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Saturday, April 8, 2023

भ्रांतियां दूर करने की चुनौती


पिछले दिनों एक सेमिनार में हिस्सा लिया था। वहां मुगलों और अंग्रेजों पर बात हो रही थी। एक वक्ता ने मंच से कहा कि भारत में कई सारी चीजें मुगल और कई अंग्रेज लेकर आए। इन चीजों और प्रथाओं ने भारतीय समाज को अपेक्षाकृत आधुनिक बनाया। यहां से होते हुए बात हिंदी-उर्दू पर चली गई और वहां से भारतीय पहरावा और खान-पान पर। मंच से ये तक कहा गया कि भारत में सिले हुए वस्त्र मुगलों के साथ आए और उसके पहले यहां के लोग सिले हुए वस्त्रों से परिचित ही नहीं थे। इस संबंध में उन्होंने चीनी यात्री फाहयान के यात्रा वृत्तांत का उदाहरण देते हुए ये साबित करने की कोशिश की मध्यकाल के पहले भारत में सिले हुए वस्त्रों का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। कुछ देर तक इसके पक्ष-विपक्ष में बहस चलती रही लेकिन मुगलों और अंग्रेजों के पक्ष में तर्क रख रहे सज्जन ने विदेशी लेखकों के नाम गिनाने आरंभ किए तो सभागार में बैठे लोगों को लगा कि उनकी बातों में दम है। सत्र समाप्त हुआ। इसके बाद भी लोगों के बीच इस विषय पर चर्चा होती रही। लोग पक्ष विपक्ष में तर्क देते रहे लेकिन चूंकि हमारी शिक्षा पद्धति में इस तरह की बातों को उतना महत्व नहीं दिया इस कारण नई पीढ़ी तक बातें पहुंच नहीं पाई। विदेशियों की पुस्तकों के उद्धरणों और विदेशी विद्वानों के लिखे को अंतिम सत्य मानने वाले विद्वानों ने उनके आधार पर निरंतर ये भ्रम फैलाया कि भारत में सिले हुए वस्त्रों से परिचय मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण के बाद हुआ। विदेशी लेखक बकनन हैमिल्टन ने अपनी पुस्तक ईस्टर्न इंडिया में ये कहा है प्राचीन हिंदू जाति सिले हुए वस्त्र के व्यवहार से पूर्णतया अनभिज्ञ थी, उका प्रचार मुसलमानों के आक्रमण के पश्चात हुआ। उनके इसी कथन को म्योर और वाटसन जैसे यूरोपीय विद्वानों ने आधार मानकर इस धारणा को आगे बढ़ाया। जिन लोगों ने सिर्फ इन विद्वानों को पढ़ा है उनको लगता है कि ये बात सही है। जबकि भारतीय लेखन में इसका कई बार प्रमाण सहित प्रतिकार किया जा चुका है। 

हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सरस्वती पत्रिका में 1902 में एक लेख लिखकर प्रमाण सहित बताया था कि प्राचीन भारत में सिले हुए वस्त्रों और सुई का प्रमाण उपलब्ध है। आचार्य शुक्ल ने अपने लेख में प्राचीन ग्रंथों और प्राचीन मूर्तियों के सहारे ये स्थापित किया कि सिले हुए वस्त्रों का चलन भारत में बहुत पहले से था। उन्होंने ऋगवेद का उदाहरण दिया जहां सुई और सीने का उल्लेख है। सिव्यतु अपच शुच्य छेद्यमानय, 2(288)। वो कहते हैं कि ‘मूल शब्द शूचि है जिसके लिए ये अनुमान बांधना कि उससे कांटे या और किसी नोकीली वस्तु से अभिप्राय है, उपहासजनक होगा। यह भी विचार करने का स्थल है कि प्राचीन आर्य लोहे के शस्त्र इत्यादि बनाने में कुशल होकर भी सुई से पूरे अनभिज्ञ बने रहते।‘  उन्होंने कर्नल टेलर के इस कथन का भी सोदाहरण निषेध किया है कि प्राचीन हिंदू जाति में दर्जी का होना प्रमाणित नहीं है और न ही उनकी भाषा में इसके लिए कोई शब्द है। इस संदर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल अमरसिंह के अमर कोष का संदर्भ देते हैं। यहां यह बताना आवश्यक है कि अमरसिंह का अमरकोष ईसा से पूर्व का माना जाता है। अमरसिंह के कोष में दर्जी के लिए दो शब्द प्रयोग किए गए हैं। एक है तन्तुवाय और दूसरा है सौचिक। (तन्तुवाय: कुविंद: स्यात्तुन्नवायस्तु  सौचिक:-अमरकोष)। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने लेख में इस बात को भी रेखांकित किया है कि पाणिनी के सूत्रों में भी इस शब्द का उल्लेख है। रामायण और महाभारत के अलावा भी संस्कृत के अन्यान्य ग्रंथों में इस तरह के पहिरावों का उल्लेख है जो बगैर सुई और सीने के बन नहीं सकते। उदाहरण के तौर पर कंचुक, कंचुलिक, अंगिका, चोलक, चोल, कुर्पासक। 

इन शब्दों को अर्थ और उसके प्रयोग को देखते हैं तो इस बात के प्रमाणिक संकेत मिलते हैं कि प्राचीन काल में भारत में सुई और सिले हुए वस्त्रों की परंपरा रही है। ऐसे वस्त्र पहने जाते थे तो सिलकर ही तैयार हो सकते थे। अब अगर कंचुक शब्द के अर्थ को ही देखें तो इसका अर्थ होता है सैनिकों का कुर्ते जैसा एक विशेष वस्त्र। कई जगह ‘सन्नाह’ शब्द का प्रयोग लोहे के कवच और सूत के बने वस्त्रों के लिए भी किया जाता है। सन्नाह को कंचुक का पर्यावाची मानकर कई कोष में उसका अर्थ वाणों से बचाव के लिए लोहे से निर्मित पहिराव के तौर पर किया गया है। रामचंद्र शुक्ल इस बात को प्रमाणित करते हैं कि प्रचीन काल में कंचुक का अभिप्राय सूत से बने वस्त्रों के लिए भी किया जाता था। इस संदर्भ में वो महाभारत का उदाहरण देते हैं कि युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के समय ऋषियों का कंचुक और पगड़ी धारण करने का उल्लेख है। (विवशुस्ते सभां दिव्यां सोष्णीषां धृतकंचुका:)। अब एक और शब्द को देखते हैं। अंगिका एक प्रकार की कुर्ती होती थी जिसको हिंदी में अंगिया कहते हैं। अंगिया शब्द संस्कृत के अंगिका का अपभ्रंश है। इस बात को प्रमाणित करता है कि प्राचीन काल में सिले हुए वस्त्र पहने जाते थे। एक शब्द है नीवी। नीवी कहते हैं इजारबंद को जो घाघरे में डाला जाता है। अगर प्राचीन काल में घाघरे नहीं थे तो नीवी का क्या काम था। 

रामचंद्र शुक्ल ने शब्दों के अलावा अपने उस लेख में मूर्तियों और उसपर उकेरे गए वस्त्रों के आधार पर इस बात को प्रमाणित किया कि प्राचीन काल में भारत में सिले हुए वस्त्रों का चलन था। उन्होंने अमरावती और ओडिशा की प्राचीन मूर्तियों और वस्त्रों को आधार बनाया है। अमरावती में कई मूर्तियां नग्नावस्था और अर्धनग्नावस्था में हैं लेकिन उनके बीच कई मूर्तियां ऐसी भी हैं जिनके वस्त्र उस काल में दर्जी के अस्तित्व के संकेत करते हैं। पुस्तक ‘एंटिक्स आफ ओडीशा’ में उदयगिरी की गुफाओं में चट्टानों से काटकर बनाई मूर्ति को एक चुस्त चपकन पहने दिखाया गया है। इस मूर्ति की अवस्था करीब 2300 साल पूर्व की मानी जाती है।ये चपकन जामे के जैसा है। पुरुषों के अलावा अगर स्त्रियों की बात करें तो इस बात के कई प्रमाण धर्मशास्त्र से लेकर बौद्धग्रंथों में भी उपलब्ध हैं कि स्त्रियां पर्याप्त वस्त्र पहनती थीं। स्त्रियों में साड़ी का प्रचलन था। संपन्न घरों की स्त्रियां घाघरा और कुर्ती और उसके उपर से कभी कभार अंगिया धारण करती थीं। आचार्य शुक्ल ने उक्त लेख के अंत में बहुत ही दिलचस्प बात कही है वो ये कि बंगाल इत्यादि प्रांतों में अधिकांश दर्जी समूह मुसलमान हैं जिसकी वजह से हेमिल्टन समेत कई लेखक भ्रमित हो गए कि दर्जी की अवधारणा भारतीय नहीं है। परंतु पूरे भारतवर्ष में ऐसा नहीं था। शेरिंग ने अपनी पुस्तक ‘हिंदू कास्ट एंड ट्राइव्स आफ बनारस’ में हिंदुओं के दर्जी होने का उल्लेख किया है।ये भी बताया है कि हिंदुओं में किस जाति के लोग दर्जी का काम करते थे। 

अगर भारत के प्राचीन गंथों को और उस समय के विदेशी लेखकों के लेखन को समग्रता में देखें तो कई प्रकार की भ्रांतियां दूर होती हैं। आवश्यकता इस बात है कि हमारे देश में जो देसी विद्वानों ने जो लिखा उसको प्रचारित प्रसारित किया जाए। उसको नई पीढ़ी को बताया और पढ़ाया जाए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लिए नए पाठ्यक्रम तैयार किए जा रहे हैं। नई पुस्तकें तैयार की जा रही हैं। इस कार्य में उन विद्वानों को लगाना चाहिए जो सिर्फ ग्रंथों से परिचित ना हों बल्कि उन ग्रंथों को समग्रता से देखकर छात्रों के पाठ को तैयार कर सकें। अगर ऐसा हो पाता है तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति की सार्थकता स्थापित होगी और ये बदलाव का वाहक बन सकेगा। 


2 comments:

Anonymous said...

Bahut hi sundar 🌹🌹

Anonymous said...

समसामयिक, गूढ विश्लेषण करता हुआ बहुत सार्थक आलेख