स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के बाद अब हम अमृतकाल में प्रवेश कर चुके हैं। अमृतकाल में इतिहास की जमीन पर विज्ञान के सहयोग से एक शक्तिशाली और समृद्ध राष्ट्र बनाने का संकल्प हर भारतीय का है। इसके लिए आवश्यक है कि उन महापुरुषों के कृतित्वों का स्मरण किया जाए जिन्होंने भारत में शिक्षा से लेकर संस्कृति तक को शक्ति देने में अपना जीवन लगा दिया। अमृत महोत्सव के दौरान पूरे देश ने उन महापुरुषों को याद किया जिन्होंने स्वाधीनता पाने के लिए अपना सर्वस्व गंवा दिया। लेकिन इस विशाल भारत भूमि पर ऐसे अनेक सपूत पैदा हुए जिन्होंने स्वाधीनता की न केवल जमीन तैयार की बल्कि लोगों के मन में एक विश्वास पैदा किया कि वो स्वाधीन हो सकते हैं। विदेशी आक्रांताओं ने हमारे देश की शिक्षा पद्धति तो तहस-नहस किया। सामाजिक सरोकारों के केंद्र रहे मंदिरों को नष्ट किया। ऐसे में जनमानस को स्वाधीनता के लिए तैयार करने के लिए आवश्यक था कि उनके मन घर कर गई दास भावना का शमन किया जाए। इस तरह के कार्य भी अनेकों महापुरुषों ने किए। स्वाधीनता के बाद इतिहासकारों ने जिस तरह से आधुनिक भारत का इतिहास लेखन किया उसमें उत्तर भारत की घटनाओं और स्वाधीनता सेनानियों को वरीयता दी गई। दक्षिण और पश्चिम भारत पर भी लिखा गया लेकिन पूर्वोत्तर पर बहुत कम लिखा गया। कह सकते है कि इतिहास लेखन में पूर्वोत्तर की घटनाओं और वहां के लोगों के योगदान की उपेक्षा की गई।
पिछले दिनों असम के डाउन टाउन विश्वविद्यालय में हरिनारायण दत्त बरुआ की स्मृति में आयोजित समारोह में जाने का अवसर मिला। समारोह का निमंत्रण मिलने के बाद हरिनारायण दत्त बरुआ के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई। उनके बारे में बहुत ही कम जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध है। असम जाकर कुछ पुस्तकें मिलीं जिनसे पता चला कि हरिनारायण दत्त बरुआ ने असमिया साहित्य को संजोने और उसको समृद्ध करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। हरिनारायण दत्त बरुआ स्कूली शिक्षक थे। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन असमिया साहित्य के संरक्षण और उसके पुर्नप्रकाशन में लगा दिया। शिक्षा के क्षेत्र में किया गया उनका कार्य अनुकरणीय है। 1885 में उनका जन्म हुआ था। जब वो शिक्षक बने तो उनको असमिया भाषा में पाठ्य पुस्तकों की कमी का अनुभव हुआ। उन्होंने कई छात्रोपयोगी पुस्तकें लिख डालीं। कुछ अपने नाम से तो कुछ बिना लेखक का नाम दिए। उस समय पूर्वोत्तर में शिक्षा की हालत बहुत अच्छी नहीं थी। असमिया में पुस्तकों और उसके विक्रेताओं की कमी थी। इस कमी को पूरा करने के लिए हरिनारायण दत्त बरुआ ने अपने भाई के साथ मिलकर असम के नलबाड़ी में एक पुस्तक की दुकान खोली। यहां भी एक समस्या खड़ी हो गई। पुस्तकें बहुत कम संख्या में मिलती थीं और उनको बाहर से मंगवाना पड़ता था। इस कारण लागत अधिक हो जाती था। इस बीच उन्होंने 1932 में अपने पिता के नाम पर एक बालिका विद्यालय की स्थपना की। पुस्तकों की मांग इससे और बढ़ गई। किसी तरह से पांच छह साल तक पुस्तकों की आपूर्ति करते रहे। जब पुस्तकों की मांग बहुत अधिक बढ़ने लगी और बाहर से उतनी संख्या में पुस्तकें नहीं मिलने लगी तो उन्होंने तय किया कि एक प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की जाए। लेकिन अर्थ का संकट। उस समय असम जैसे प्रदेश में प्रिंटिंग प्रेस लगाना बेहद मुश्किल और खर्चीला था। जब उद्देश्य पवित्र होता है तो राह आसान हो जाती है। उन्होंने 1938 में अपनी मां के नाम पर उमा प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की। प्रिटिंग प्रेस की स्थापना के बाद ये संकट उत्पन्न हुआ कि कौन सी पुस्तकें प्रकाशित की जाएं। उन्होंने छात्रोपयोगी पुस्तकों के साथ साथ असमिया भाषा में लिखी गई प्राचीन पुस्तकों का प्रकाशन आरंभ किया। हरिनारायण दत्त बरुआ की लिखी और संरक्षित पुस्तकों से प्राचीन असमिया साहित्य और इतिहास के सूत्र मिलते हैं। उनकी लिखी पुस्तकों में असम के साथ-साथ भारत के इतिहास की भी कई अनकही कहानियां दर्ज हैं। आवश्यकता इस बात की है कि उनको भारतीय भाषाओं में अनूदित करवा कर पूरे देश के लोगों तक पहुंचाया जाए।
श्रीमंत शंकरदेव की कई कृतियों को हरिनारायण दत्त बरुआ ने न केवल संरक्षित किया बल्कि उसके मूल स्वरूप में प्रकाशित करने का बेहद महत्वपूर्ण कार्य भी किया। कुछ लोगों का मत है कि श्रीमंत शंकरदेव के व्यक्तित्व के कुछ आयामों से दत्त बरुआ ने जनता का परिचय करवाया। असम के प्रसिद्ध संत श्रीमंत शंकरदेव का जन्म 1449 में हुआ था। उनके बारे में उपलब्ध जानकारी के अनुसार मात्र 13 वर्ष की आयु में उन्होंने पंडित महेंद्र कंदली की पाठशाला में विद्याध्ययन के लिए प्रवेश लिया था। मात्र चार वर्ष में हिंदू धर्म ग्रंथों का अध्ययन पूर्ण कर भगवद चिंतन में लग गए थे। घरवालों ने ये देखकर शंकरदेव का विवाह करवा दिया लेकिन वो भगवद चिंतन में ही रमा रहा। ये वो समय था जब कुछ लोग हिंदू धर्म के नाम पर तंत्र विद्या के विकृत रूप को चलाने में लगे हुए थे। जब शंकरदेव ने ये महसूस किया कि इससे हिंदू धर्म के बारे में गलत बातें फैल रही हैं तो उन्होंने हस्तक्षेप किया। उन्होंने एक ईश्वर में ध्यान लगाने के मत का प्रचार आरंभ किया। वो जनता के बीच जाकर ‘कलिका परम धर्म हरिनाम है’ का प्रचार करने लगे। उनकी वकतृत्व और तर्कशक्ति से प्रभावित होकर कई लोग धर्म प्रचारक बन गए जो कालांतर में धर्माचार्य कहलाए। शंकरदेव ने अपनी नीतियों में अहिंसा,छुआछूत, मद्य निषेध आदि को शामिल किया। वो श्रीकृष्ण को परमब्रह्म मानकर प्रचारित करने लगे। वो कहते थे कि एक कृष्ण की ही शरण लेकर उसी का नाम, गुण तथा श्रवण कीर्तन करने से सर्वसिद्धि प्राप्त होगी। इस कारण ही उनके प्रचारित मत को ‘एक शरण धर्म’ कहा गया। उनके शिष्य श्रीमंत माधवदेव की भी असम में बहुत ख्याति है।
हरिनारायण दत्त बरुआ ने श्रीमंत शंकरदेव की रचनाओं को श्रमपूर्वक खोजकर निकाला और उसको प्रकाशित करवा कर जनता के बीच पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। श्रीमंत शंकरदेव के ‘चित्र भागवत’ का प्रकाशन एक ऐसी घटना है जिसको अगर ठीक से व्याख्यायित और प्रचारित किया जाए तो चित्रकला के बारे में बहुत सारी भ्रांतियां दूर होंगी। भारतीय चित्रकला का एक नया रूप सामने आएगा। हरिनारायण दत्त बरुआ ने 1946 में चित्र भागवत के प्रकाशन की प्रक्रिया आरंभ की थी और चार साल बाद उसका प्रकाशन हो सका था। अब ये पुस्तक मूल चित्रों की प्रतिलिपि के साथ प्रकाशित है। इस पुस्तक में चित्रों के साथ जो टिप्पणियां हैं वो असमिया, हिंदी और अंग्रेजी यानि तीन भाषाओं में प्रकाशित हैं। आज जब तमिलनाडू के मुख्यमंत्री दही के पैकेट पर हिंदी में दही लिखे जाने पर आगबबूला हो रहे हैं ऐसे में उनको हरिनारायण दत्त बरुआ से सीख लेनी चाहिए। जिन्होंने भाषा की दीवार को तोड़कर श्रीमंत शंकरदेव की कृतियों को व्यापक जनता तक पहुंचाने का स्वप्न देखा था।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में मातृभाषा पर जोर दिया जा रहा है। विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनेक प्रकार की पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है। ऐसे में असम की सरकार को हरिनारायण दत्त बरुआ के बारे में देश की जनता को बताने का अभियान चलाना चाहिए। इससे न सिर्फ हरिनारायण दत्त बरुआ के योगदान के बारे में देश को पता चलेगा बल्कि अगर उनकी पुस्तकें हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर प्रकाशित हो गईं तो श्रीमंत शंकरदेव की कृतियों से भी देश का परिचय होगा। असम में लोग हरिनारायण दत्त बरुआ के नाम के पहले साहित्यरत्न लगाते हैं लेकिन उनको सिर्फ साहित्य की चौहद्दी में नहीं बांधा जाना चाहिए। वो सच्चे अर्थों में भारत भूमि के ऐसे सपूत थे जिन्होंने शिक्षित भारत का ना केवल स्वप्न देखा बल्कि उसको साकार करने के लिए अंतिम दम तक लगे रहे।
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