माना जाता है। काणे बुहलर की उस स्थापना का भी निषेध करते हैं जिसमें वो कहते हैं कि मनुस्मृति, मानवधर्मसूत्र का रूपांतर था। काणे मानवधर्मसूत्र को कोरी कल्पना कहते हैं। संभव है कि देवानूरु ने कोई ऐसा ही भ्रामक अनुवाद पढ़कर अपनी राय बना ली हो।
दरअसल अगले वर्ष लोकसभा चुनाव तक कई ऐसी पुस्तकें और पर्चे छपेंगे जिनमें इसी तरह की भ्रामक बातों की ओट में राजनीति की जाएगी। कुछ फिल्में भी आएंगी जिनमें इस तरह के संवाद होंगे जो वर्तमान परिस्थिति में परोक्ष रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और नरेन्द्र मोदी की नीतियों के खिलाफ होंगे। जैसे अभी एक फिल्म आई मिशन मजनू। इसमें एक लंबा संवाद है जिसमें नायक कहता है कि हम इंडिया हैं, नफरत पर नहीं प्यार पर पलते हैं। इसको सुनकर राहुल गांधी की यात्रा के दौरान के उनके बयान याद आते हैं। दरअसल ईकोसिस्टम प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर हमला दिखता है लेकिन असली निशाना नरेन्द्र मोदी हैं।