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Saturday, December 30, 2023

शिवपूजन सहाय का हिंदू मन


हाल ही में कांग्रेस पार्टी ने अपने पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की भारत न्याय यात्रा की घोषणा की है। ये यात्रा मणिपुर से आरंभ होकर मुंबई तक जाएगी। इसके पहले भी राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक की भारत जोड़ो यात्रा की थी। उस यात्रा का उद्देश्य भारत के विभिन्न समुदायों के बीच फैल रही वैमनस्यता को कम करना था। हिंदू मुसलमान एकता की बात की गई थी। उस यात्रा के समय कांग्रेस और वामपंथी इकोसिस्टम की तरफ से इस तरह का विमर्श स्थापित करने का प्रयास किया गया था कि देश में हिंदू और मुसलमानों के बीच मतभेद की खाई लगातार चौड़ी हो रही है। इन तथाकथित बुद्धिजीवियों ने बढ़चढ़कर दावा किया था नरेन्द्र मोदी, उनकी पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग हिंदू मुसलमान के बीच विभाजन को गाढ़ा करवाकर अपनी राजनीति चमका रहे हैं। ऐसा करके वो सायास मुसलमानों को मन में भय का वातावरण बनाने और हिंदुओं को बरगलाने का काम कर रहे थे। कांग्रेसी-वामपंथी इकोसिस्टम से जुड़े लोग पहली बार इस तरह का कार्य कर रहे हों ऐसा नहीं है। स्वाधीनता के बाद से ही इस इकोसिस्टम के लोग साहित्य, कला,संस्कृति और इतिहास लेखन से इस तरह का वातावरण बनाते रहे हैं। साहित्य में तो इस तरह का कार्य धड़ल्ले से हुआ। रामचंद्र शुक्ल हों या प्रेमचंद या निराला, उनके हिंदू जीवन और हिंदू प्रेम पर लिखी रचनाओं को ओझल कर उन सबको जबरदस्ती वामपंथी दिखाने का प्रयास किया गया। जबतक कांग्रेस पार्टी की सरकारें रहीं तो इस इकोसिस्टम को सरकारी संरक्षण मिलता रहा। संस्थाओं पर इनके लोग ही रखे जाते रहे और बदले में वो इस तरह के विमर्श को गाढ़ा करते रहे। तथ्यों की अनदेखी करके लेखन करवाते रहे। जिन भी साहित्यकारों और लेखकों ने हिंदू-मुसलमान संबंधों पर खुलकर लिखा या जिन्होंने राम या अन्य हिंदू देवी-देवताओं का उल्लेख किया, उन लेखों या रचनाओं को ओझल करने का खेल खेला गया। 

बिहार के एक बहुत ही महत्वपूर्ण रचनाकार हुए शिवपूजन सहाय। शिवपूजन बाबू ने विपुल लेखन किया, पत्रिकाओं का संपादन किया लेकिन उनके कृतित्व को हिंदी साहित्य में वो स्थान नहीं मिला जिसके वो अधिकारी हैं। कांग्रेस-वामपंथी इकोसिस्टम से जुड़े आलोचक अगर शिवपूजन सहाय की रचनाओं पर समग्रता में विचार करते तो सच सामने आता। शिवपूजन सहाय का साहित्य समग्र भी उनके पुत्र मंगलमूर्ति के प्रयत्नों से उनके ही संपादन में प्रकाशित हो पाया। शिवपूजन सहाय परम रामभक्त थे। वो अपनी डायरी में सैकड़ों जगह राम, रामकृपा और भगवान की इच्छा जैसी बातें लिखते हैं लेकिन उनके इस लेखन के बारे में बहुत ही कम चर्चा की गई। देश के विभाजन से लेकर चीन युद्ध तक शिवपूजन सहाय ने बेहद कठोर टिप्पणियां कीं। उन्होंने नेहरू से लेकर उनके मंत्री कृष्ण मेनन तक की आलोचना की। लेकिन नेहरू की विराट छवि बनाने में लगे कांग्रेस-वामपंथी इकोसिस्टम ने इन टिप्पणियों को दबा दिया। हमारे देश में सांप्रदायिकता को लेकर भी सहाय की टिप्पणियों को देखने की आवश्यकता है। 22 फरवरी 1946 को शिवपूजन सहाय ने अपनी डायरी में लिखा- आज संध्या समय द्विज जी आए। औरंगाबाद (गया) के मुसलमान भाइयों ने पहले से तैयारी कर रखी थी और जानबूझकर अचानक अकारण सरस्वतीपूजा के मूर्ति विसर्जन के जुलूस पर आक्रमण कर दिया तथा एक निरपराध युवक की तत्काल हत्या कर डाली। यह नृशंसता उनलोगों में प्राय: देखी जाती है। स्वाभाविक है। मांसाहारी विषय विलासी, भ्रष्टाचारी, प्राय: क्रोधी और क्रूर होते हैं। इस वाक्य के दो शब्दों, अचानक और अकारण पर विचार किया जाना चाहिए। शिवपूजन सहाय की इस टिप्पणी से 1946 में बिहार के सामाजिक जीवन में व्याप्त स्थिति का संकेत मिलता है। एक साहित्यकार का आक्रोश भी उसके शब्दों में अभिव्यक्ति पाता है। उनकी ये टिप्पणी शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र में संकलित है। 

हमारा देश अगस्त 1947 में स्वाधीन होता है। कई क्षेत्रों में हिंसा आरंभ हो जाती है। शिवपूजन सहाय साहित्य दर्पण में सितंबर 1947 में प्रश्न उठाते हैं, पंजाब के हिंदुओं और सिक्खों की की दुर्दशा ईश्वरेच्छानुसार है? मनुष्य क्यों कभी घोर संकट में पड़ता है? उनका मन इतना व्यथित है कि वो आगे कहते हैं कि जिन्ना कंस है या रावण? वह नादिरशाह का नाती है या चंगेज खां का चचा है? हिंदू-मुस्लिम एकता तबतक संभव नहीं है जबतक हिंदू संगठन दृढ़ नहीं होता। हिंदुओं में जातिपांति न रहे, स्वच्छता ही रहे। यहां ध्यान देने की आवश्यकता है कि उस समय शिवपूजन सहाय हिंदुओं के संगठित होने की बात कर रहे थे। इसी दिन आगे लिखते हैं कि जात-पांत और छुआछूत का भूत हिंदू को आज चबा रहा है। हिंदू धर्म उदार कहलाता है। मूर्खता से उदारता को चांप रखा है। राम की जैसी इच्छा। स्वाधीनता के तुरंत बाद भी संवेदनशील माने जानेवाले साहित्यकार भी ऐसा ही सोचते थे। यह अकारण नहीं है कि कांग्रेस-वामपंथी इकोसिस्टम के लोग शिवपूजन सहाय जैसे साहित्यकारों की वेदना पर चर्चा नहीं करते। आज एक बार फिर से हिंदुओं को जातियों के बीच बांटने का प्रयास राजनीति और समाज के एक वर्ग द्वारा की जा रही है। आज भी जब देश विभाजन की चर्चा होती है तो शिवपूजन बाबू के लिखे का स्मरण देखने को नहीं मिलता। शिवपूजन सहाय ने निरंतर लिखा। अक्तूबर 1953 में उन्होंने लिखा, मुसलमानों ने देश को बांटा और अब प्रांत-प्रांत, जिले-जिले, मुहल्ले-मुहल्ले को बांटकर असंख्य पाकिस्तान बना डालना चाहते हैं। उर्दू को वो क्षेत्रीय भाषा बनाने का घोर आंदोलन कर रहे हैं। अब भी इस तरह की प्रवृत्ति देखने को मिलती ही रहती है। 

इस तिथि को ही वो आगे लिखते हैं शकों और हूणों को हिंदू पचा गए, पर मुसलमान ही उनकी अंतड़ी के मक्खी बन गए। हिंदुओं में अघोर पंथ भी है पर हिंदू अपनी धार्मिक शक्ति नहीं पहचानते। मुसलमान अब पच नहीं सकते। मुसलमानों भाइयों को अब अपने में मिला लेने की शक्ति अब हममें नहीं रही। यहां पर शिवपूजन सहाय की विवशता साफ तौर पर दृष्टिगोटर होती है। वो हिंदुओं के अपनी धार्मिक शक्ति नहीं पहचानने को लेकर भी चिंतित थे। उस वक्त मुसलमानों के व्यवहार से वो बेहद खिन्न थे और निरंतर लिख रहे थे। शिवपूजन सहाय ने शेख अब्दुल्ला को देशद्रोही तक कहा था। जब शेख अब्दुल्ला के समर्थन में बिहार के मुसलमान चंदा जमा कर रहे थे तो सहाय ने चिंता जताई थी। शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र खंड 7 में अगस्त 1958 में उन्होंने हिंदुओं को अपने धर्म से प्रेम नहीं करने के लिए धिक्कारा भी था, हिंदुओं में धर्म या अपनी भाषा तथा संस्कृति के लिए वैसी ममता नहीं है जैसी मुसलमानों और ईसाइयों में । हिंदुओं में आपसी फूट बहुत है। हिंदू युवकों में भी वह स्पिरिट या भावना नहीं है जो ईसाई और मुसलमान युवकों में है। उन लोगों के पादरी और फकीर भी सचेत हैं। शिवपूजन सहाय की टिप्पणियों से ऐसा प्रतीत होता है कि वो चाहते थे कि हिंदू समाज संगठित हो। जात-पांत से ऊपर उठकर सभी हिंदू अपने देश की उन्नति और राष्ट्र को शक्ति देने के बारे में प्रयत्न करे। आज अगर कोई दल या व्यक्ति इस तरह की बात करें तो कांग्रेसी-वामपंथी इकोसिस्टम के लोग उनको संघी, सांप्रदायिक और न जाने किस किस तरह के विशेषणों से जोड़ देते हैं। आज इस तरह की बातें तो छोड़िए अगर कोई अयोध्या के राम मंदिर के बारे में अधिक बातें करने लगे, काशी विश्वनाथ मंदिर पर शोध करने लगे या मथुरा के श्रीकृष्ण जन्म स्थान पर विमर्श आरंभ करे तो उसको भी इकोसिस्टम वाले सांप्रदायिक और देश को तोड़नेवाले विचार-वाहक के तौर पर चिन्हित करने में जुट जाएंगे। आज आवश्यकता है भारत खोजो यात्रा की। उस भारत को जहां हमारी ज्ञान-परंपरा है और जिसे कांग्रेसी-वामपंथी इकोसिस्टम ने ओझल कर रखा है। 

1 comment:

Dr. Vinay Sumar Singh said...

एक शोधप्रज्ञ लेखक का तथ्यपूर्ण आलेख!