तीन-चार वर्ष पूर्व की बात है।फिल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने एक साहित्योत्सव में कहा था कि वो फिल्मों में इस कारण आए थे क्योंकि वो लोकप्रिय होना चाहते थे। नसीरुद्दीन शाह इतने पर ही नहीं रुके थे बल्कि यहां तक कहा था कि वो फिल्मों के माध्यम से कला की सेवा करने के उद्देश्य से इस क्षेत्र में नहीं आए थे बल्कि वो तो लोकप्रियता चाहते थे। जो लोग फिल्मों में आने का कारण कला की सेवा बताते हैं वो झूठ बोलते हैं। सचाई ये है कि लोग फिल्मों में धन कमाने और प्रसिद्ध होने के लिए आते हैं। ये वो व्यक्ति बोल रहा था जिनको श्रेष्ठ कलाकार और कला को नई ऊंचाई पर पहुंचानेवाला अभिनेता आदि कहा जाता रहा है। नसीरुद्दीन शाह के इस वक्तव्य के कुछ महीनों पहले उनकी पुस्तक आई थी। दरअसल देश में पिछले कई वर्षों से एक ट्रेंड चल रहा है कि जिन फिल्मी कलाकारों को काम नहीं मिलता है या कम काम मिलता है वो पुस्तक लिख देते हैं। पुस्तक लिखने का एक फायदा यह होता है कि उनको बुद्धीजीवी मान लिया जाता है और दूसरा कि उनको साहित्योत्सवों में आमंत्रित किया जाने लगता है। साहित्योत्सवों से एक अलग प्रकार की लोकप्रियता मिलती है। तो नसीरुद्दीन शाह को जब काम कम मिलने लगा तो उन्होंने भी पुस्तक लिख दी। कई साहित्योत्सवों में बुलाए गए। वहां विवादित बयान देकर चर्चित हुए। पुस्तक भी खूब बिकी। इस बात को भी कई वर्ष बीत गए। उनकी कोई दूसरी पुस्तक नहीं आई तो साहित्योत्सवों से आमंत्रण मिलना बंद हो गया। अब उन्होंने चर्चित होने का एक नया तरीका निकाला। समय समय पर विवादित बयान देने लगे। कभी देश में डर का माहौल बताने लगे तो तो कभी इस भय के वातावरण के कारण अपने बच्चों की चिंता जताने लगे। कभी अनुपम खेर को जोकर कह दिया तो कभी अन्य साथी कलाकारों पर घटिया टिप्पणी कर दी। इंटरनेट मीडिया के इस युग में इस तरह के विवादित बयानों को प्रचलित होते देर नहीं लगती है और पक्ष विपक्ष में बयानवीर खड़े हो जाते हैं।
जब नसीर को फिल्मों में कम काम मिलने लगा तो उन्होंने ओवर द टाप (ओटीटी) प्लेटफार्म्स की ओर रुख किया। जब उनकी कोई बेव सीरीज रिलीज होती तो फिर वो सामने आते और विवादित बातें कहकर चर्चा में बने रहने का प्रयास करते। अभी जब उनकी वेब सीरीज ताज,रेन आफ रिवेंज आई तो एकबार फिर से नसीर को इंटरव्यू आदि देने का अवसर मिला। इस बार नसीरुद्दीन शाह को तो डर नहीं लगा बल्कि इस बार वो इस बात को रेखांकित करते दिखे कि हिंदी फिल्मों के बड़े कलाकार भयभीत हैं। इसके अलावा वो नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह का भी उपहास उड़ाते नजर आए। नसीर ने प्रश्न उठाया कि नए संसद के उद्घाटन के समय इस तरह के भव्य समारोह की क्या आवश्यकता थी। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम लिए बिना यहां तक कह दिया कि देश के सुप्रीम नेता स्वयं के लिए स्मारक बनवा रहे हैं। उनको इस बात पर भी आपत्ति है कि संसद के शुभारंभ समारोह में नरेन्द्र मोदी हाथ में धर्म दंड लिए पुजारियों से क्यों घिरे हुए थे। उपहास के अंदाज में कहा कि ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे ब्रिटेन का राजा बिशपों के साथ चल रहा हो। अब नसीरुद्दीन शाह को भारतीय परंपराओं के बारे में कौन समझाए। जब उनका मूल उद्देश्य ही प्रचार पाना हो तो वो उस प्रकार की बातें ही करते हैं जो हेडलाइन बने और इंटरनेट मीडिया पर प्रचलित हो सके। उनको शायद ये ज्ञात नहीं होगा कि जब देश को स्वाधीनता मिली थी तो जवाहरलाल नेहरू ने भी डा राजेन्द्र प्रसाद के घऱ पर पूजा पाठ की थी। देशभर की नदियों के जल का छिड़काव करवाया गया था। पूजा-पाठ के उस कार्यक्रम के बाद जवाहरलाल नेहरू, डा राजेन्द्र प्रसाद और अन्य स्वाधीनता सेनाननियों के साथ संविधान सभा की बैठक में भाग लेने गए थे। जब आपको अपने देश की परंपरा का बोध न हो और आलोचना करके प्रसिद्धि हासिल करना उद्देश्य हो तो इस तरह के अनर्गल बातें ही की जा सकती हैं। जब उनसे ये पूछा गया कि शाह रुख खान ने तो संसद भवन और उसकी भव्यता की प्रशंसा की तो उन्होंने खामोशी ओढ़ ली।
नसीरुद्दीन शाह मुंह खोलें और डर की बात न करें ये तो संभव ही नहीं है। शाह रुख और आमिर जैसे अभिनेताओं को भी 2014 के बाद इस देश में डर लगा था लेकिन अब वो भयमुक्त होकर काम कर रहे हैं। नरेन्द्र मोदी का विरोध करनेवाले आमिर खान न केवल प्रधानमंत्री मोदी से मिलते हैं बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों से मिलने-जुलने में उनको किसी प्रकार का परहेज नहीं है। एक नसीरुद्दीन शाह बचे हैं जिनको अब भी लगता है कि हिंदी फिल्मों के जिन लोगों की बातों में वजन है वो किसी डर से चुप हैं। नसीरुद्दीन शाह इस बात को लेकर चिंतित नजर आते हैं कि इस समय देश में एजेंडा और प्रोपगैंडा वाली फिल्में बन रही हैं और हिंदी फिल्मों के दिग्गज किसी अनजान डर से इसके विरोध में चुप हैं। नसीर साहब इस बात को भूल गए कि जब वो समांतर सिनेमा के दौर में प्रसिद्धि पा रहे थे तो उन फिल्मों में किस विचारधारा का एजेंडा चल रहा था। उस समय तो वो सफल थे, उनकी बातों का वजन और असर होता। तब तो उनको न तो एजेंडा दिखा और न ही प्रोपेगैंडा। उस दौर के पहले जाएं तो जब ख्वाजा अहमद अब्बास के नेतृत्व में अभिनेताओं की टीम सोवियत रूस जाकर वहां कार्यक्रमों में हिस्सा लेती थे। वहां की सरकार के आतिथ्य का आनंद उठाती थी और लौटकर उनकी विचारधारा के आधार पर फिल्में बनाती थी। उसके बारे में कभी नसीरुद्दीन शाह ने कुछ नहीं बोला। इसको कहते हैं चुनिंदा चुप्पी या चुनिंदा मसलों पर प्रतिक्रिया देना। इस तरह की बातें अब देश की जनता समझने लगी है। समझ तो इनका एजेंडा भी आ गया है।
नसीरुद्दीन शाह के बारे में जावेद अख्तर और सलीम खान की राय एक है। दोनों का मानना है कि नसीर कुंठा में इस तरह के बयान देते हैं। दरअसल कुछ वर्षों पूर्व नसीरुद्दीन शाह ने राजेश खन्ना को औसत कलाकार कहकर उनका मजाक उड़ाया था। तब जावेद अख्तर ने स्पष्टता के साथ कहा था कि ‘नसीर साहब को कोई सक्सेसफुल आदमी पसंद नहीं है। अगर कोई पसंद हो तो नाम बताएं कि ये आदमी मुझे अच्छा लगता है क्योंकि वो सक्सेसफुल है। मैंने तो आज तक नहीं सुना। वो दिलीप कुमार को क्रिटिसाइज करते हैं, अमिताभ बच्चन को क्रिटिसाइज करते हैं, हर आदमी जो सक्सेसफुल है उनको अच्छा नहीं लगता है।‘ लगभग उसी समय सलीम खान ने भी नसीरुद्दीन शाह को कुंठित और कड़वा व्यक्ति कहा था। ऐसा प्रतीत होता है कि सलीम खान और जावेद अख्तर का नसीरुद्दीन शाह पर दिया गया बयान ठीक था। वो इस बात से कुंठित हो सकते हैं कि उनकी ही आयु के अनुपम खेर इस वक्त भी अलग अलग तरह की भूमिकाएँ कर रहे हैं और व्यस्त हैं। उनसे बड़ी आयु के अमिताभ बच्चन को अब भी काम मिल रहा है जबकि नसीरुद्दीन शाह को फिल्म इंडस्ट्री में बहुत कम लोग पूछ रहे हैं। हिंदी फिल्मों की दुनिया इस मायने में बहुत ही निर्मम है कि अगर किसी अभिनेता को दर्शक पसंद नहीं कर रहे हैं या उनकी फिल्में सफल नहीं हो पा रही हैं तो उनकी तरफ देखते भी नहीं हैं, उनके साथ फिल्म करना तो बहुत ही दूर की बात है। नसीर को ये समझना होगा।
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