हाल में दिल्ली पुलिस कमिश्नर संजय अरोरा ने एक परिपत्र जारी कर आदेश दिया है कि किसी भी अपराध की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने के समय सरल शब्दों का प्रयोग किया जाए। दिल्ली पुलिस का ये आदेश दिल्ली उच्च न्यायालय के एक आदेश के आलोक में जारी किया गया है। उच्च न्यायालय ने एक मामले में ये आदेश दिया था कि प्राथमिकी शिकायतकर्ता के शब्दों में होनी चाहिए। बहुत अधिक जटिल भाषा, जिसका अर्थ शब्दकोशों की मदद से खोजा जाता है, प्राथमिकी में इस्तेमाल नहीं किया जाना है। पुलिस अधिकारी बड़े पैमाने पर आम जनता के लिए काम कर रहे हैं और उन लोगों के लिए नहीं जो उर्दू, हिंदी या फारसी भाषा में डाक्टरेट के पदवी धारक हैं। जहां तक संभव हो प्राथमिकी में सरल शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिए। न्यायालय के इस आदेश के अनुपालन में दिल्ली पुलिस ने कई कठिन शब्दों की एक सूची तैयार की और उसके सरल हिंदी शब्द की सूची भी परिपत्र के साथ जारी की। दिल्ली पुलिस के इस कदम को लेकर कुछ लोगों ने व्यंग्यात्मक शैली में अपनी बात की तो कइयों ने इसको उर्दू के खिलाफ कदम माना। भाषा की राजनीति करनेवाले इसको लेकर सक्रिय हुए। हिंदी उर्दू के परस्पर संबंधों की दुहाई दी गई। गंगा-जमुनी तहजीब की बात की गई। लेकिन आलोचना करनेवालों से एक चूक हो गई। उन्होंने उर्दू और अरबी फारसी को लेकर घालमेल कर दिया। फारसी और उर्दू का घालमेल करनेवालों और दिल्ली पुलिस के इस कदम की आलोचना करनेवालों को डा सैयद अली बिलग्रामी का कथन याद रखना चाहिए। उन्होंने कहा था कि शिक्षा की दृष्टि से मुसलमानों की पिछड़ी हुई दशा का प्रधान कारण दोषपूर्ण फारसी वर्णमाला है जो उनके बच्चों को बर्षों तक उलझाए रखती है। उनको सरल और व्यवस्थित नागरी वर्णमाला स्वीकार कर लेनी चाहिए जिसे छह ही महीनों में सीखा जा सकता है। इन दिनों उर्दू कू सबसे बड़ी चिंता यही है कि उसकी लिपि में लिखने पढ़नेवाले निरंतर कम होते जा रहे हैं।
दिल्ली पुलिस के इस परिपत्र को देखने के बाद आचार्य रामचंद्र शुक्ल के एक लेख की कुछ पंक्तियां याद आ गई। रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी के समर्थन में लीडर पत्रिका में एक लेख लिखा था। उसमें एक अदालती नोटिस का उल्लेख है जो देवनागरी लिपि में लिखी गई थी, इसको देखा जाना चाहिए- लिहाजा बजरिय : इस तहरीर के तुम रामपदारथ मजकूर को इत्तला दी जाती है कि अगर तुम जर मजकूर यानि मुबलिग पंद्रह रुपए छह आने, जो अजरुए डिगरी वाजिबुल अदा है, इस अदालत में अंदर पंद्रह रोज तारीख मौसूल इत्तलानामा हाजा से अदा करो वरन : वजह जाहिर करो कि तुम मुंदर्जी जैल खेतों से जिनके बावत बकाया डिगरी शुदा बाजिबुल अदा है, बेदखल क्यों न किए जाओ। आचार्य शुक्ल ने लिखा कि उपरोक्त नोटिस में क्रियाओं और सर्वनामों के अतिरिक्त सभी शब्द फारसी और अरबी के हैं और जिन लोगों ने मौलवी का प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया है उनकी समझ से पूर्णत: बाहर है। सरल बनाने के लिए इसको हिंदी में इस प्रकार से लिखा जा सकता है- सो इस लेख से तुमको जताया जाता है कि तुम ऊपर कहा हुआ रुपया जिसकी तुम्हारे ऊपर डिगरी हो चुकी है इस नोटिस को पाने के पंद्रह दिन के भीतर इस अदालत में चुकता करो, नहीं तो कारण बतलाओ कि तुम नीचे लिखे खेतों में से जिनके ऊपर डिगरी का रुपया आता है, क्यों न बेदखल किए जाओ। भले ही ये अदालती नोटिस है लेकिन किसी भी थाने में जो प्राथमिकी दर्ज की जाती है वो भी लगभग ऐसी ही भाषा में लिखी जाती है जो समझ से परे है। दिल्ली पुलिस ने जो शब्दों की जो सूची जारी की है वो भी इस तरह की कहानी ही कहते हैं। सूची को देखें तो उसमें भी अदम पता (जिसका पता न चले), अदम शनाख्त (जिसकी पहचान न हुई हो), अरसाल (प्रस्तुत है), काबिल दस्त अंदाजी (संज्ञेय अपराध) जैल (निम्न), ततीमा (अतिरिक्त), फर्द मकबूजगी (किसी वस्तु को कब्जे में लेने के लिखित दस्तावेज) आदि जैसे शब्द हैं। इनको भी समझने के लिए या तो शब्दकोश की आवश्यकता होगी या मौलवी का प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति की सहायता की।
दिल्ली पुलिस के इस कदम की सराहना की जानी चाहिए क्योंकि न्याय व्यवस्था की पहली सीढ़ी तो पुलिस थाना या चौकी ही है। किसी भी तरह के अपराध की पहली रिपोर्ट तो वहीं दर्ज की जाती है। न्यायालय में तो केस बाद में जाता है। थाना या पुलिस चौकी में जिस भाषा में अपराध की शिकायत दर्ज की जाती है उसके अधिकतर शब्द अरबी या फारसी के होते हैं। इससे शिकायत दर्ज करवानेवाला अपनी शिकायत के बारे में समझ नहीं पाता है कि उसने जो शिकायत लिखवाई वो सही से प्राथमिकी में दर्ज हुई या नहीं। अगर राजनीति से अलग हटकर बात करें तो पूरे देश में एक सामान्य भाषा को लेकर लोग बात भी करने लगे हैं और उसको साकार करने का प्रयत्न भी। भारत की लगभग सभी भाषाएं शब्दों के लिए हिंदी की तरह ही संस्कृत के द्वार पर जाती हैं। हिंदी, मराठी, गुजराती, बंगाली आदि में इतनी अधिक समानता है कि इससे एक भाषाई गठबंधन बनने की प्रबल संभावना है। कहीं पढ़ा था कि उर्दू को संस्कृत से परहेज है और वो संस्कृत से नहीं बल्कि फारसी और अरबी से शब्द उधार लेती है। इस कारण उर्दू न केवल दुरूह होती चली गई बल्कि भारतीय भाषाओं से एक दूरी भी बना ली। बाद में उर्दू के कई पैरोकार मुस्लिम विद्वानों औरर रहनुमाओं ने हिंदी को लेकर अनर्गल टिप्पणियां की। बावजूद इसके हिंदी का फैलाव होता रहा और उर्दू सिकुड़ती चली गई। इन कारणों की पड़ताल करनी चाहिए। फारसी के दुरूह शब्दों का उपयोग कम करने से उर्दू कमजोर नहीं होगी बल्कि उर्दू को ताकत ही मिलेगी और वो भारतीय भाषाओं के गठबंधन के करीब आ सकेगी। यहां के लोगों में उसकी स्वीकार्यता बढ़ेगी।
दिल्ली पुलिस के इस कदम पर भाषा की राजनीति करना व्यर्थ और अनुचित है। यह भारत सरकार के भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने की व्यापक योजना को हिस्सा तो है ही न्यायिक व्यवस्था को सुगम बनाने का उपक्रम भी। गृह मंत्री अमित शाह निरंतर भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने के कार्य में लगे हैं। गृह मंत्रालय के अधीन ही राजभाषा विभाग आता है जो हिंदी को लेकर गंभीरता से काम कर रहा है। दिल्ली पुलिस भी गृह मंत्रालय के अधीन है। अभी कुछ दिनों पूर्व गृह मंत्रालय ने केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल में जनरल ड्यूटी के सिपाहियों की भर्ती के लिए हिंदी और अंग्रेजी समेत 13 अन्य भारतीय भाषाओँ में परीक्षा आयोजित करने का आदेश दिया। इसमें उर्दू भी शामिल है। इससे इन भाषा के प्रभाव वाले क्षेत्र के युवकों को अपनी मातृभाषा में परीक्षा देने का अवसर मिलेगा। केंद्रीय बलों में उनकी भागीदारी भी बढ़ेगी। अगर बिना किसी राजनीतिक चश्मे के भाषा को लेकर उठाए गए कदमों का समग्रता में विश्लेषण करें तो यह महत्वपूर्ण कदम नजर आता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी भारतीय भाषाओं को महत्व दिया गया है। शिक्षा से लेकर रोजगार तक अगर भारतीय भाषाओं को महत्व मिल रहा है तो प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था में भी भारतीय भाषा को प्राथमिकता मिलनी ही चाहिए। आक्रांताओं की भाषा को कब तक ढोते रहेंगे। स्वाधीनता के अमृत काल में तो स्वभाषा का उपयोग बढ़ाने का प्रयास हर स्तर पर होना चाहिए। सरकारी भी और गैर सरकारी संस्थाओं को भी आगे आकर भारतीय भाषाओं को सुदृढ़ करने के कार्य में लगना चाहिए। उर्दू के लिए भी बेहतर स्थिति यही होगी कि वो अरबी और फारसी की जगह भारतीय भाषाओं के शब्दों को उपयोग में लाए।
1 comment:
महत्वपूर्ण टिप्पणी
Post a Comment