गीता प्रेस, गोरखपुर को गांधी शांति पुरस्कार देने की घोषणा होते ही इंटरनेट मीडिया और अन्य समाचार माध्यमों में सकारात्मक और नकारात्मक टिप्पणियां देखने को मिलने लगीं। कांग्रेस पार्टी ने तो एक पुस्तक की आड़ लेकर गीता प्रेस की तुलना गोडसे से कर डाली। कांग्रेस की इस तुलना के बाद मामले ने तूल पकड़ा और गीता प्रेस के साथ-साथ इससे जुड़े हनुमानप्रसाद पोद्दार के बारे में भी अनाप-शनाप लिखा जाने लगा। किसी ने उनको हिंदू सांप्रदायिकता से जोड़ा, किसी ने उनके संपादन में निकलनेवाली पत्रिका कल्याण में मुस्लिम लेखकों की खोज आरंभ कर दी, किसी ने उनको राष्ट्रीय स्वयंसेव संघ का एजेंडा चलानेवाला व्यक्ति बताया। हनुमानप्रसाद पोद्दार जी के बारे में विभिन्न प्रकार की टिप्पणियां पढ़ते हुए स्वर्गीय नरेन्द्र कोहली की एक बात याद आई। जब भी श्रीरामचरितमानस या महाभारत के बारे में कोई पाठक उनसे मूर्खतापूर्ण प्रश्न करता था तो वो हंसते हुए कहते थे कि अज्ञान असीमित होता है जबकि ज्ञान की सीमा होती है। हुनमानप्रसाद पोद्दार के बारे में भी अधिकतर टिप्पणीकारों ने असीमित अज्ञान का ही प्रदर्शन किया है। दरअसल होता ये है कि जब आप पूर्वाग्रह से भर कर किसी का आकंलन करते हैं या किसी एजेंडा के तहत किसी व्यक्तित्व या संस्थान का मूल्यांकन करते हैं तो उनके योगदानों को एकांगी होकर देखते हैं। गीता प्रेस और हनुमानप्रसाद पोद्दार पर टिप्पणी करते समय भी कई लोग इस दोष के शिकार हो गए। एक तो अज्ञान दूसरे एजेंडा। कांग्रेस ने क्यों हनुमानप्रसाद पोद्दार की तुलना गोडसे से की ये वही जानें लेकिन मुझे लगता है कि कांग्रेस पार्टी में हिंदुत्व और हिंदू महापुरुषों को लेकर एक भ्रम की स्थिति है जिसका प्रदर्शन उस पार्टी के नेता नियमित अंतराल पर करते रहते हैं। खैर हम राजनीति की बात नहीं करके पुस्तक और कल्याण पत्रिका को केंद्र में रखकर चर्चा करेंगे।
गीता प्रेस की स्थापना 1923 में हुई। उस समय को याद करना चाहिए। भारत अंग्रेजों के अधीन था। उसके पहले हमारा देश मुगलों और अन्य आक्रांताओं की यातनाओं को झेल चुका था। भारतीय संस्कृति को लगातार मिटाने के प्रयास मुगलकाल में भी हुए और अंग्रेजों ने भी उसको आगे बढ़ाया। ऐसे कठिन समय में गीता प्रेस की स्थापना हुई। हिंदू धार्मिक ग्रंथों के इस प्रकाशन गृह ने हिंदुओं को बेहद सस्ते दामों पर अपने पौराणिक ग्रंथों से परिचय करवाया। गीता प्रेस के योगदान को इस दृष्टि से भी देखे जाने की आवश्यकता है कि इसने स्वाधीनता संग्राम के लिए देश के जनमानस को तैयार किया। भारतीय पौराणिक ग्रंथों का प्रकाशन और उसको जन-जन तक पहुंचाकर गीता प्रेस ने जो कार्य किया है उसके समांतर विश्व इतिहास में कम उदाहरण मिलते हैं। इन ग्रंथों को पढ़कर, धर्म के प्रति, न्याय के प्रति, अपने अधिकारों के प्रति, समाज के प्रति और देश के प्रति जनता के मन जो भावना जाग्रत हुई उसके आकलन के बिना गीता प्रेस और उसके योगदान पर लिखा नहीं जा सकता है। यह तो भारतीय इतिहास लेखन की दोषपूर्ण पद्धति रही है कि उसने हिंदू धर्म से जुड़ी संस्थाओं और संस्थानों के योगदानों की चर्चा तक नही की। अगर कहीं उल्लेख करने की मजबूरी हुई तो एक पंक्ति में लिख दिया। आज फ्रांस के प्रकाशक गालीमर की चर्चा पूरी दुनिया में होती है क्योंकि उस देश के लेखकों ने इस प्रकाशन गृह के बारे में, उसके योगदान के बारे में लिखा लेकिन गीता प्रेस को धार्मिक पुस्तकों का प्रकाशन करार देकर उसको हाशिए पर डालने का प्रयास हुआ।
गीता प्रेस से प्रकाशित पत्रिका कल्याण में प्रेमचंद से लेकर निराला तक ने लेख लिखे हैं। वामपंथी इतिहासकारों ने इसकी चर्चा तक नहीं की। यहां तक की जब इन लेखको का मूल्यांकन करते हुए आलोचनात्मक पुस्तकें लिखी गईं तो कल्याण में प्रकाशित उनके लेखों की उपेक्षा की गई। अगर निराला और प्रेमचंद के कल्याण में प्रकाशित लेखों को सामने रखा जाता तो उनको वामपंथी विचार का लेखक सिद्ध करने में परेशानी होती। वो भारतीय विचारों के लेखक के तौर पर देश के सामने होते। प्रेमचंद ने कल्याण के कृष्णांक में जो लेख लिखे थे वो गीता प्रेस से पुस्तकाकार प्रकाशित है और अब भी बाजार में उपलब्ध हैं। हिंदी साहित्य से जुड़े नंददुलारे वाजपेयी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, चतुरसेन शास्त्री और बनारसीदास चतुर्वेदी जैसे दिग्गज रचनाकार कल्याण पत्रिका के संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार के संपर्क में थे। नंददुलारे वाजपेयी ने तो 24.12.1931 के अपने पत्र में लिखा भी, कल्याण के द्वारा आप समाज की जो सेवा कर रहे हैं वो मुझे बहुत अच्छी लगती है। आपने महर्षि शंकराचार्य आदि के मूल्यावान ग्रंथों की प्रकाशन व्यवस्था करके हिंदी पर बड़ा उपकार किया है।
गीता प्रेस और कल्याण पत्रिका ने सनातन संस्कृति को बल देने का कार्य भी किया। देश सैकड़ों वर्षों से गुलामी की जंजीर में जकड़ा हुआ था। सनातन पर दूसरी संस्कृति को थोपने के लगातार प्रयास हो रहे थे। ऐसे वातावरण में सनातनी ग्रंथों का प्रकाशन और सनातनी विचारों से पूर्ण पत्रिका कल्याण के द्वारा गीता प्रेस ने औपनिवेशिक ताकतों का प्रतिकार किया। कल्याण पत्रिका ने न केवल सनातनी संस्कृति को बल दिया बल्कि उसने हिंदी भाषा के क्षितिज का भी विस्तार किया। जब देश में अंग्रेज शासक उर्दू को बढ़ावा दे रहे थे तो कल्याण के जरिए और अपने प्रकाशनों के जरिए गीता प्रेस हिंदी को मजबूती प्रदान कर रही थी। 1932 के 12 मार्च को बनारसीदास चतुर्वेदी ने हनुमान प्रसाद पोद्दार को एक पत्र लिखकर कहा कि कल्याण के 16 हजार ग्राहक हैं। यदि आप उसके मूल्य में चार आने की भी वृद्धि कर दें और उस चार हजार रुपयों से हिंदी के लेखकों से अच्छे लेख लिखाने और अनुवाद आदि कराने में व्यय करे तो अनेक लेखकों का आप उद्धार कर सकते हैं। अपने इसी पत्र में चतुर्वेदी जी ने हनुमानप्रसाद पोद्दार जी को स्वर्गीय गणेश शंकर विद्यार्थी का अनुसरण करने की सलाह दी और लिखा, स्वर्गीय गणेश शंकर विद्यार्थी को मैं सच्चा आस्तिक और भक्त मानता हूं। इस पंक्ति से भी एजेंडा लेखन की पोल खुलती है जो गणेश शंकर विद्यार्थी को वामपंथी सिद्ध करते रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि गीता प्रेस गोरखपुर के योगदान का मूल्यांकन समग्रता में किया जाए।
इस पूरे प्रकरण से एक बात और स्पष्ट हो गई है कि वर्तमान समय में जो विचारधारा का संघर्ष चल रहा है उसमें पुस्तकों की महत्वपूर्ण भूमिका है। कर्नाटक चुनाव के पहले देवारुण महादेव की एक पतली सी पुस्तक आई थी आरएसएस, द लांग एंड शार्ट आफ इट। इस पुस्तक का फोरवर्ड रामचंद्र गुहा ने आफ्टरवर्ड योगेन्द्र यादव ने लिखा था। कवर पर हिंदी लेखिका गीतांजलिश्री की टिप्पणी प्रकाशित थी। कन्नड में लिखी गई इस पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद करवाया गया। चुनाव के पहले प्रदेश में माहौल बनाने के लिए इस पुस्तक को चर्चित करने और पाठकों तक पहुंचाने का उपक्रम किया गया। जैसा कि इस पुस्तक के नाम से जाहिर है कि इसका केंद्रीय विषय राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ है। इसमें लेखक ने राष्ट्रीय संव्यंसेवक संघ के कार्यक्रमों की आलोचना की। कुछ गलत तथ्यों के साथ भी। जब देश के तथाकथित बड़े लेखक और इतिहासकार उसकी चर्चा करते हैं तो आम पाठकों के बीच उस पुस्तक को लेकर एक उत्सुकता पैदा होती है। यह सही है कि पुस्तकों का चुनावी राजनीति पर सीधा असर नहीं होता है लेकिन पुस्तकों में प्रकाशित विचार मतदाताओं को परोक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। इस वक्त विचारधारा विशेष के लेखक और बुद्धीजीवी पुस्तकों के माध्यम से राजनीति करने में लगे हैं और उनको हिंदी और अंग्रेजी के कुछ प्रकाशकों का साथ भी मिल रहा है। वैकल्पिक विचारधारा के लेखकों को भी पुस्तक का उत्तर पुस्तक से ही देना होगा।