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Saturday, June 10, 2023

कर्तव्यनिष्ठा के प्रतीक पर राजनीति


नई संसद के उद्घाटन को करीब एक पखवाड़ा होने को आया लेकिन सेंगोल पर प्रश्न अब भी उठ रहे हैं। स्वाधीनता के समय सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के तौर पर सेंगोल को लार्ड मांउटबैटन को सौंपा गया था।फिर उनसे लेकर समारोहपूर्वक जवाहरलाल नेहरू को सौंपा गया। सरकार का तर्क है कि सेंगोल को सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की सलाह पर बनाया गया था। विपक्ष इसकी प्रामाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगा रहा है। कांग्रेस इस प्रसंग को कालपनिक बता रही है। 14 अगस्त 1947 का एक चित्र भी उपलब्ध है जिसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू के हाथ में सेंगोल है और उनके साथ थिरूवावडुथुरई अधीनम के कुमारस्वामी तम्बीरमन खड़े हैं। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की सलाह पर सेंगोल तैयार करने का दायित्व थिरूवावडुथुरई अधीनम को अनुरोधपूर्वक सौंपा गया था। जिस जूलर ने सेंगोल बनया था उसने भी इसको प्रमाणित कर दिया। अभी थिरूवावडुथुरई अधीनम की तरफ से एक लिखित बयान जारी किया गया है जिसमें कहा गया है कि उन्हें इस बात का गर्व है कि वो 1947 के सेंगोल समारोह का हिस्सा रहे हैं। सरकार के आमंत्रण पर थिरूवावडुथुरई अधीनम से संतों का एक समूह सेंगोल लेकर दिल्ली गया था। वहां सबसे पहले सेंगोल को लार्ड मनाउंटबेटन को सौंपा गया। माउंटबेटन से वापस लेकर सेंगोल का गंगाजल से अभिषेक करवाया गया। अभिषेक के बाद सेंगोल को जवाहरलाल नेहरू को सौंपा गया। 

थिरूवावडुथुरई अधीनम के मुताबिक हाल ही में अधीनम का इतिहास प्रकाशित हुआ है। उस पुस्तक में सेंगोल सिरापु नाम से एक अध्याय है जिसमें भी इस बात का उल्लेख है कि सेंगोल को पहले लार्ड माउंटबेटन को सौंपा गया और उसके बाद जवाहरलाल नेहरू को। थिरूवावडुथुरई अधीनम से जुड़े मसीलामणि पिल्लै इस पूरे घटनाक्रम को अपनी आंखों से देख चुके हैं। वो इस वक्त 96 वर्ष के हैं और इस पूरे घटनाक्रम को सही बता रहे हैं। पिल्लै ने ये भी बताया कि सेंगोल से सत्ता हस्तांतरण का पूरा कार्य चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की पहल पर हुआ था। इस बात के भी प्रमाण हैं कि 1947 में मद्रास के कलेक्टर थिरूवावडुथुरई अधीनम आए थे और उन्होंने सेंगोल की व्यवस्था के कार्य को परखा था। कुछ लोग प्रश्न उठा रहे हैं कि अगर माउंटबेटन को सेंगोल सौंपा गया था तो उसकी कोई तस्वीर क्यों नहीं है। अधीनम ने उसका भी उत्तर दिया है कि माउंटबेटन से मिलने संतों का जो समूह गया था उसमें कोई कैमरामैन नहीं था। सवाल ये उठता है कि थिरूवावडुथुरई अधीनम के दावों पर प्रश्न क्यों उठाए जा रहे हैं। जब उस पूरी घटना के दो जीवित गवाह हैं जो ये कह रहे हैं कि माउंटबेटन को सेंगोल सौंपा गया था उसके बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू को सौंपा गया। उनके बयान के बाद संदेह की गुंजाइश बचती कहां है। सेंगोल से सत्ता हस्तांतरण की परंपरा चोल राजवंश में थी उसको स्वतंत्र भारत में सनातन से जोड़कर अपनाया गया। समाज के उस हिस्से को सेंगोल बनाने और सत्ता हस्तांतरण समारोह की जिम्मेदारी दी गई जो गैर ब्राह्मण थे, लेकिन शिव और सनातन में उनकी आस्था थी। थिरूवावडुथुरई अधीनम तमिलनाडू के शिवभक्तों का एक बड़ा और प्रभावशाली समूह है। इस समुदाय को स्वाधीन देश से जोड़ने का चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का सोच था जिसको माउंटबेटन से लेकर नेहरू तक ने माना था।   

सेंगोल की कहनी पर प्रश्न उठ रहे हैं तो पंडित नेहरू से जुड़ा एक और प्रसंग याद आ रहा है। उस प्रसंग को बताने के पहले नेहरू के बारे में आधुनिक भारत के इतिहासकारों की राय देखते हैं। लगभग सभी इतिहासकारों ने इस बात पर बल दिया है कि नेहरू धर्म को शासन से अलग रखना चाहते थे। उनकी छवि भी इसी प्रकार से गढ़ी गई कि वो सरकारी कामों से धर्म को अलग रखना चाहते थे। इतिहासकारों से इस आकलन में चूक हुई। नेहरू सत्ता में बने रहने के लिए इस तरह का कार्य किया करते थे। जब उनको लगता था कि सत्ता के लिए या राजनीति के लिए धर्म का उपयोग आवश्यक है तो वो बिल्कुल नहीं हिचकते थे। अब उस प्रसंग पर आते हैं जिससे ये बात साफ भी हो जाएगी। तिथि 14 अगस्त 1947। शाम के समय डा राजेन्द्र प्रसाद के घर पूजा और हवन आदि का आयोजन किया गया। हिंदू पुरोहितों को बुलाया गया था कि वो हवन आदि करवाएं। भारत की नदियों से पवित्र जल मंगवाए गए थे। डा राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू हवन कुंड के सामने बैठे थे और वहां उपस्थित महिलाओं ने दोनों के माथे पर चंदन का तिलक लगाया। फिर नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद ने हवन आदि किया। पूजा और हवन के पहले नेहरू ने सार्वजनिक रूप से ये स्टैंड लिया था कि उनको ये सब पसंद नहीं है। तब उनके कई मित्रों ने समझाया कि सत्ता प्राप्त करने का हिंदू तरीका यही है। नेहरू इस हिंदू तरीके को अपनाने को तैयार हो गए। इसका उल्लेख ‘आफ्टरमाथ आफ पार्टिशन इन साउथ एशिया’ नाम की पुस्तक में मिलता है। कई अन्य जगहों पर भी। बावजूद इसके आधुनिक भारत के अधिकतर इतिहासकारों ने नेहरू के व्यक्तित्व को धर्म से निरपेक्ष व्यक्तित्व के तौर पर गढ़ा। 

नेहरू से जुड़ा एक और किस्सा है। 1952 में लोकसभा का चुनाव चल रहा था। नेहरू उत्तर प्रदेश के फूलपुर में एक स्थान पर चुनावी सभा कर रहे थे। तभी उसी रास्ते से स्थानीय राजा अपने हाथी पर सवार होकर निकले। नेहरू की सभा के कारण राजा और उनके हाथी को रोक दिया गया। राजा नाराज हो गए। मंच पर बैठे नेहरू को जब इस बात का पता चला तो वो वहां से उतरकर राजा के पास पहुंचे। वहां पहुंचकर नेहरू ने महाराज की जय हो कहकर उनका अभिवादन किया। राजा खुश हो गए। हाथी से उतरकर नेहरू के साथ मंच पर गए और सभा में उपस्थित जनता से नेहरू को वोट देने की अपील कर दी। उसके बाद राजा वहां से चले गए। राजा के जाने के बाद नेहरू ने उस अधिकारी को समझाया कि राजा को जयकारे की जरूरत थी और और मुझको वोट की। मैंने राजा की इच्छा पूरी की और उन्होंने मेरी। इसी तरह से लेनार्ड मोस्ले की 1961 में प्रकाशित पुस्तक द लास्ट डेज आफ ब्रिटिश राज में इस बात का उल्लेख मिलता है कि नेहरू रेडक्लिफ को भारत पाकिस्तान के सीमा निर्धारण के लिए अधिक समय देने के पक्ष में नहीं थे। उनको लगता था कि जल्द से जल्द भारत की स्वाधीन सरकार बने। सीमा निर्धारण बाद में दोनों देश आपसी सहमति से कर लेंगे। परिणाम सबके सामने है। 

सेंगोल प्रकरण में प्रश्न तो ये उठाया जाना चाहिए कि भारत के इतिहास का इतना महत्वपूर्ण अध्याय क्यों दब या दबा दिया गया। सेंगोल जैसा महत्वपूर्ण प्रतीक राष्ट्रीय संग्रहालय में न होकर प्रयागराज के संग्रहालय में क्यों और कैसे पहुंचा। सनातन को मानने वाले समाज के पिछड़े वर्ग के समूह अधीनम को प्रतिनिधित्व देने के राजा जी की इंक्लूसिव सलाह को इतिहास के पन्नों में गुम करने का षडयंत्र किसने रचा। देश इन प्रश्नों का उत्तर चाहता है। कहानियों में उलझाने से बेहतर है कि इन प्रश्नों पर बात हो। 

1 comment:

Nitish Tiwary said...

बहुत सुंदर लेख।