हाल ही में जब नई दिल्ली में विपक्षी दलों के गठबंधन आईएनडीआईए की बैठक हुई तो राहुल गांधी और सीताराम येचुरी की साथ बैठी तस्वीरें सामने आईं। इसी तरह जब विपक्षी दलों के नेता नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर सांसदों के निलंबन पर विरोध जताने के लिए जुटे तो उसमें भी राहुल गांधी और सीताराम येचुरी एक दूसरे का हाथ थामे नजर आए। इन दोनों जगहों पर कांग्रेस और कम्युनिस्टों की निकटता ही नहीं दिखी बल्कि उनके साथ में एक विशेष प्रकार का उत्साह भी दिखा। इस प्रसंग की चर्चा इस कारण से कर रहा हूं कि कुछ दिनों पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अजीत कुमार पुरी की पुस्तक स्वतंत्रता संग्राम, समाजवाद और श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी के लोकार्पण समारोह में उपस्थित रहने का अवसर मिला। कार्यक्रम में मुझे भी पुरी जी की पुस्तक और श्रीरामवृक्षबेनीपुरी जी पर बोलना था। इस वजह से समारोह में जाने के पहले बेनीपुरी की डायरी के पन्ने को पलट रहा था। अचानक नजर एक जगकह जाकर रुकी, तारीख थी, 11 दिसंबर 1957। उस दिन बेनीपुरी जी ने अपनी डायरी में लिखा, आज बेनीपुर से पटना लौट रहा हूं। इधर 15 नवंबर से ही भाई अशोक मेहता के चुनाव के चक्कर में रहा। वह मुजफ्फरपुर-सदर निर्वाचन क्षेत्र से पार्लियामेंट के उम्मीदवार थे। आज से मतगणना शुरू हुई है, तीन थानों में आधे निर्वाचन क्षेत्र में 2700 वोट से जीत गए हैं। आधे में भी विजयी होंगे, ऐसा विश्वास है। दरअसल बेनीपुरी जी प्रख्यात समाजवादी नेता अशोक मेहता के चुनाव की बात कर रहे थे। 1957 में अशोक मेहता ने बिहार के मुजफ्फरपुर से लोकसभा का चुनाव लड़ा था। उस समय समाजवादी नेता अशोक मेहता का कम्युनिस्टों ने विरोध किया था और कांग्रेस के उम्मीदवार नहीं खड़ा करने की घोषणा के बाद भी अपना उम्मीदवार खड़ा कर अपनी पार्टी के असली चरित्र के दर्शन करवाए थे। तब मतपत्रों से चुनाव होता था और उसकी गिनती में कई दिन लग जाते थे।
उसी दिन डायरी में बेनीपुरी जी ने आगे लिखा, अजीब चुनाव रहा यह। भाई अशोक की विद्वता का ख्याल करके कांग्रेस ने यह सीट छोड़ दी। साथियों ने सोचा, अब क्या है, आसानी से विजय मिल जाएगी। किंतु बीच में कम्युनिस्ट आ टपके। हमारे किशोरी भाई उनके उम्मीदवार! फिर क्या था, सिद्धांत गया ताखे पर- जाति के नाम पर, जिले के नाम पर वह बावला मचाया गया, कि हम चकित रहे और प्रांत भर के कम्युनिस्ट कार्यकर्ता गांव-गांव में डेरे डालकर पड़ गए। कोई भी उपाय नहीं छोड़ा गया। हमें कदम कदम पर लड़ना पड़ा। आज की गणना से थोड़ा इत्मीनान हुआ। ...कांग्रेस कार्यकर्ताओं का कम्युनिस्टों के साथ गठबंधन देखकर हैरान रह जाना पड़ा। अशोक हमारी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के यशस्वी संपादक। विचारक अर्थशास्त्री। श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी की इस टिप्पणी से स्पष्ट है कि उस चुनाव में कम्युनिस्टों ने सिद्धांत को ताखे पर रख दिया था। जातिवाद और प्रांतवाद का खेल जमकर खेल गया था। दरअसल अशोक मेहता बांबे (अब मुंबई) के थे और बिहार से आकर चुनाव लड़ रहे थे। वो दौर ऐसा था कि कई अन्य प्रांतों के नेता बिहार से आकर चुनाव लड़ते थे। मधु लिमय ने मुंगेर से और जार्ज फर्नांडिस ने मुजफ्फरपुर और बांका से चुनाव लड़ा था। जीते भी थे। बेनीपुरी की डायरी में दर्ज इस टिप्पणी पर गौर करना चाहिए कि कांग्रेस और कम्युनिस्टों के गठबंधन को देखकर उनको हैरानी हुई थी। हैरानी दरअसल कम्युनिस्टों की उस राजनीति को देखकर हुई थी जिसमें उन्होंने जाति और प्रांत का कार्ड खेला था। असामनता और विभेद की राजनीति का दंभ भरनेवाली विचारधारा का असली चेहरा खुला था।
12 दिसंबर 157 को श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी ने अपनी डायरी में बहुत छोटी सी टिप्पणी दर्ज की। लिखा, और वही होकर रहा, अशोक जीत गए। चौदह हजार वोटों से। कम्युनिस्ट हारे, जातिवाद की हार हुई, प्रांतवाद की हार हुई। अशोक की जीत, जनतंत्र की जीत, समाजवाद की जीत, राष्ट्रीयता की जीत, विद्वता की जीत, देशभक्ति की जीत! हिप-हिप हुर्रे!! इस पूरी टिप्पणी से बेनीपुरी की प्रसन्नता दिख रही है। कम्युनिस्टों की हार को उन्होंने जातिवाद और प्रांतवाद की हार से जोड़ा और अशोक की जीत को उन्होंने राष्ट्रीयता और देश भक्ति के साथ समाजवाद और विद्वता से जोड़ा। भारत में जो समाजवाद पनपा वो साम्यवाद से अलग था। उसमें देशभक्ति और राष्ट्रीयता के गुण और भारतीयता कूट कूट कर भरी थी। बहुधा ये बेनीपुरी के लेखन में दिखती भी है। एक बार बेनीपुरी कलकत्ता (अब कोलकाता) गए। वहां बंगीय परिषद की सभा में उन्होंने सीता की मां नाम की रचना सुनाई। फिर पत्रकारों की एक सभा हुई उसमें कम्युनिस्टों ने कुछ उल्टा पुल्टा बोल दिया तो बेनीपुरी भड़क गए। उन्होंने लिखा है, पत्रकारों की ओर से जो सभा हुई, उसमें कम्युनिस्टों ने कुछ ऊटपटांग बातें कहीं। बस, मेरा देवता जाग गया और लोगों ने कहा कि मैंने बड़ा ही ओजपूर्ण भाषण दिया। कितनी खूबसूरती से उन्होंने बताया कि कम्युनिस्टों की क्या गत की।
बेनीपुरी जी कम्युनिस्टों की मौकपरस्त राजनीति से खिन्न रहते थे। उनको लगता था कि कम्युनिस्ट कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। इस तरह के संकेत उनकी डायरी के पन्ने में यत्र-तत्र बिखरे हैं। समाजवादी लोग राष्ट्र और भारतीय संस्कृति के साथ चलनेवाले थे जबकि साम्यवादियों की राष्ट्र में आस्था न थी, न है। बेनीपुरी शाश्वत भारत या सांस्कृतिक भारत की बात करनेवाले लेखक और राजनेता थे। वो इस सांस्कृतिक भारत के खान पान, रहन सहन, गीत-नृत्य, पर्व-उत्सव, आनंद-विनोद आदि में एकात्मता देखते थे । उनका मानना था कि राजनीतिक उलटफेरों के बावजूद संपूर्ण भारत में आदिकाल से एक अविच्छिन्न सांस्कृतिक धारा प्रवाहित होती रही है। समय समय पर उसका चित्रण किया जाना चाहिए। बेनीपुरी जब भी इस सांस्कृतिक धारा में किसी प्रकार की बाधा देखते या बाधा की आशंका को भांपते तो उसका सार्वजनिक रूप से लिखकर और बोलकर प्रतिकार करते। मुजफ्परपुर लोकसभा चुनाव के समय कम्युनिस्टों और कांग्रेस के साथ आने पर उन्होंने तब भी कहा था और बाद में भी कहते रहे।
हलांकि कांग्रेस ने कम्युनिस्टों का स्वाधीनता के बाद से ही साथ लेना आरंभ कर दिया था। नेहरू का झुकाव साम्यवाद की ओर था और उसके ऐतिहासिक कारण थे। इंदिरा गांधी ने भी कम्युनिस्टों का साथ लिया, समर्थन के एवज में उनको कला संस्कृति और शिक्षा से जुड़ी सरकारी संस्थाएं आउटसोर्स कर दीं। लेकिन इन दोनों ने कभी भी कम्युनिस्टों को हावी नहीं होने दिया। जब आवश्यकता पड़ी कम्युनिस्टों का अपनी और अपनी राजनीति के हक में उपयोग किया, उनको उसका ईनाम दिया और फिर आगे चल पड़े। हाल के दिनों में जिस प्रकार से कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की कम्युनिस्टों से निकटता बढ़ी है, जिस प्रकार से कम्युनिस्ट विचारधारा वाले लोग कांग्रेस पार्टी को चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे हैं वैसे में ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस की राजनीतिक चालें भी वहीं लोग तय कर रहे हैं। दरअसल ऐसा तब होता है जब पार्टी में विचारवान नेताओं की कमी हो जाती है। उनको अपनी राजनीतिक राय बनाने के लिए किसी के सहारे की जरूरत होती है। कम्युनिस्टों की एक विशेषता है कि वो बातें बड़ी अच्छी करते हैं, गरीबों और मजदूरों की बातें करते हैं जो किसी को भी लुभाने का सामर्थ्य रखती हैं। सैद्धांतिक धरातल पर इन बातों का असर होता भी है लेकिन जब उनको यथार्थ की धरातल पर उतारने की बात आती है तो सारे सिद्धांत धरे रह जाते हैं। वो भी जात-पात और अन्य प्रकार की बातें करने लग जाते हैं। बेनीपुरी जी जैसे और उनके बाद की पीढ़ी के लेखकों का ना केवल साम्यवाद से मोहभंग होता है बल्कि साफ तौर पर बगैर हिचके सिद्धांतों को ताखे पर रखने की बात भी कह जाते हैं।
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