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Saturday, June 17, 2023

उद्देश्य बदलने की आवश्यकता


आज देश की राजनीति में नेहरू से जुड़ा कोई प्रसंग अगर आता है तो उसपर फौरन राजनीति आरंभ हो जाती है। पक्ष विपक्ष के बीच बयानों के तीर चलने लगते हैं। कुछ दिनों के बाद मामला शांत हो जाता है। ताजा मामला नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय से जुड़ा हुआ है। दिल्ली के इस परिसर का नाम बदलकर प्रधानमंत्री संग्रहालय और पुस्तकालय कर दिया गया है। उसी परिसर में नेहरू समेत भारत के सभी प्रधानमंत्रियों का एक विश्वस्तरीय संग्रहालय बनाया गया था। इसके आधार पर ही नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय सोसाइटी के सदस्यों ने इसका नाम बदलने का निर्णय लिया। कांग्रेस के नेता सोसाइटी के इस कदम से आगबबूला हैं। कांग्रेस अध्यक्ष ने लंबा ट्वीट लिखकर इसपर अपनी आपत्ति जताई और भारतीय जनता पार्टी को निशाने पर लिया। ये तो हुई राजनीति की बातें। जब भी किसी जिले, शहर, भवन या रोड आदि का नाम बदला जाता है उसपर विवाद उठते ही रहते हैं। बयानबाजी और राजनीति भी होती ही है। ये तो स्वाधीनता के बाद से ही चलता आया है। कांग्रेस की इस बात लेकर आलोचना होती रही है कि देशभर में सैकड़ों सड़कों, भवनों, संस्थानों आदि के नाम नेहरू, इंदिरा, राजीव और संजय गांधी के नाम पर रखे गए। बाद की सरकारों ने भी अपने नेताओं या अपनी विचारधारा से जुड़े लोगों के नाम पर भवनों, सड़कों आदि के नाम रखे। कभी कम तो कभी अधिक विवाद हुए। लेकिन आज हम बात कर रहे हैं नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय के नाम बदले जाने पर उठे विवाद की। 

पहले जान लेते हैं कि नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय किन परिस्थियों में और किन उद्देश्यों को लेकर बनाया गया था। नेहरु की कैबिनेट में शिक्षा मंत्री रहे मोहम्मदअली करीम छागला की आत्मकथा है रोजेज इन दिसंबर। ये पुस्तक भारतीय विद्या भवन से प्रकाशित है। इसमें छागला ने नेहरू के कालखंड की बहुत सारी स्मृतियों को सहेजा है। उन्होंने स्वाधीन भारत में इतिहास लेखन आरंभ करने के प्रसंग पर भी लिखा है। छागला औपनिवेशिक इतिहासकारों के लिखे से संतुष्ट नहीं थे। देश के इतिहास को नए सिरे से लिखवाने के लिए उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में लेक्चरर रहीं मिस थापर को चुना था। छागला के मुताबिक मिस थापर तर्कवादी और आधुनिक सोच वाली महिला थीं। पूर्वाग्रह से भी मुक्त। उन्होंने इतिहास की दो पुस्तकें तैयार की। इसके अलावा वो नेहरू संग्रहालय और पुस्तकालय की स्थापना की कहानी भी बताते हैं। लिखते हैं कि, ‘नेहरू के निधन के बाद मैंने ये व्यवस्था की कि तीन मूर्ति भवन का एक हिस्सा उसी तरह से संजोया जाए जिस तरह  नेहरू के जीवित रहते हुआ करता था। मैं चाहता था कि पूरे भारवर्ष से लाखों लोग आएं और इस घऱ को राष्ट्र मंदिर के तौर पर देखें। उस वक्त के राष्ट्रपति राधाकृष्णन ने एक भव्य समारोह में तीनमूर्ति भवन को इस उद्देश्य के लिए समर्पित किया। लेकिन मैं ये नहीं चाहता था कि ये सिर्फ एक संग्रहालय के तौर पर रहे मृतप्राय स्थिति में रहे बल्कि मेरी इच्छा थी कि ये विचार और आदर्श के जीवंत केंद्र के रूप मे विकसित हो। इसको ध्यान में रखते हुए वहां एक पुस्तकालय की स्थापना की गई। इस पुस्तकालय में आधुनिक भारत की प्रगति से संबंधित पुस्तकें और सामग्री रखने की योजना बनी। इसको ध्यान में रखते हुए इस विषय से संबंधित उपलब्ध पुस्तकों को जुटाया गया। छात्रों को पुस्तकें लिखने के लिए प्रेरित किया गया। उन लोगों के अनुभवों को टेप पर रिकार्ड किया गया जो नेहरू से मिले थे। अब समस्या थी एक ऐसे निदेशक को खोजने की जो इस तरह के कार्यों में रुचि रखता हो। फिर मेरी नजर रेल मंत्रालय में काम करनेवाले श्रीमान नंदा पर नजर गई। उन्होंने कुछ पुस्तकें लिखी थीं, जो मैंने देखी थीं। मैंने उनको नेहरू संग्रहालय में नियुक्त कर दिया।‘ इस प्रसंग को बताने के क्रम में वो ये भी स्वीकार करते हैं कि नेहरू संग्रहालय और पुस्तकालय की स्थापना के बाद देश में इतिहास लेखन को प्रोत्साहन मिला।

छागला की आत्मकथा के इस प्रसंग के कई बातें ध्वनित होती हैं जो नेहरू संग्रहालय और पुस्तकालय की स्थापना के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हैं। एक तो ये कि उस वक्त की सरकार नेहरू संग्रहालय और पुस्तकालय को राष्ट्र मंदिर के तौर पर स्थापित करना चाहती थी। एक ऐसा राष्ट्र मंदिर जहां नेहरू देवता के तौर पर स्थापित हों और देश की जनता उनको और उनके विचारों की पूजा करे। छागला ने जो लिखा है उससे स्पष्ट है कि इस केंद्र को इतिहास लेखन के केंद्र के रूप में विकसित करने की भी योजना बनी। इतिहास लिखा भी गया। किस तरह का इतिहास लिखा गया ये सबको पता है। अगर आप किसी व्यक्ति को केंद्र में रखकर राष्ट्र मंदिर बनाएंगे तो वहां लिखा जाने वाला इतिहास भी तो उस व्यक्ति की महत्ता को स्थापित करने के कार्य में जुटेगा। ठीक से याद नहीं है लेकिन किसी अन्य पुस्तक में इस बात भी उल्लेख है कि इंदिरा गांधी भी चाहती थीं कि तीन मूर्ति किसी भी कीमत पर सरकार के पास नहीं जाए और वहां नेहरू से जुड़ी चीजें आदि रखी जाएं। रही बात इसको आदर्श वैचारिक केंद्र बनाने की तो वो ये केंद्र कभी बन नहीं पाया। यहां के जो भी निदेशक हुए उनमें से अधिकतर ने जो कार्य करवाए उसके केंद्र में नेहरू और कांग्रेस रही। ज्यादा पीछे नहीं जाते हुए एक उदाहरण देता हूं। 2011 में कांग्रेस पार्टी के इतिहास पर केंद्रित दो खेंडो में पुस्तक आई। नाम था कांग्रेस एंड द मेकिंग आफ द इंडियन नेशन। इस पुस्तक के प्रधान संपादक थे प्रणब मुखर्जी और इसको तैयार करने में मृदुला मुखर्जी, आदित्य मुखर्जी और अन्य की भूमिका थी। अब जरा जान लीजिए कि मृदुला मुखर्जी कौन हैं। वो नेहरू संग्रहालय और पुस्तकालय की निदेशक थीं। उनको सोनिया गांधी का आशीर्वाद प्राप्त था। जब रामचंद्र हुहा के नेतृत्व में उनको नेहरू मेमोरियल के निदेशक पद से हटाने की मुहिम चली थी तो उन्होंने एक प्रसंग में कहा था कि उनको सोनिया गांधी का मैंडेट प्राप्त है। तब ये प्रश्न मुखरता से नहीं उठा था कि सोनिया गांधी ने किस हैसियत से नेहरू संग्रहालय और पुस्तकालय के निदेशक को मैंडेट दिया था। इस प्रसंग का उल्लेख इस कारण कर रहा हूं कि छागला ने जिस सोच के साथ नेहरू स्मारक औऐर संग्रहालय की स्थापना की थी उसको कालांतर में खाद पानी डालकर पोसा गया। नेहरू संग्रहालय और पुस्तकालय के अलावा नेहरू स्मारक निधि भी उसी परिसर से चलता है। इस निधि से शोध करने के लिए भी धन दिया जाता है। इस निधि से शोध करनेवाले शोधार्थियों की सूची और उनके विषयों पर नजर डाल लीजिए पता चल जाएगा कि कैसे एक परिवार और पार्टी विशेष को केंद्र में रखकर इसको चलाया जा रहा था। 

अभी तो नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय का नाम बदला गया है। सोसाइटी को ये निर्णय करना चाहिए कि भारत के सभी प्रधानमंत्रियों के कालखंड में देश को प्रभावित करने या दिशा देनेवाली घटनाएं घटी हैं उनपर शोध हो। उनका दस्तेवाजीकरण किया जाए। उन घटनाओं से जुड़े लोगों के साक्षात्कार रिकार्ड करवाकर इस पुस्तकालय में रखे जाएं ताकि आनेवाली पीढ़ियों के शोधार्थियों को देश के सभी प्रधानमंत्रियों के योगदान के बारे में जानकारी उपलब्ध हो सके। संस्कृति मंत्रालय के अधीन आनेवाले इस संस्थान को इस ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। देश के सभी प्रधानमंत्रियों ने इस राष्ट्र के निर्माण में अपना योगदान दिया है। उनके विचारों को और उनके समय की परिस्थियों को जानने का अधिकार हर भारतीय को है। अगर ऐसा हो पाता है तो इस संग्रहालय के नाम बदलने की सार्थकता सिद्ध होगी अन्यथा तो बस राजनीति और बयानों के भंवर में ये मुद्दा खो जाएगा.

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