Translate

Saturday, January 28, 2023

संघ बहाना, मोदी निशाना


इन दिनों पूरे देश में प्रमुख रूप से दो चर्चा हो रही है। एक बीबीसी की डाक्यूमेंट्री इंडिया, द मोदी क्वेश्चन की और दूसरी शाह रुख खान की फिल्म पठान की। वामपंथी छात्र संगठन बीबीसी की डाक्यूमेंट्री का सार्वजनिक प्रदर्शन करना चाह रहे हैं। इसपर विवाद हो रहे हैं। फिल्म पठान को सफल बताकर उसी ईकोसिस्टम के लोग भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों को घेरने का प्रयास कर रहे हैं। बीबीसी की डाक्यूमेंट्री की आड़ में वो दल भी हमलावर हैं जिनके नेता ऐश्वर्या राय से लेकर क्रिकेट की अधिक चर्चा होने पर पर मीडिया को घेरते रहे हैं। अगर डाक्यूमेंट्री की ही चर्चा करनी थी तो ‘आल दैट ब्रीथ्स’ और ‘द एलिफेंट व्हिस्पर्स’ की चर्चा करते। उनका सार्वजनिक प्रर्दर्शन करते। ये दोनों आस्कर अवार्ड के लिए शार्टलिस्टेड हैं। इसकी चर्चा नहीं करके वामदलों का ईकोसिस्टम एक ऐसी डाक्यूमेंट्री की चर्चा करने में लगा है जिसका रिसर्च तो दोषपूर्ण है ही उसकी मंशा पर भी प्रश्नचिन्ह है। द मोदी क्वेश्चन में गुजरात हिंसा के बहाने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को घेरा जा रहा जिसपर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आ चुका है। 

बीबीसी की डाक्यूमेंट्री अंतराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि खराब करने का एक प्रयास है। ऐसा नहीं है कि इस तरह का प्रयास पहली बार हुआ है। पिछले महीने ‘द इकोनामिस्ट’ में एक लेख प्रकाशित हुआ था, द मिथ आफ अ होली काउ। इस लेख में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से गाय और हिंदू राष्ट्र को जोड़कर देखा गया। इस लेख के लेखक ने गिनकर ये बताया कि ऋगवेद में 700 जगहों पर गाय का उल्लेख है लेकिन गोमांस नहीं खाने की बात कहीं नहीं है। ग्रंथों से खोज-खोजकर बताया गया है कि प्राचीन काल में गोमांस खाने का उल्लेख मिलता है। लेख में आर्य समाज को हिंदू फंडामेंटलिस्ट समूह बताया गया है। आर्यसमाजियों ने भारत की हिंदू पहचान को फिर से स्थापित करने के लिए गोरक्षा को औजार बनाया था। वो हिंदू पहचान जो मुस्लिम आक्रांताओं की वजह से धूमिल पड़ गया था। लेख में देश की स्वतंत्रता के लिए भी गोरक्षा के उपयोग का तर्क दिया गया है।  इस संदर्भ में गांधी को उद्धृत किया गया है। गांधी गोरक्षा को विश्व को हिदुत्व का तोहफा मानते थे और कहते थे कि हिंदुत्व तबतक रहेगा जबतक गाय की रक्षा करनेवाले हिंदू रहेंगे। कहना न होगा कि लेखक ने गोरक्षा को हिदुंत्व से जोड़कर उसपर राजनीति करनेवालों और घटनाओं को गिनाया। फिर उसको मोदी और मोदी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि से जोड़ा। यहां लेख में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दक्षिण पंथी अर्धसैनिक संगठन तक बता दिया। ये तो एक उदाहरण मात्र है जबकि ऐसे कई लेख ‘द इकोनामिस्ट’ जैसी पत्रिकाएं में प्रकाशित होते रहे हैं। इस तरह के लेखों को आधार बनाकर वामपंथी ईकोसिस्टम छाती कूटने लगता है। 

अगले वर्ष देश में लोकसभा चुनाव होने हैं। अभी जिस तरह का माहौल है और चुनावी सर्वे और चुनावी पंडित जो संकेत दे रहे हैं उससे लगता है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी तीसरी बार केंद्र में सरकार बनाएगी। एक तरफ विपक्षी दल यात्राओं आदि के माध्यम से सरकार पर हमलावर हैं तो दूसरी तरफ ईकोसिस्टम को काम पर लगाया गया है। पिछले दिनों कन्नड के लेखक देवनूरु महादेवा की एक पुस्तिका पर नजर पड़ी। इस पुस्तिका का नाम है आरएसएस, द लांग एंड द शार्ट आफ इट। पुस्तिका मूल रूप से कन्नड में लिखी गई है। पुस्तक के बारे में बात करने के पहले जान लेते हैं कि देवनूरु महादेवा कौन हैं। पुस्तिका में ही लिखा है कि इन्होंने 2015 में पुरस्कार वापसी अभियान के दौरान साहित्य अकादमी और पद्मश्री पुरस्कार लौटाने की घोषणा की थी। ये भी बताया गया है कि छात्र जीवन में देवानूरु महादेवा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रभाव में थे। बाद में उनका कई कारणों से मोहभंग हो गया। छोटी सी पुस्तिका की भूमिका रामचंद्र गुहा ने लिखी है और अंत में योगेन्द्र यादव की एक लंबी टिप्पणी भी है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि एक लंबे लेख को पुस्तिका की शक्ल दी गई। कई भाषाओं में इसको अनुदित कर प्रकाशित करवाया गया। 

अपनी इस पुस्तिका में देवानूरु महादेवा की स्थापना है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मनुस्मृति के चातुर्वण के आधार पर समाज को बांटकर रखना चाहता है। इस्लाम और ईसाई धर्म का विरोध संघ इस वजह से करता है क्योंकि इन दोनों धर्मों में चतुर्वण का निषेध है। संघ को ये निषेध स्वीकार नहीं । संघ चहता है कि समाज में जाति व्यवस्था बनी रहे। देवानूरु महादेवा अपनी इस स्थापना के लिए गुरुजी गोलवलकर और वीर सावरकर के लेखों और पुस्तकों को उद्धृत करते हैं। उनका दावा है कि झूठ संघ का कुलदेवता है। एक जगह वो सुरुचि प्रकाशन से 1997 में प्रकाशित पुस्तक ‘परम वैभव के पथ पर’ को उद्धृत करते हुए बताते हैं कि उसमें संघ से जुड़े 40 संगठनों का उल्लेख है। फिर कहते हैं कि उस समय ये स्थिति थी तो अब न जाने कितने संगठन इसकी छत्रछाया में पल रहे होंगे। जब किसी चीज को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करना होता है तो तथ्यों के साथ इसी तरह से छेड़छाड़ की जाती है। डा सदानंद दामोदर सप्रे की इस पुस्तक में 31 संगठनों का विवरण है जिसको देवानूरु महादेवा 40 बता रहे हैं। यहां तक कि वो धर्म संसद को भी संघ की संस्था के तौर पर उल्लिखित करते हैं। एक जगह लेखक विरोधी दल के नेता की तरह हर भारतीय को 15 लाख के वादे और करोड़ों को नौकरी आदि का प्रश्न उठाते हैं। लेखक या गुहा और यादव जैसे उनके समर्थकों को ये बताना चाहिए कि उनकी पालिटिक्स क्या है।  

अपनी इस पुस्तिका में लेखक चतुर्वण को लेकर भी भ्रमित हैं। वो व्यवसाय आधारित जाति व्यवस्था और जन्म आधारित जाति व्यवस्था का घालमेल करते हुए दोषपूर्ण निष्कर्ष देते हैं। भारत रत्न से सम्मानित लेखक डा पांडुरंग वामन काणे ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक धर्मशास्त्र का इतिहास के पहले खंड में विस्तार से वर्ण पर विचार किया है। काणे ने एक जगह कहा है कि ‘जन्म और व्यवसाय पर आधारित जाति व्यवस्था प्राचीन काल में फारस रोम और जापान में भी प्रचलित थी। किंतु जैसी परंपराएं भारत में चलीं और उनके व्यावहारिक रूप जिस प्रकार भारत में खिले, वे अन्यत्र दुर्लभ थे और यही कारण था कि अन्य देशों में पाई जानावेली व्यवस्था खुल-खिल न सकी और समय के प्रवाह में पड़कर समाप्त हो गई।‘ पता नहीं देवानूरु महादेवा ने कौन सी मनुस्मृति और कौन सा अनुवाद पढ़ा । अगर इसका उल्लेख कर देते तो स्पष्ट होता। मनुस्मृति के कई अंग्रेजी अनुवाद हुए। डा बुहलर के अनुवाद को बेहतर माना जाता है। काणे बुहलर की उस स्थापना का भी निषेध करते हैं जिसमें वो कहते हैं कि मनुस्मृति, मानवधर्मसूत्र का रूपांतर था। काणे मानवधर्मसूत्र को कोरी कल्पना कहते हैं। संभव है कि देवानूरु ने कोई ऐसा ही भ्रामक अनुवाद पढ़कर अपनी राय बना ली हो। 

दरअसल अगले वर्ष लोकसभा चुनाव तक कई ऐसी पुस्तकें और पर्चे छपेंगे जिनमें इसी तरह की भ्रामक बातों की ओट में राजनीति की जाएगी। कुछ फिल्में भी आएंगी जिनमें इस तरह के संवाद होंगे जो वर्तमान परिस्थिति में परोक्ष रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और नरेन्द्र मोदी की नीतियों के खिलाफ होंगे। जैसे अभी एक फिल्म आई मिशन मजनू। इसमें एक लंबा संवाद है जिसमें नायक कहता है कि हम इंडिया हैं, नफरत पर नहीं प्यार पर पलते हैं। इसको सुनकर राहुल गांधी की यात्रा के दौरान के उनके बयान याद आते हैं। दरअसल ईकोसिस्टम प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर हमला दिखता है लेकिन असली निशाना नरेन्द्र मोदी हैं।  


Saturday, January 21, 2023

पीएम की नसीहत के बाद बोलती बंद


भारतीय जनता पार्टी की दिल्ली में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक चल रही थी। बैठक के दूसरे दिन पार्टी के अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का कार्यकाल अगले वर्ष जून तक के लिए बढ़ाया जा चुका था। हर तरफ राजनीतिक बातें हो रही थीं। इस वर्ष नौ राज्यों में होनेवाले विधानसभा चुनाव की संभावनाओं पर कार्यकारिणी के सदस्य आपस में चर्चा कर रहे थे। बैठक समापन की ओर था। सबको प्रधानमंत्री के भाषण की प्रतीक्षा थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बोलने के लिए खड़े हुए। उन्होंने चिरपरिचित अंदाज में उन्होंने अपना भाषण आरंभ किया। राष्ट्र और राजनीति की बातें करते हुए उन्होंने सबको साथ लेकर चलने की बातें की। अचानक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सिनेमा से जुड़ा एक बड़ा संदेश दे दिया। प्रधानमंत्री ने अपने दल के नेताओं को कहा कि प्रतिदिन सिनेमा पर बोलने की आवश्यकता नहीं है। प्रधानमंत्री ने उन नेताओं को भी नसाहत दी जो हर दिन फिल्मों या फिल्मों से जुड़े मसलों पर विवाद खड़े करनेवाले बयान देते रहते हैं। फिल्म पर अपनी बात कहने के बाद प्रधानमंत्री अन्य मुद्दों पर चले गए। प्रधानमंत्री का संदेश ये था कि नेताओं को हर चीज के प्रति संवेदनशील होना चाहिए और आवश्कता पड़ने पर गंभीरता के साथ अपनी बात कहनी चाहिए। प्रधानमंत्री का भाषण समाप्त हुआ। कार्यकारिणी की बैठक भी समाप्त हुई। खबरों में प्रधानमंत्री के भाषण के अन्य बिंदुओं पर जमकर चर्चा हुई। सामाजिक समरसता से लेकर बुद्धिजीवियों तक से पार्टी के नेताओं को संपर्क बढ़ाने की बात पर काफी चर्चा हुई। सिनेमा पर विवादित बयान देनेवाले अपनी पार्टी के नेताओं को दी गई उनकी नसीहत पर अपेक्षाकृत कम चर्चा हुई। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े कम लोगों का ही ध्यान प्रधानमंत्री के सिनेमा पर दिए गए बयान पर गया। हलांकि हिंदी फिल्म से जुड़े बड़े सितारों को राजनीतिक बातों पर प्रतिक्रिया देने में काफी वक्त लगता है।  

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस बयान के बाद मध्यप्रदेश के मंत्री नरोत्तम मिश्रा का एक बयान जागरण समूह के समाचारपत्र नईदुनिया/नवदुनिया में प्रकाशित हुआ है। प्रकाशित बयान के मुताबिक नरोत्तम मिश्रा ने कहा कि ‘प्रधानमंत्री ने किसी का नाम नहीं लिया है। प्रधानमंत्री की हर बात हमारे लिए शिरोधार्य है। सारे कार्यकर्ता वहां से प्रेरणा लेकर आए हैं। हमारा आचरण और व्यवहार हमेशा उनके मार्गदर्शन में उर्जा से भरते हैं।‘ नरोत्तम मिश्रा भारतीय जनता पार्टी के उन नेताओं में से हैं जो फिल्मों या वेब सीरीज पर लगातार बयान देते रहते हैं। मध्यप्रदेश के गृहमंत्री होने के कारण कई बार उन्होंने आपत्तिजनक माने जानेवाले दृष्यों को लेकर सिर्फ बयान ही नहीं दिए बल्कि सख्त कदम उठाने की बात भी की थी। अब उनका ये कहना कि नेतृत्व का आदेश शिरोधार्य होगा, इस बात का संकेत दे रहा है कि प्रधानमंत्री का फिल्मों को लेकर दी गई नसीहत का उनकी पार्टी के बयानवीर नेताओं पर असर हुआ है। दरअसल इंटरनेट मीडिया पर शाह रुख खान की फिल्म पठान के बेशर्म रंग गाने के रिलीज होने के बाद उसके बायकाट को लेकर चर्चा हो रही है। पक्ष विपक्ष में ट्वीट हो रहे हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री का सिनेमा पर हर दिन बयानबाजी से बचने की सलाह महत्वपूर्ण हो जाती है।

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ फिल्म से जुड़े लोगों की बैठक में अभिनेता सुनील शेट्टी ने योगी जी से फिल्मों के बायकाट की मुहिम को लेकर अपनी बात रखी थी। उन्होंने तब ये भी आग्रह किया था कि वो इंडस्ट्री की भावना को प्रधानमंत्री तक पहुंचा दें। योगी जी ने ये बात प्रधानमंत्री तक पहुंचाई या नहीं ये तो नहीं मालूम लेकिन प्रधानमंत्री ने जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक में सिनेमा को लेकर अपनी बात कही उससे लगता है कि प्रधानमंत्री का सूचना तंत्र बेहद सक्रिय है। उनतक हर छोटी बड़ी बात पहुंचती है। फिल्मों की बायकाट की अपील का मसला पिछले कुछ दिनों से काफी बढ़ा है। कई बार ये स्वत:स्फूर्त होता है तो कई बार अभियान चलाया जाता है। कई बार फिल्म के कलाकारों के व्यवहार के कारण दर्शक खिन्न हो जाते हैं और इंटरनेट मीडिया पर उसके खिलाफ अपनी बात कहते लिखते हैं। कई बार अभिनेता, अभिनेत्री या निर्देशक के राजनीतिक बयानों का असर भी फिल्म पर पड़ता है। उनके बयानों से नाराज होकर राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता अपना विरोध जताने के लिए उनकी फिल्म का विरोध करते हैं। इसमें कोई गलत बात नहीं है। जब तक विरोध शांतिपूर्ण ढंग से होता है तबतक किसी को इसपर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। आप नरेन्द्र मोदी का विरोध भी करेंगे, आप विरोधी दलों के लिए प्रचार भी करेंगे और ये अपेक्षा करेंगे कि मोदी के समर्थक या भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता आपकी फिल्म भी देखें। अब ऐसा संभव नहीं दिखता। अब अगर कोई अभिनेत्री जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आंदोलनकारी छात्रों के साथ जाकर खड़ी होती है तो उसका असर उसकी फिल्म के कारोबार पर पड़ता है। हिंदी फिल्म के कर्ताधर्ताओं को ये बात समझनी होगी। कलाकारों को अगर राजनीति करनी है तो राजनीति के मैदान में आना चाहिए। अब अगर कोई फिल्मकार अपनी फिल्म में राजनीतिक संदेश देता है और अपेक्षा करता है कि उस राजनीतिक संदेश का असर जिस समूह पर पड़ेगा वो उसकी फिल्म देखे तो यह अपेक्षा व्यर्थ है। अब जनता जागरूक हो गई है। वो अपनी पसंद और नापसंद को खुलकर व्यक्त भी करती है। खैर ये अलग मुद्दा है।

बात हो रही थी प्रधानमंत्री के पार्टी नेताओं को दिए गए संदेश और उसके असर की । ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री ने पहली बार इस तरह से सार्वजनिक रूप से अपनी पार्टी के नेताओं को नसीहत दी है। इसके पहले भी पार्टी की संसदीय दल की बैठक में प्रधानमंत्री ने मध्यप्रदेश के नेता कैलाश विजयवर्गीय का नाम लिए बगैर बेहद कठोर टिप्पणी की थी। दरअसल हुआ ये था कि इंदौर नगर निगम के किसी कर्मचारी को बैट से पीटते हुए कैलाश विजयवनर्गीय के पुत्र आकाश का वीडियो इंटरनेट मीडिया पर प्रचलित हो गया था। उसके बाद संसदीय दल की एक बैठक में प्रधानमंत्री ने कहा था कि बेटा किसी का भी ऐसा व्यवहार बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। तब प्रधानमंत्री ने पार्टी की मर्यादा की भी याद दिलाई थी और कहा था कि ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जो पार्टी की प्रतिष्ठा को कम करे। अगर कोई गलत काम करता है तो उसपर कार्रवाई होनी चाहिए। प्रधानमंत्री की उस नसीहत का असर कैलाश विजयवर्गीय और उनके बेटे आकाश विजयवर्गीय पर दिखा। प्रधानमंत्री मोदी का संदेश देने का ये तरीका एक और बैठक में दिखा था। जब उन्होंने अपनी पार्टी के उन बयानवीर नेताओं को चेतावनी दी थी जो हर दिन सुबह टीवी चैनलों के कैमरे पर अपने घर के सामने खड़े होकर किसी भी समस्या पर बयान दे देते थे। छापस रोग से ग्रस्त पार्टी के नेताओं का इलाज उनके एक बयान हो गया था।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का काम करने का अपना तरीका है। वो संचार की उस शैली को अपनाते हैं जिसमें संप्रेषण के साथ असर भी हो। इस बात को लगातार कहा जाता है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने कोई प्रेस कांफ्रेंस नहीं की। प्रधानमंत्री मोदी ने भले ही कोई प्रेस कांफ्रेंस नहीं की लेकिन जिस तरह से उन्होंने जनता और दुनिया से संवाद बनाए रखने के लिए इंटरनेट मीडिया का प्रयोग किया है वो उल्लेखनीय है। संचार का मुख्य उद्देश्य यही होता है कि बात सही व्यक्ति तक पहुंच जाए। प्रधानमंत्री मोदी ने भी पारंपरिक संचार शैली से अलग हटकर अपनी शैली विकसित की है। इस शैली को इंटरनेट मीडिया पर तो देखा ही जा सकता है, उनके वकतव्यों में भी रेखांकित किया जा सकता है। तीन उदाहरण तो ऊपर ही दिए गए हैं।

Saturday, January 14, 2023

सांस्कृतिक धरोहरों की उपेक्षा


कुछ समय पूर्व ओडिशा स्थित कोणार्क के सूर्य मंदिर जाने का अवसर प्राप्त हुआ। सूर्य मंदिर परिसर के प्रवेश द्वार से विशाल मंदिर बेहद भव्य लग रहा था। परिसर में अंदर जाते ही एक शिलालेख पर इस मंदिर के बारे में जानकारी दिखी। स्थापत्य कला की इस अनुपम कृति का निर्माण 1250 ईसवी में गंग राजा नरसिंहदेव प्रथम के राज्यकाल में सूर्य प्रतिमा की स्थपना के लिए किया गया था। इस संपूर्ण स्थापत्य को एक विशाल रथ के रूप में अनुकृत किया गया था। इस कृति में बारह जोड़ी अंलकृत पहिए लगे हुए हैं और उसे सात घोड़े खींच रहे हैं। शिलालेख के मुताबिक यह मंदिर ओडिशा के स्थापत्य कला के चरमोत्कर्ष का उत्कृष्ट उदाहरण है। इस मंदिर का गर्भगृह और नाट्य मंदिर भग्न रूप में हैं, जबकि जगमोहन सुरक्षित स्थिति में है। मंदिर की भित्तियों पर दैवीय मानव , पेड़, पौधों और जीव जंतुओं के साथ साथ ज्यामितीय अलंकरण बहुतायत में हैं। कन्याओं, नर्तकियों और वादकों की शारीरिक संरचना, अलंकरण एवं भाव भंगिमाएं विशेष दर्शनीय हैं। 

शिलालेख को पढ़ने के बाद मंदिर को पास से देखने की उत्सुकता और बढ़ गई। शिलालेख के विवरण को पढ़कर जो छवि बनी थी उसके साक्षात अवलोकन के लिए मंदिर के पास पहुंचा। मुख्य मंदिर की तरफ जाने के लिए सामने की तरफ से सीढ़ियां बनी हुई हैं। उन सीढ़ियों के पहले भी एक प्रवेश द्वार है। वहां विशाल शिलाओं से बनी हाथी की आकृति है। अचानक मेरी नजर एक तरफ के हाथी की आकृति वाले शिला पर पड़ी तो तो उसके एक पांव पर सीमेंट और बालू का लेप लगा दिखा। पास जाने पर ऐसा प्रतीत हुआ कि मूर्ति में आई दरार को पाटने के लिए उसको सीमेंट और बालू से भर दिया गया था। ये भी लग रहा था कि इसके ऊपर सीमेंट का घोल डाल दिया गया है। हाथी पर घोले हुए सीमेंट के निशान स्पष्ट दिख रहे थे। ये निशान उस कलाकृति को भद्दा बना रहे थे। मंदिर के चारो तरफ घूमने और सूर्य मंदिर में पत्थर पर उकेरी गई कलाकृतियों को देखकर मंदिर की स्थापत्य कला से बेहद प्रभानित हुआ अपने देश की मंदिर निर्माण कला के बारे में जानना और उसको प्रत्यक्ष देखना अविस्मरणीय था। 

कोणार्क का ये सूर्य मंदिर यूनेस्को की विश्व धरोहर की सूची में शामिल है। इसकी देखरेख की जिम्मेदारी आर्कियोलाजी सर्वे आफ इंडिया (एएसआई) पर है। इस संगठन का काम ही सांस्कृतिक धरोहरों के संरक्षण का है। यह संस्था भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत कार्य करती है। इतने उत्कृष्ट कला के संरक्षण में इतनी लापरवाही हो रही है कि किसी कलाकृति की दरार को बेहद भद्दे तरीके भर दिया जा रहा है। दरार को पाटने वाली सामग्री के घोल को उसपर उड़ेल देना जिससे उसकी खूबसूरती नष्ट हो जा रही हो। प्रश्न उठता है कि एएसआई कोणार्क के सूर्य मंदिर के संरक्षण को लेकर इतनी लापरवाह क्यों है। क्या इन संरक्षित धरोहरों का रखरखाव विशेषज्ञों की देख-रेख में नहीं होता है। क्या इन सांस्कृतिक धरोहरों के रखरखाव का कोई वार्षिक आडिट नहीं होता है। करीब डेढ़ वर्ष पहले कुछ ऐसा ही अनुभव त्रिपुरा के उनकोटि परिसर में जाकर भी हुआ था। अगरतला से करीब पौने दो सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित उनकोटि में पत्थर पर उकेरी गई बेहतरीन कलाकृतियां हैं। इस परिसर में करीब तीस फीट के ‘उनकोटेश्वर कालभैरव’ की पत्थर की मूर्ति है। इस मूर्ति का मुकुट करीब दस फीट के पत्थर पर बना है जिसपर अद्भुत कलाकारी है। उनके आसपास दो देवियों के चित्र पत्थर पर उकेरे हुए हैं। पास ही में नंदी की पत्थर की दो मूर्तियां हैं। काल भैरव की मूर्ति की दूसरी तरफ एक विशाल शिला पर गणेश जी की मूर्ति बनी हुई है जिसके दोनों तरफ हाथी की मुखाकृति वाले चित्र उकेरे हुए हैं। उनकोटि परिसर के देखभाल का दायित्व भी एएसआई पर है। वहां भी उन मूर्तियों के संरक्षण के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं दिखा था। कुछ मूर्तियां भले ही एक कमरे में बंद कर दी गई हैं लेकिन हजारों मूर्तियां ऐसे रखी हुई हैं और लोग उसपर चढ़कर आते जाते हैं। एक जगह तो एक मूर्ति पर कपड़े धोए जा रहे थे। इस स्तंभ में विस्तार से इसपर चर्चा हो चुकी है। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वाधीनता के अमृत महोत्सव में लाल किले की प्राचीर से पांच प्रण की घोषणा करते हुए विरासत पर गर्व की बात करते हैं। अपने उसी गर्व को सहेजने के लिए प्रधानमंत्री की पहल पर काशी विश्वनाथ मंदिर का नव्य स्वरूप, उज्जैन का महाकाल लोक का भव्य परिसर का निर्माण हुआ। अयोध्या में भव्य राममंदिर का निर्माण हो रहा है। इसके पहले केदारनाथ धाम से लेकर गुजरात के मंदिरों की पौराणिकता को भव्यता के साथ सहेजा गया। इसको देश में सांस्कृतिक पुनरुत्थान के तौर पर देखा जा रहा है। विरासत पर गर्व करने के लिए यह बेहद आवश्यक है कि हम अपनी विरासत को संरक्षित करें। संस्कृति मंत्रालय के अधीन आनेवाली संस्था एएसआई की अपनी विरासत को सहेजने में लापरवाही और उदासीनता दिखाई देती है। संसद के पिछले सत्र में 13 दिसंबर 2022 को राज्यसभा में संस्कृति मंत्रालय की स्टैंडिंग कमेटी ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत की। संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध संसद की इस समिति ने अपनी रिपोर्ट संख्या 330 में एएसआई के कामकाज को लेकर गंभीर प्रश्न उठाए हैं। रिपोर्ट में समिति ने मंत्रालय/एएसआई में धनराशि के उपयोग को लेकर बेहद कठोर टिप्पणी की है। समिति के मुताबिक मंत्रालय ने अपने उत्तर में इस बात का उल्लेख नहीं किया है कि एएसआई को जो धनराशि आवंटित की गई थी उसका आगे आवंटन और उपयोग किस तरह से किया गया। इसके अलावा एएसआई में खाली पदों को भरने में हो रहे बिलंब पर भी समिति ने टिप्पणियां की है। संस्कृति मंत्रालय के विभिन्न संस्थानों में खाली पदों की स्थिति को रेखांकित करते हुए स्थिति को बेहद दयनीय बताया। समिति की रिपोर्ट में बताया गया है कि एएसआई के आर्कियोलाजी काडर में 420 पद स्वीकृत हैं जिसमें से 166 पद खाली हैं। संरक्षण काडर में कुल स्वीकृत पद 918 हैं दिनमें से 452 पद खाली हैं। समिति की इन टिप्पणियों पर संस्कृति मंत्रालय ने सफाई दी लेकिन समिति मंत्रालय के उत्तर से संतुष्ट नहीं हो सकी। उसने अपना असंतोष रिपोर्ट में दर्ज भी कर दिया। संस्कृति मंत्रालय के कामकाज को लेकर संसदीय समिति की इस रिपोर्ट में इस बात पर नाराजगी जताई गई है कि करीब पचास फीसद पद कैसे खाली हैं। क्या मंत्रालय या एएसआई इस बात का आकलन नहीं कर सकी कि भविष्य में कितने पद खाली होनेवाले हैं। समय रहते अगर ऐआसा हो जाता तो ये स्थिति नहीं बनती।

संस्कृति मंत्रालय में ऐसी स्थिति क्यों बनती हैं कि उससे संबद्ध कई संस्थाएं वर्षों से तदर्थ तरीके से चल रही हैं। भारतीय जनता पार्टी से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक देश की संस्कृति और सांस्कृतिक विरासत को लेकर संवेदनशील हैं, बावजूद इसके संस्कृति अगर मंत्रालयों की प्राथमिकता में नहीं आ रही है तो इसके कारणों पर विचार करने की आवश्यकता है। क्या नौकरशाही संस्कृति को लेकर संवेदनशील नहीं है। संस्कृति और उसके संरक्षण के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों और अधिकारियों का विशेष तौर पर प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। आवश्यक है कि संस्कृति मंत्रालय के मंत्रियों का कला, संस्कृति और संरक्षण में रुचि लेकर उसके प्रति संवदेशनशील होना। कलाकारों और उनके हुनर का सम्मान करना। इस स्तंभ में कई बार इस बात की चर्चा की गई है कि संस्कृति को सरकार की प्राथमिकता में लाने के लिए देश में एक समग्र सांस्कृतिक नीति की आवश्यकता है।एक ऐसी नीति जिसमें संस्कृति, सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण और आयोजनों के बीच सामंजस्य हो।  


Saturday, January 7, 2023

अनियमितताओं के भंवर में अकादमी


भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध एक स्वायत्त संस्था है, ललित कला अकादमी। इस संस्था का मुख्यालय नई दिल्ली में है। देशभर में इस संस्था के कई क्षेत्रीय केंद्र हैं। इसकी स्थापना 1954 में हुई थी। इसकी परिकल्पना राष्ट्रीय कला अकादमी के रूप में की गई थी। अकादमी के गठन का उद्देश्य सृजनात्मक दृश्य कलाओं के क्षेत्र में क्रियाकलापों को प्रोत्साहित और समन्वित करते हुए देश की सांस्कृतिक एकता का प्रोन्नयन करना है। अपने स्थापना के बाद के दशकों में ललित कला अकादमी ने काफी महत्वपूर्ण कार्य किया। अकादमी के संग्रह में कई अनमोल कलाकृतियां हैं। पिछले करीब तीन दशक से ललित कला अकादमी विवादों में घिरी रही है। कभी उसके संग्रह की कलाकृतियों के गायब होने की खबर आती रही तो कभी उचित रखरखाव के आभाव में कलाकृतियों के खराब होने की। नई दिल्ली के गढ़ी केंद्र में अवैध कब्जे के समाचार भी आए थे। इसके पूर्व अध्यक्ष और हिंदी के कवि अशोक वाजपेयी पर सीबीआई की जांच भी हुई थी या हो रही है। इस जांच का निष्कर्ष क्या रहा ये सार्वजनिक नहीं हो पाया है। अकादमी के सचिव रहे सुधाकर शर्मा भी विवाद में घिरे थे। अशोक वाजपेयी के कार्यकाल में पहले हटाए गए फिर बहाल किए गए। अशोक वाजपेयी के बाद के के चक्रवर्ती को ललित कला अकादमी का अध्यक्ष बनाया गया था। इनका कार्यकाल भी बेहद विवादित रहा। विवाद इतना बढ़ा था कि मंत्रालय ने इनको बर्खास्त करके ललित कला अकादमी को अपने अधीन कर लिया था। उसके बाद मंत्रालय ने कृष्णा शेट्टी को ललित कला अकादमी का प्रशासक नियुक्त किया था। फिर मंत्रालय के संयुक्त सचिव प्रोटेम चेयरमैन बनाए गए। प्रोटेम चेयरमैन बनाए जाने को लेकर भी विवाद हुआ था। 

इन विवादों के बीच महाराष्ट्र के उत्तम पचारणे को ललित कला अकादमी का चेयरमैन नियुक्त किया गया। उनकी नियुक्ति और उनके कार्यकाल में वित्तीय गड़बड़ियों को लेकर विवाद उठा और पूरा मामला अदालत तक गया। जो अभी विचाराधीन है। इस बीच उत्तम पचारणे का कार्यकाल समाप्त हो गया। उनको छह महीने का सेवा विस्तार मिला था ताकि नए अद्यक्ष का चययन हो सके। लेकिन ऐसा नहीं हो सका तो संस्कृति मंत्रालय की संयुक्त सचिव उमा नंदूरी को मंत्रालय ने ललित कला अकादमी की चेयरमैन का कार्यभार सौंप दिया। अकादमी की इस पृष्ठभूमि का बताने का आशय सिर्फ इतना है कि भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध इस संस्था में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। उपरोक्त सारी बातें तो मीडिया में आईं थीं लेकिन अभी कुछ दिनों पहले भारत सरकार के लेखा परीक्षा के महानिदेशक कार्यालय ने ललित कला अकादमी की आडिट की थी। 14 अक्तूबर 2022 को ओबीएस 446867 के अंतर्गत लेखा परीक्षकों ने जो रिपोर्ट दी उसमें भारी वित्तीय और प्रशासनिक अनियमितता की बात सामने आई है। 

लेखा परीक्षक ने अपने आडिट रिपोर्ट में वाहन किराए पर लेने की प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए कहा कि बगैर किसी टेंडर के गाड़ियों को किराए पर लिया जाता रहा। जबकि नियमानुसार बगैर टेंडर के अकादमी वाहन किराए पर नहीं ले सकती है। कोविड के समय भी स्टाफ को लाने और छोड़ने के लिए जिन गाड़ियों को किराए पर लिया गया उसमें भी आडिट रिपोर्ट में खामियां पाई गई हैं। संस्कृति राज्य मंत्री के नाम पर ललित कला अकादमी ने एक गाड़ी किराए पर ली जिसका प्रतिमाह किराया 52 से 55 हजार रुपए भुगतान किया गया। लेखा परीक्षक के मुताबिक ये नियम विरुद्ध है। इस मद में अकादमी ने साढे छह लाख रुपए खर्च किए हैं। रिपोर्ट में इसको अविलंब रोकने की सलाह दी गई है। गाड़ियों के अलावा बिजली बिल के भुगतान में भी अनियमितता पाई गई है। लेखा परीक्षक की रिपोर्ट में जो सबसे बड़ी खामी पाई गई है वो ये है कि अकादमी ने सांस्कृतिक संस्थाओं को बगैर उपयोग प्रमाण पत्र के आर्थिक सहयोग दिया। नियम के मुताबिक जब किसी सांस्कृतिक संस्था को किसी प्रकार की आर्थिक मदद दी जाती है तो उसको अकादमी में उस धनराशि के उपयोग का प्रमाण पत्र जमा करना होता है । उसके बाद ही उसको फिर से आर्थिक सहायता दी जाती है लेकिन इस नियम की धज्जियां उड़ा दी गई। करीब 25 करोड़ की धनराशि का उपयोग प्रमाण पत्र अकादमी के रिकार्ड में नहीं है। 

वित्तीय अनियमितताओं की कहानी यही नहीं रुकती है। अकादमी अपने कर्मचारियों को किसी कार्य के लिए अग्रिम धनराशि देती है। नियम है कि बगैर इस राशि का हिसाब दिए दूसरी बार किसी को अग्रिम धनराशि नहीं दी जा सकती है। लेकिन अकादमी में 31.3.2022 तक 133 केस पेंडिंग है जिसका हिसाब नहीं दिया गया था। लेखा परीक्षकों ने इसपर प्रश्न उठाए हैं। पूर्व अध्यक्ष उत्तम पचारणे से लेकर क्षेत्रीय सचिवों और कई कर्मचारियों के नाम भी अग्रिम धनराशि पेंडिंग है जिसका हिसाब नहीं दिया गया है। लेखा परीक्षकों की इस रिपोर्ट में गड़बड़ियों की लंबी फेहरिश्त है जिसमें लैपटाप खरीद में गड़बड़ी, वकीलों की फीस में अनियमितता, बिना किसी अनुमति के मुख्यालय और गढ़ी केंद्र पर 173 सुरक्षा गार्डों को काम पर रखना, 12 लाख से अधिक के ओवरटाइम में गड़बड़ी, नियम विरुद्ध नियुक्तियां और वेतन निर्धारण, विज्ञापन पर एक करोड़ से अधिक खर्च आदि आदि। एक बड़ा ही गंभीर मसला इस रिपोर्ट में है। इस वक्त ललित कला अकादमी के प्रभारी सचिव रामकृष्ण वेडाला हैं। रिपोर्ट में है कि 2019 में ये बगैर मंत्रालय की अनुमति के मैक्सिको की यात्रा पर गए। जबकि मंत्रालय ने अकादमी को पत्र लिखकर निर्देश दिया था कि सक्षम प्राधिकारी की अनुमति के बगैर वो विदेश नहीं जाएं। लेकिन ललित कला अकादमी के प्रभारी सचिव ने भारत सरकार के दिशा निर्देश की अनदेखी की। इसका संज्ञान भी मंत्रालय को लेना चाहिए। अकादमी के स्टाक पर भी लेखा परीक्षकों ने गंभीर प्रश्न खड़े किए हैं।

केंद्रीय व्यय के महानिदेशक लेखा परीक्षक कार्यालय ने ललित कला अकादमी के क्रियाकलापों में जो अनियमितताएं पाईं है वो बेहद गंभीर हैं। संस्कृति मंत्रालय को इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। साहित्य, कला और संगीत के क्षेत्र में कार्य कर रही संस्थाओं को स्वायत्ता दी जानी चाहिए लेकिन जब करदाताओं के पैसे का अपव्यय सामने आए या उसका दुरुपयोग दिखे तो सरकार को तत्काल हस्तक्षेप करना चाहिए। इस वक्त अकादमी के अध्यक्ष का कार्यभार संभाल रहीं संस्कृति मंत्रालय की संयुक्त सचिव उमा नंदूरी से ये अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि लेखा परीक्षकों की रिपोर्ट में जिन अनियमितता और गड़बड़ियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है उनपर कार्रवाई करेंगी। बगैर उपयोग प्रमाण पत्र के आर्थिक मदद का हिसाब किताब लिया जाएगा। इन गड़बड़ियों के लिए जिम्मेदार कर्मचारियों के खिलाफ भी नियमानुसार दंडात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए। 

संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध संस्थाओं में नियुक्ति की प्रक्रिया भी तेज करनी होगी। कई महीनों से ललित कला अकादमी में अध्यक्ष और सचिव का पद खाली है। इसको अविलंब भरने की आवश्यकता है। दरअसल इन संस्थाओं के नियमित चेयरमैन, सचिव या निदेशक के नहीं होने के कारण वहां अराजकता का माहौल बन जाता है। ललित कला अकादमी के अलावा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में नियमित निदेशक नहीं होने की वजह से अराजकता जैसा माहौल है। कुछ दिनों पहले प्रभारी निदेशक ने कुलसचिव को सेवामुक्त करने का आदेश दे दिया था जिसकों कुछ ही घंटों में वापस लेना पड़ा था। राष्ट्रीय महत्व के इस संस्थान में नियमित निदेशक नहीं होने के कारण नियमित शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हो पा रही है। नुकसान छात्रों और संस्था का हो रहा है। संस्कृति मंत्रालय के अधीन कई संस्थाएं ऐसी हैं जहां कई महत्वपूर्ण पद खाली हैं। संस्कृति मंत्री को स्वयं रुचि लेकर इन पदों को भरने का उपक्रम आरंभ करना चाहिए।