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Saturday, August 31, 2024

पुस्तकालयों पर समग्र नीति की दरकार


इंटरनेट मीडिया के इस दौर में रील्स की लोकप्रियता बढ़ रही है। कई बार छोटे छोटे वीडियो से महत्वपूर्ण जानकारियां मिल जाती हैं। पिछले दिनों इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म फेसबुक पर वीडियो देख रहा था तो राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के फेसबुक पेज पर इसी वर्ष 23 जुलाई को पोस्ट किया गया एक वीडियो पर रुक गया। ये संसद में प्रश्न काल का वीडियो है। इसमें ओडिशा से भारतीय जनता पार्टी की सांसद अपराजिता सारंगी ने नेशनल लाइब्रेरी मिशन की प्रगति जाननी चाही थी। अपराजिता सारंगी ने प्रश्न की भूमिका में ये कहा था कि पुस्तकालय किसी भी देश में ज्ञान तक पहुंचने की प्रक्रिया का एक अंग है। फरवरी 2014 में शुरु किए गए नेशनल लाइब्रेरी मिशन का उद्देश्य पूरे भारत में ज्ञान का प्रसार करना था। 2014 से लेकर अबतक इस प्रक्रिया में क्या किया गया और जनता को इसके बारे में बताने के क्या क्या उपक्रम किए गए। उत्तर संस्कृति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत ने दिया क्योंकि ये उनके ही मंत्रालय के अंतर्गत आता है। उन्होंने बताया कि संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार पुस्तकालय राज्यों का विषय है। इस कारण से लोगों को इसके साथ जोड़ना, जनजागरण करना आदि की प्राथमिक जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है। केंद्र सरकार राष्ट्रीय पुस्तक मिशन के द्वारा राज्य सरकारों को धनराशि और संसाधन मुहैया कराती है। इस क्रम में उन्होंने सदन को जानकारी दी कि राजा राममोहन लाइब्रेरी फाउंडेशन के माध्यम से राज्य सरकारें सहायता प्राप्त कर सकती हैं। 

मंत्री जी ने जब संसद में राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन का नाम लिया तो लगा कि इस संस्थान के बारे में पता करना चाहिए। यह संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध एक स्वायत्तशासी संस्था है। देशभर में सार्वजनिक पुस्तकालयों को सहयोग करने और उसको मजबूत करने के लिए केंद्र सरकार की नोडल एजेंसी है। इस संस्था का प्रमुख कार्य देशभर में पुस्तकालय संबंधित गतिविधियों को मजबूत करना तो है। इस संस्था के अध्यक्ष संस्कृति मंत्री या उसके द्वारा नामित व्यक्ति होते हैं। वर्तमान संस्कृति मंत्री इसके अध्यक्ष हैं। इसके महानिदेशक का अतिरिक्त प्रभार प्रो बी वी शर्मा के पास है। फाउंडेशन के नियमों के मुताबिक संस्कृति मंत्री किसी को इस संस्था का अध्यक्ष नामित कर सकते हैं। कंचन गुप्ता जी 2021 तक इसके अध्यक्ष रहे। उनके पद त्यागने के बाद संस्कृति मंत्री ने किसी भी व्यक्ति को नामित नहीं किया। यह संस्था केंद्रीय स्तर पर पुस्तकों की खरीद करती है। राज्य सरकारों को भी पुस्तकों की खरीद के लिए अनुदान देती है। अगर राज्य सरकार 25 लाख पुस्तकों की खरीद के लिए देती है तो फाउंडेशन भी 25 लाख की राशि उस राज्य सरकार को देती है। लंबे समय से ये संस्था पुस्तकों की खरीद और राज्य सरकारों को अनुदान देने तक सिमट गई। अब तो पुस्तकों की खरीद भी नहीं हो पा रही है। उपलब्ध जानकारी के मुताबिक एक अप्रैल 2021 से 31 मार्च 2024 तक पुस्तक चयन समिति की केवल एक बैठक हो सकी। खरीदी गई पुस्तकों की जो सूची वेबसाइट पर है उसको देखकर ही अनुमान हो जाता है कि खरीद में कुछ न कुछ गड़बड़ है। फाउंडेशन की समिति की आखिरी बैठक भी 24 नवंबर 2022 को हुई थी। फाउंडेशन के नियमों के अनुसार वर्ष में इस समिति की एक बैठक होना अनिवार्य है। पिछले दो वर्षों से बैठक का ना होना संस्थान के प्रति संस्कृति मंत्रालय की उदासीनता को दिखाता है। संस्कृति मंत्रालय के क्रियाकलापों पर भी प्रश्न चिन्ह लगाता है। इस वर्ष मार्च में फाउंडेशन के नए सदस्यों बनाए जा चुके हैं। छह महीने बीत जाने के बाद भी अबतक इसकी कोई बैठक नहीं हो पाई है। न ही संस्कृति मंत्री ने किसी को अध्यक्ष नामित किया जो उनकी अनुपस्थिति में बैठक कर सके। 

राजा राममोहन राय लाइब्रेकी फाउंडेशन में पुस्तकों की खरीद में भ्रष्टाचार की कई कहानियां साहित्य जगत में गूंजती रहती हैं। कई बार तो ऐसा सुनने को मिलता है कि ‘हरियाणा में कैसे करें खेती’ जैसी पुस्तक मणिपुर या सिक्किम के पुस्तकालयों के लिए खरीद ली गईं। हिंदी में एक चुटकुला चलता है। अगर कोई पुस्तक महंगी है तो लोग फटाक से पूछते हैं कि क्या ये राजा राममोहन राय लाइब्रेरी संस्करण है। जो पुस्तक बाजार में या विभिन्न ईकामर्स साइट्स पर चार सौ रुपए की है वो वहां आठ सौ रुपए की खरीदने का आरोप भी संस्था पर लगता रहता है। बड़ी संख्या में चर्च लिटरेचर की खरीद की खबरें भी आईं थीं। हिंदी प्रकाशन और साहित्य जगत में माना जाता है कि राजा राम मोहनराय लाइब्रेरी फाउंडेशन भ्रष्टाचार का अड्डा बन चुका है। इस संस्थान को अगर बचाना है तो इसके क्रियाकलापों पर नए सिरे से विचार करना होगा। इसके नियमों में बदलाव करना होगा। अगर गंभीरता से देश में पुस्तकालय अभियान को चलाना है तो फाउंडेशन समिति की नियमित बैठक करनी होगी। अन्यथा करदाताओं की गाढ़ी कमाई का पैसा बर्बाद होता रहेगा।

पुस्तकालयों को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पिछले दस वर्षों से निरंतर बोल रहे हैं। याद पड़ता है कि किसी समारोह में तो उन्होंने घर में पूजा स्थान और पुस्तकालय दोनों की अनिवार्यता पर बल दिया था। उसके बाद भी कई अन्य अवसरों पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पुस्तकों और पुस्तकालयों की महत्ता पर बोलते रहे हैं। जब जी 20 शिखबर सम्मेलन होने वाला था तो उस दौर में पुडुचेरी में जी 20 लाइब्रेरी समिट हुआ था। उसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पुस्तकालयों को मानवता का सबसे अच्छा मित्र बताया था। उन्होंने कहा था कि पारंपरिक रूप से पुस्तकालय वो स्थान हैं जहां विचारों का आदान-प्रदान होता है और नए विचार जन्म लेते हैं। अपने उस भाषण में प्रधानमंत्री ने पुस्तकालयों को नई तकनीक से जोड़ने पर बल दिया था लेकिन पुस्तकों के प्रति युवाओं के मन में लगाव को बढ़ाने की कोशिश करने की अपील भी की थी। राजा राममोहन लाइब्रेरी फाउंडेशन की हालत को देखकर इस बात का अनुमान होता है कि वो संस्कृति मंत्रालय की प्राथमिकता में नहीं है। इस स्तंभ में पहले भी इस बात की चर्चा की जा चुकी है कि देश में पुस्तकालयों को लेकर एक समग्र नीति बने। पुस्तकालयों को इस तरह से बनाया जाए कि उसमें बैठकर युवा पढ़ सकें। दिल्ली में एक कोचिंग सेंटर में पानी घुस जाने के कारण जब तीन छात्रों की दुखद मौत हो गई थी तब रीडिंग रूम की काफी चर्चा हुई थी। सिर्फ महानगरों में ही नहीं बल्कि छोटे शहरों में भी रीडिंग रूम की आवश्यकता है। वैसे अध्ययन कक्ष हों जहां कंप्यूटर और इंटरनेट की सुविधा हो। पढ़नेवाले छात्र अपने अध्ययन के साथ साथ जब मन चाहे तो अपनी मनपसंद पुस्तकें भी पढ़ सकें। राजा रामोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन को इस तरह के पुस्तकालयों को तैयार करने की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए। वो राज्य सरकारों से समन्वय करके इसको तैयार करे। व्यवस्था के सुचारू रूप से चलाने के लिए उन पुस्तकालयों के खाते में सीधे पैसे भेजे जाएं। इससे सिस्टम में पारदर्शिता आएगी। लेकिन सबसे अधिक आवश्यक है कि मंत्रालय के स्तर पर एक सोच बने जो पुस्तकालयों के विकास के लिए गंभीरता से काम करे। पुस्तकों की खरीद से लेकर अनुदान तक में पारदर्शिता स्थापित करने के मानदंड बनें। अन्यथा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विजन को जमीन पर उतारना कठिन होगा। 


Saturday, August 24, 2024

पुस्तक महोत्सव से जगती आस


जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद पहली बार विधानसभा चुनाव की घोषणा हो गई है। 5 अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटा दिया गया था। उसके एक वर्ष पहले जून 2018 में जम्मू कश्मीर में राजनीतिक उठापटक के बाद राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था। अनुच्छेद 370 हटने के बाद अक्तूबर 2019 में जम्मू कश्मीर राज्य का पुनर्गठन करते हुए इसको दो केंद्र शासित क्षेत्र में बांट दिया गया था। एक जम्मू कश्मीर और दूसरा लद्दाख। अनुच्छेद 370 हटने के बाद जम्मू कश्मीर में भारत के सभी कानून लागू हो गए थे। वहां के स्थानीय कानून जो भारत के संविधान से अलग थे वो भी समाप्त हो गए थे। पिछले लगभग पांच वर्षों से वहां जनहित के बहुत सारे कार्य हुए और जम्मू कश्मीर में आतंकवाद के विष का असर कम हुआ। अब वहां करीब छह वर्षों के बाद फिर से विधानसभा का गठन होने जा रहा है। अनुच्छेद 370 हटने के बाद दो बार कश्मीर जाने का अवसर मिला। दो वर्ष पहले अक्तूबर 2022 में एक साहित्य महोत्सव में कश्मीर जाना हुआ था। श्रीनगर में आयोजित कुमांऊ लिट फेस्ट का आयोजन डल झील के किनारे शेर-ए-कश्मीर अंतराष्ट्रीय सम्मेलन केंद्र में हुआ था। उस समय के हिसाब से आयोजन बहुत अच्छा रहा था। लेकिन तब सुरक्षा व्यवस्था सख्त थी। केंद्र के गेट से लेकर अंदर तक सुरक्षा के इंतजाम थे। तब भी स्थानीय लोगों की भागीदारी थी लेकिन आमंत्रण पर ही लोग आए थे। उस साहित्य उत्सव में भी कला, संस्कृति और फिल्मों से जुड़े देशभऱ के लोग आए थे। 

दूसरी बार इस सप्ताह जाना हुआ। अवसर था चिनार पुस्तक महोत्सव का जिसका आयोजन शिक्षा मंत्रालय के राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने किया था। नौ दिनों का ये आयोजन 17 अक्तूबर को आरंभ हुआ। ये भी शेर-ए-कश्मीर अंतराष्ट्रीय सम्मेलन केंद्र में ही चल रहा है। इस बार लोगों की भागीदारी बहुत अधिक दिखी, विशेषकर महिलाओं और लड़कियों की। इस आयोजन में पूरा दिन बिताने के बाद और वहां उपस्थित छात्राओं और महिलाओं से बात करने के बाद ये लगा कि उनके भी अपने सपने हैं, उनकी भी अपनी आकांक्षाएं हैं। पहले भी रही होंगी। अब उनको लगने लगा है कि वो अपने सपनों को पूरा कर सकती हैं। फिल्म और साहित्य पर एक सत्र के दौरान जब वहां उपस्थित लड़कियों से पूछा गया कि कौन कौन फिल्म प्रोडक्शन के क्षेत्र में आना चाहती हैं तो दो लड़कियों ने अपने हाथ खड़े किए। सार्वजनिक रूप से श्रीनगर के एक आयोजन में लड़कियों का इस तरह से सामने आना और ये कहना कि वो फिल्म प्रोडक्शन के क्षेत्र में आना चाहती हैं, बड़ी बात थी। इन आयोजनों का सांस्कृतिक फलक तो बड़ा होता ही है इसका असर भी गहरा होता है। । कश्मीर के युवा पाठकों को बाहर की दुनिया से परिचय करवाने से लेकर भारत की सफलता की कहानी भी पुस्तक महोत्सव में दर्शाई गई थी। इसरो के बारे में, उसकी सफलता के बारे में और मंगलयान के बारे में जानने की जिज्ञासा प्रतिभागियों में प्रबल थी। अंतरिक्ष में इसरो की उड़ान से वो बेहद प्रभावित लग रही थीं। कुछ लड़कियां इस बारे में बात कर रही थीं कि कैसे इस संस्था से जुड़ा जा सकता है। सुरक्षा के इंतजाम रहे होंगे पर वो दिख नहीं रहे थे। प्रतिभागी खुले मैदान में बैठकर बातें कर रहे थे। अलग अलग पंडालों में करीब सवा सौ पुस्तकों की दुकानें थीं जिसमें कश्मीर की कला संस्कृति से जुड़ी पुस्तकों के अलावा हिंदी और अंग्रेजी की पुस्तकें भी प्रदर्शित की गई थीं। उर्दू प्रकाशकों के भी कई स्टाल लगे थे। युवाओं के हाथ में किताब देखकर कुछ अलग ही संकेत मिल रहे थे। कश्मीर के युवाओं की जो छवि बनाई गई थी उससे अलग पुस्तकों के प्रति उनका प्रेम अलग ही कहानी कह रहा था। ऐसा लग रहा था कि कश्मीर के युवा बंदूकों की आवाज या बारूद की गंध से ऊब चुके हैं। वो बेहतर जीवन के रास्ते तलाश रहे हैं। 

चिनार पुस्तक महोत्सव में सिर्फ पुस्तकों के स्टाल ही नहीं थे बल्कि स्थानीय कश्मीरी कलाकारों को भी मंच मिल रहा था। कश्मीरी संगीत, कश्मीरी वाद्य, कश्मीरी कलाकारों से लेकर कश्मीरी कवियों के कृतित्वों पर चर्चा हो रही थी। पुस्तक महोत्सव में शामिल होनेवाले लोग इसका आनंद उठा रहे थे। कला और संस्कृति के प्रति उनका लगाव नैसर्गिक था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वो हिंदुस्तान की मुख्यधारा में शामिल होना चाह रहे हैं। वहां इस बात की भी चर्चा हो रही थी कि इतने बड़े स्तर पर कला-संस्कृति और शिक्षा को लेकर कश्मीर में ये पहला अखिल भारतीय आयोजन था। अपने देश के स्वाधीनता सेनानियों के बारे में जानने के लिए भी वहां आए लोग उत्सुक थे। वहां लगी प्रदर्शनी में जुटी भीड़ से इसका पता चल रहा था। कश्मीर में इस तरह के आयोजन प्रतिवर्ष किए जाने चाहिए ताकि अधिक से अधिक युवाओं को जोड़ा जा सके। ऐसा नहीं था कि वहां सिर्फ श्रीनगर के प्रतिभागी ही आए थे। भद्रवाह से लेकर सोनमर्ग और गुलमर्ग के भी युवा भी वहां मिले। युवाओं के अलावा नागरिक संगठन के लोग भी इस आयोजन में दिखे। नागरिकों के समर्थन के बगैर इस तरह का और इतना बड़ा आयोजन संभव भी नहीं है। इस तरह के आयोजन का एक और लाभ है कि वो लोगों को मिलने जुलने और खुलकर बोलने बतियाने के अलावा अपने आयडिया साझा करने का अवसर भी प्रदान करता है। जब एक दूसरे के साथ विचारों का आदान प्रदान होता है तो बेहतर भविष्य का रास्ता निकलता है। लोग एक दूसरे से विचारों के माध्यम से जुड़ते हैं और विभाजन की लकीर धुंधली पड़ने लगती है।

नौ दिनों के इस आयोजन को एक इवेंट मानकर समाप्त नहीं करना चाहिए। भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय को इसकी निरंतरता के बारे में विचार करना चाहिए। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की स्थापना 1957 में हुई थी। इसकी स्थापना के समय ये अपेक्षा की गई थी कि ये संस्था देश में पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देगी। पुस्तकों के प्रकाशन का कार्य राष्ट्रीय पुस्तक न्यास लंबे समय से कर रही है। पिछले कुछ वर्षों में गंभीर आयोजनों के माध्यम से पाठकों को पुस्तक तक पहुंचाने का उपक्रम किया जा रहा है जिसको रेखांकित किया जाना चाहिए। चिनार पुस्तक महोत्सव का आकलन वहां बिकी पुस्तकों की संख्या या बिक्री से हुई आय या आयोजन पर हुए व्यय से नहीं किया जा सकता है। इसके दीर्घकालीन प्रभाव के बारे में विचार करना चाहिए। भारत सरकार वर्षों से कश्मीर की बेहतरी के लिए और सुरक्षा इंतजामों पर करोड़ों रुपए खर्च करती रही है। कला संस्कृति पर खर्च करना भी उतना ही आवश्यक है क्योंकि ये एक ऐसा माध्यम है जो बिना किसी दावे के, बिना किसी शोर शराबे के लोगों को जोड़ती है। अब चुनाव की घोषणा हो गई है। नेताओं का कश्मीर आना जाना आरंभ हो गया है। दलों के बीच गठबंधन भी होने लगे हैं। जैसे जैसे चुनाव की तिथि नजदीक आएगी तो बयानवीर नेता अपने बयानों से वहां का माहौल खराब करेंगे। आवश्यकता इस बात की है कि कश्मीर के तीन हजार वर्ष के इतिहास को संजोकर रखा जाए और उस परंपरा को बढ़ाने की दिशा में कार्य हो।  

Sunday, August 18, 2024

कितने आदमी थे...


शोले जो भड़क न सका। करीब चार दशक पहले पढ़ा ये शीर्षक दिमाग पर इस कदर अंकित हो गया कि वर्षों बाद आज भी स्मृति में बना हुआ है। जब भी फिल्म शोले देखता हूं या इससे जुड़ी कोई चर्चा होती है तो ये शीर्षक कौंध जाता है। स्कूल में था, फिल्मों में रुचि थी। उसी समय फिल्म शोले पर एक समीक्षानुमा लेख देखा था। उसमें ये बताया गया था कि शोले फिल्म सफल नहीं हो सकी। बाद में शोले ने सफलता का इतिहास रच दिया। 15 अगस्त 1975 को शोले फिल्म के प्रदर्शन के 50 वर्ष पूरे हुए। एक बार फिर से इस शीर्षक की याद आई। इसी समय पता चला कि सलीम खान और जावेद अख्तर एक बार फिर से साथ आ रहे हैं। सलीम-जावेद की जोड़ी पर प्राइम वीडियो पर तीन पार्ट में एक डाक्यूमेंट्री आ रही है। ये सलीम जावेद की जोड़ी ही थी जिसने हिंदी सिनेमा के एंग्री यंगमैन को गढ़ा था। शोले फिल्म की कहानी और पटकथा सलीम- जावेद की है। जिसके प्रदर्शन पर लिखा गया था कि शोले जो भड़क न सका वो शोले ऐसा भड़का कि मुंबई (तब बांबे) के मिनर्वा सिनेमा हाल में लगातार पांच वर्षों तक दिखाई जाती रही। उस दौरे को जिसने देखा है उनका कहना है कि दो साल तो मिनर्वा के बाहर तक टिकट लेनेवालों की लाइनें लगा करती थी। इतना ही नहीं दिल्ली के प्लाजा सिनेमा में फिल्म देखने के लिए दूर दूर से लोग थे। पंजाब के दर्शकों को दिल्ली लाने के लिए चलनेवाली बस का नाम ही शोले एक्सप्रेस रख दिया गया था। 

यह बात सही है कि शोले फिल्म ने अपने प्रदर्शन के पहले सप्ताह में अच्छा बिजनेस नहीं किया था। रिव्यू भी अच्छे नहीं थे। तब फिल्मों के कारोबार के बारे में बताने वाली फिल्म पत्रिका द ट्रेड गाइड में सलीम-जावेद ने अपने नाम से एक विज्ञापन देकर भविष्यवाणी की थी। उन्होंने विज्ञापन में दावा किया था कि फिल्म हर वितरण के लिहाज से बनाए गए हर क्षेत्र में ये फिल्म एक करोड़ रुपए से अधिक का कारोबार करेगी। ये इनका आत्मविश्वास था। इसी तरह से इन दोनों से जुड़ा एक और रोचक किस्सा है। एक फिल्म प्रदर्शित होनेवाली थी। फिल्म के पटकथा लेखक सलीम-जावेद ने निर्माताओं से कहा कि पोस्टर पर उनका भी नाम होना चाहिए। निर्माता नहीं माने। पूरे मुंबई में फिल्म के पोस्टर लग गए। सलीम-जावेद ने तय किया शहर के हर पोस्टर पर अपना नाम लिखवाएंगे। रातों रात उन्होंने कुछ पेंटर्स से संपर्क किया। अगले दिन अधिकतर पोस्टर्स पर सलीम जावेद का नाम लिखा था। परिणाम ये हुआ कि भविष्य में निर्माता पोस्टर पर पटकथा लेखक के तौर पर इस जोड़ी का नाम लिखने लगे। सलीम-जावेद की जोड़ी ने जिस तरह के संवाद लिखे वो भी बेहद लोकप्रिय हुए थे। चाहे फिल्म दीवार में अमिताभ और शशि कपूर के बीच का संवाद- आज मेरे पास बिल्डिंग है,प्रापर्टी है, बैंक बैलेंस है, बंगला है गाड़ी है तुम्हारे पास क्या है? उत्तर मिलता है- मेरे पास मां है। या फिल्म शोले में अमिताभ का ये पूछना कि तुम्हारा नाम क्या है बसंती अथवा गब्बर का ये कहना कि अरे ओ साभां, कितने आदमी थे। शोले के तो कई संवाद बेहद लोकप्रिय हुए, अब भी गाहे बगाहे लोग दोहराते हैं। संवाद के कैसेट तक बिके थे। सलीम-जावेद कि संवाद की एक और विशेषता है कि वो अश्लील या द्विअर्थी नहीं होते हैं। शोले में जब गब्बर बसंती को देखकर कहता है कि- अरे ओ साभां, ये रामगढ़ वाले अपनी बेटियों को कौन सी चक्की का आटा खिलाते हैं रे, जरा दारी के हाथ पांव देख, बहुत करारे हैं। इस संवाद पर तालियां बजी थीं किसी को गुस्सा नहीं आया था। सलीम जावेद एक कथा में कई उपकथा यानि कहानी के भीतर कहानी की कला में पारंगत हैं। शोले की कथा में कई गैप हैं लेकिन उन गैप्स को उपकथाएं भर देती हैं और दर्शक मनोरंजन की सपनीली दुनिया में चला जाता है। 


Saturday, August 17, 2024

विकसित भारत में वैश्विक संस्थान का स्वप्न


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वाधीनता दिवस के अवसर पर लालकिला की प्राचीर से विकसित भारत के सुझावों की चर्चा की थी। कई सुझावों का उल्लेख करने के क्रम में प्रधानमंत्री ने विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय की बात भी की थी। प्रधानमंत्री ने भले ही सुझावों के क्रम में इसकी चर्चा की लेकिन भारत में विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय या शैक्षणिक संस्थानों की कमी महसूस की जाती है। विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय या शैक्षणिक संस्थान के लिए तकनीक के अलावा भाषा या कला के क्षेत्र में प्रयास किया जाना चाहिए। इस प्रयास को फलीफूत करने के लिए 2020 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की गई। शिक्षा नीति में भाषा और कला पर बहुत अधिक जोर दिया गया। विकसित भारत के लिए यह आवश्यक भी है कि हमारे देश में विश्वस्तरीय शिक्षा संस्थान हों। यहां एक विश्वविद्यालय है, जिसका नाम है महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय। ये विश्वविद्यालय महाराष्ट्र के वर्धा में है। 1997 में इस विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। इस विश्वविद्यालय के उद्देश्यों में तीन उद्देश्य ऐसे हैं जिसको हासिल करने के लिए अगर गंभीरता से प्रयास होता तो ये विश्वविद्यालय वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बना चुका होता। ये तीन उद्देश्य हैं हिंदी को वैश्विक भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए सुसंगत प्रयास, अंतराष्ट्रीय शोध केंद्र के रूप में विश्वविद्यालय का विकास और अंतराष्ट्रीय विमर्श केंद्र के रूप में विश्वविद्यालय का विकास। अपनी स्थापना के 27 वर्षों में विश्वविद्लाय में कोई भी ऐसा ठोस कार्य नहीं हुआ जिसके आधार पर कहा जा सके कि ये इन तीन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए गंभीर है। विश्वविद्यालय के पहले कुलपति अशोक वाजपेयी तो दिल्ली में बैठकर ही वर्धा स्थित विश्वविद्यालय चलाते रहे। पत्रिकाएं निकालते रहे। वैश्विक संस्थान बनाने के लिए कुछ नहीं किया। बाद के कुलपतियों ने नियुक्तियां की और भवन बनवाए। पिछले सालभर से यहां कोई स्थायी कुलपति नहीं है। 

अब बताया जा रहा है कि कुलपति की नियुक्ति की प्रक्रिया चल रही है। प्रश्न यही उठता है कि किसी कुलपति के अचानक जाने के बाद भी इतना समय चयन में क्यों लगता है। महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय अपने आरंभिक दिनों से ही विवादों में रहा है। पिछले वर्ष जब विश्वविद्यालय के कुलपति ने पद छोड़ा था तब केंद्र सरकार ने आईआईएम, नागपुर के निदेशक को कुलपति का अतिरिक्त प्रभार दे दिया था। हाईकोर्ट ने इसको नियम विरुद्ध बताते हुए उनके प्रभार को रद कर दिया था। नए सिरे से विश्वविद्यालय को नियमानुसार कुलपति की नियुक्ति प्रक्रिया आरेभ करने को कहा था। नियमानुसार कुलपति की नियुक्ति के लिए जो समिति बनती है उसके दो सदस्यों के नाम का चयन करके विश्वविदयालय की कार्यपरिषद  शिक्षा मंत्रालय को भेजती है। कार्यपरिषद की बैठक कुलपति बुलाते हैं। हाईकोर्ट के आदेश के बाद होना ये चाहिए था कि नियमानुसार विश्वविद्यालय के वरिष्ठतम प्रोफेसर को कुलपति का प्रभार दिया जाता। वो कार्यपरिषद की बैठक बुलाते। ऐसा नहीं हुआ। विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलसचिव ने बैठक आहूत की। फाइल पर लिखा कि ‘सभी तथ्यों और शिक्षा मंत्रालय के मौखिक निर्देश और कार्यपरिषद के सदस्यों के साथ मोबाइल पर हुई वार्तानुसार सभी के मतानुसार तत्काल कार्यपरिषद की बैठक बुलाई जाने की सभी की सहमति बनी।“  कार्यपरिषद की बैठक हुई। दो नाम चयनित कर मंत्रालय को भेज दिए गए। चयन समिति बन गई । समिति ने योग्य उम्मीदवारों के साथ चर्चा कर संभावित कुलपति के नामों का पैनल तैयार कर लिया। अब प्रश्न उठ रहे हैं कि क्या शिक्षा मंत्रालय के मौखिक आदेश पर और कार्यपरिषद के सदस्यों से मोबाइल पर स्वीकृति लेकर बैठक बुलाई जा सकती है। जानकारों का कहना है कि ऐसा नहीं हो सकता। शिक्षा मंत्रालय का दखल अनावश्यक है और कुलसचिव को कार्यपरिषद की बैठक बुलाने का अधिकार नहीं है। अगर ऐसा है तो कुलपति की पूरी चयन प्रक्रिया ही संदिग्ध हो जाएगी। विश्वविद्यालय एक बार फिर से विवाद में घिर जाएगा। फाइल पर ये लिखना भी कि शिक्षा मंत्रालय के मौखिक आदेश पर ऐसा किया गया, भी कई प्रश्न खड़े करता है। 

विवादों के बारे में इस कारण चर्चा की गई क्योंकि इससे विश्वविद्यालय अपने मूल उद्देश्यों से भटकता रहता है। न तो शोध हो पाते हैं न ही किसी प्रकार का नैरेटिव बनाया जा सकता है। किसी भी संस्था में अगर उसका मुखिया नहीं होगा तो उसका अपने उद्देश्यों से भटकना स्वाभाविक है। प्रधानमंत्री मोदी निरंतर राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने के लिए प्रयासरत हैं, शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान भी गंभीरता से इसके क्रियान्वयन में लगे हैं लेकिन सिस्टम या कोई अदृष्य शक्ति बाधा बन रही है। महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ही नहीं बल्कि शिमला का भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान भी कई वर्षों से स्थायी निदेशक की बाट जोह रहा है। कभी किसी तो कभी किसी कुलपति को प्रभार दे दिया जाता है। कई और केंद्रीय विश्वविद्यालय में कुलपति के पद खाली हैं। होना ये चाहिए कि जब किसी कुलपति या निदेशक के कार्यकाल का छह महीना शेष रहे तो नए कुलपति या निदेशक की चयन प्रक्रिया आरंभ कर दी जाए। ऐसा होने से प्रशासनिक और अकादमिक निरंतरता बनी रहती है। जैसे केंद्र सरकार में जब कोई सचिव अवकाश प्राप्त करनेवाला होता है तो उनका स्थान लेने वाले व्यक्ति को विशेष कार्याधिकारी बनाकर वहां पदस्थ कर दिया जाता है। व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहती है। कुलपतियों की नियुक्ति में भी ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है। कहा जा सकता है कि इस बार लोकसभा चुनाव के कारण देरी हुई लेकिन जहां सालभर और तीन वर्ष से नियुक्ति टल रही है उससे तो बचा सकता था। शिक्षा और संस्कृति मंत्रालयों के अधीन चलनेवाली संस्थाओं में नियुक्तियों में तुलनात्मक रूप से अधिक देरी क्यों होती है, इसपर विचार करना बहुत आवश्यक है।  

अगर हमें अपने देश में विश्वस्तरीय शिक्षा संस्थान बनाना है तो इन प्रशासनिक कार्यों की चूलें कसनी होंगी। शिक्षा के क्षेत्र में विशेषकर उच्च शिक्षा में संस्थानों में संसाधन की कमी बिल्कुल नहीं है, कमी है तो बेहतर प्रशासन की, बेहतर समन्वय की। राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा के चार वर्ष हो गए लेकिन अबतक स्कूली शिक्षा के अनुकूल सारी पुस्तकें तैयार नहीं की जा सकी हैं। कबतक होंगी ये भी ज्ञात नहीं हो सकता है। राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद का पुस्तकें तैयार करने का दायित्व है। अगर हम शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षण और शोध का स्तर बढ़ाना चाहते हैं तो उसको राजनीति और अफसरशाही के शिकंजे से भी मुक्त करना होगा। कुलपतियों को हमारे देश में बहुत अधिक अधिकार हैं लेकिन कम ही कुलपति ऐसे हैं जो शोध और शिक्षा के स्तर को बढ़ाने के लिए प्रयासरत दिखते हैं। इस बारे में भी एक मैकेन्जिम बनाया जाना चाहिए जिससे ये पता चल सके कि अमुक उच्च शिक्षा संस्थान में कितने नवाचर हुए, कितने नए विषयों के बारे में शोध हुए। हो ये रहा है कि अधिकतर विश्वविद्यालय आयोजनों में लगे हैं। सेमिनार आदि अगर नए विषय और ज्ञान की खोज के लिए हों तो संस्थान की प्रतिष्ठा बढ़ती है। अगर कार्यक्रम का उद्देश्य सिर्फ आयोजन करवा कर गितनी बढञना हो तो उससे कुछ हासिल नहीं होता सिर्फ करदाताओं के पैसे की बर्बादी होती है। विकसित भारत के लिए शिक्षा के क्षेत्र में भी ठो काम करने होंगे। 


Friday, August 16, 2024

शानदार किस्सागो का जाना


दिल्ली के विज्ञान भवन में गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन होना था। एक दिन अचानक उस वक्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शिखर सम्मेलन के संयोजक नटवर सिंह से पूछा कि क्या गुटनिरपेक्ष देशों के राष्ट्राध्यक्षों और प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों को एशियाड विलेज के फ्लैट्स में रखा जा सकता है? नटवर सिंह ने छूटते ही कहा कि ये कैसे संभव है। इंदिरा गांधी ने अपनी गंभीर आवाज में कहा कि आप इस संभावना को तलाशिए और रिपोर्ट करिए। इंदिरा गांधी ने राजीव गांधी, पीसी एलेक्जेंडर, जी पार्थसारथी और उस समय के दिल्ली के एलजी जगमोहन को एशियाड विलेज जाकर सुविधाओं को जायजा लेने का हुक्म दिया। सबलोग एशियाड विलेज पहुंचे। फ्लैट्स आदि देखने के बाद न तो एलेक्जेंडर कुछ बोल रहे थे न ही जगमोहन। सब राजीव गांधी के बोलने की प्रतीक्षा कर रहे थे। पार्थसारथी ने कहा कि एशियाड विलेज के फ्लैट्स में विदेश मंत्रियों को रुकवाया जा सकता है। नटवर सिंह इसके लिए राजी नहीं थे। राजीव कुछ बोल नहीं रहे थे। कोई फैसला नहीं हो पा रहा था। दरअसल राजीव गांधी के कुछ दोस्तों ने विदेशी अतिथियों को एशियाड विलेज में रुकवाने का आयडिया दे दिया था। उन्होंने इंदिरा जी को। बात फैलने लगी थी कि विदेशी प्रतिनिधिमंडल को एशियाड विलेज में रुकवाया जाएगा। ये बात उन देशों के राजदूतों तक भी पहुंची। उनमें से कइयों ने नटवर सिंह को स्पष्ट कर दिया कि अगर ऐसा होगा तो कोई नहीं आएगा। बात इंदिरा जी तक पहुंची और मामला किसी तरह से टला। 

इस तरह के सैकड़ों दिलचस्प किस्से नटवर सिंह के पास थे। जब भी आप उनसे उनके दिल्ली के जोरबाग वाले घर में मिलते और वो मूड में होते तो किस्सों का दौर आरंभ हो जाता। उनकी स्मरण शक्ति इतनी तेज थी और घटनाओं का वर्णन इतने दिलचस्प अंदाज में करते थे कि आप घंटों उनको सुन सकते थे। एक बार अपने घर पर हुई मुलाकात नें उन्होंने ऐसा ही एक किस्सा सुनाया था जो इंदिरा गांधी, फिडेल कास्त्रो और यासिर अराफात से जुड़ा था। 1983 में दिल्ली में गुट निरपेक्ष शिखर सम्मेलन के दौरान फिलीस्तीनी नेता यासिर अराफात इस बात से नाराज हो गए कि उनको सम्मेलन में जार्डन के राजा के बाद बोलने का अवसर मिला। इसको अराफात ने अपना अपमान माना और सम्मेलन छोड़कर वापस लौटने की बात की। नटवर सिंह ने तुरंत इंदिरा गांधी को सूचित किया। इंदिरा गांधी ने फिडेल कास्त्रो से बात की। इंदिरा और कास्त्रो दोनों फौरन विज्ञान भवन पहुंचे और अराफात को लेकर एक कमरे में गए। यासिर गुस्से से लाल पीले हो रहे थे। कास्त्रो और इंदिरा गांधी ने उनकी बातों को थोड़ी देर तक सुना। कास्त्रो ने अराफात से पूछा कि आप इंदिरा को अपना दोस्त समझते हो। गुस्से में अराफात ने कहा कि ये दोस्त नहीं मेरी बड़ी बहन है। इतना सुनते ही फिडेल बोले कि फिर छोटे भाई की तरह बर्ताव करिए और चुपचाप दोपहर के सत्र में शामिल होइए। एक बड़ा कूटनीतिक मसला हल हो गया। नटवर सिंह के निधन से दिल्ली में रहनेवाला एक बड़ा किस्सागो चला और साथ चली गईं उनकी स्मृतियों में बसी घटनाएं।    


Saturday, August 10, 2024

लोकतंत्र की आड़ में हित साधती शक्तियां


हमारे पड़ोसी देश बंगलादेश में हिंसक आंदोलन के बाद वहां की प्रधानमंत्री शेख हसीना को देश छोड़ना पड़ा। ये सबकुछ एक के बाद एक घटना की परिणति रहा। उसके बाद जिस तरह से नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता और बैंकर मोहम्मद यूनुस की अगुवाई में सरकार बनी उससे कई प्रश्न खड़े हो गए। जब शेख हसीना ने देश छोड़ा था, तब सभी विशेषज्ञ इस मत के थे कि बंगलादेश में सेना ही सत्ता सेना संभालेगी। लोकतंत्र को फिर से स्थापित करने में समय लगेगा। उनके अनुमानों के विपरीत मोहम्मद यूनुस की अगुवाई में कार्यवाहक सरकार का गठन हो गया। मंत्री बन गए। सबने शपथ ले ली। कार्य आरंभ हो गया। क्या सबकुछ इतना आसान था। क्या इसकी बिसात पहले से नहीं बिछाई गई थी। बंगलादेश में कट्टरपंथी काफी समय से सक्रिय थे और जमात ए इस्लामी इसकी अगुवाई कर रहा था। पहले तो जमात के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा और फिर इस संगठन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया। आरोप शेख हसीना पर लगे और कहा जाने लगा कि वो तानाशाह हो गई है। वो विरोधियों को जेल भेज देती है। आज जो मोहम्मद यूनुस सरकार के कार्यवाहक प्रमुख हैं उनपर भी बंगलादेश में कई मुकदमे चल रहे हैं। एक मामले में तो उनको छह महीने की सजा भी हो चुकी है। इन सब मामलों को लेकर शेख हसीना सरकार के खिलाफ वातावरण बनाया गया। वातावरण बनाने में विदेश से सक्रिय संगठनों और इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म की बड़ी भूमिका रही। खास तौर पर उन संस्थाओं और संगठनों की जो अमेरिका से अपना कारोबार चलाते हैं। बंगलादेश में जिस तरह से माहौल बनाया गया उसी तरह का माडल कई अन्य देशों में भी देखा जा चुका है। इस माडल में होता ये है कि अगर उनकी पसंद की सरकार नहीं बनी तो उसको बदलने के लिए ये संस्थाएं अपना अलगोरिदम बदल देती हैं। सरकार के विरोध वाली पोस्ट अधिक दिखती हैं और समर्थन वाली पोस्ट को बाधित कर देते हैं। किसी एक छोटी घटना को इतना बड़ा कर दिया जाता है कि जनमत सरकार के विरोध में हो जाती है। पर ये तो किसी के हाथ के औजार भर हैं। 

योजना इस तरह से बनाई जाती है कि पहले इंटरनेट मीडिया के माध्यम से देश में सत्ता विरोधी माहौल बनाया जाए। माहौल बनाने के लिए चौतरफा व्यूह रचना की जाती है। किसी छोटे केस को इतना प्रचारित करवाया जाए कि लगे देश के सामने वही सबसे बड़ा मुद्दा है। फिर किसी नेता से उस घटना के विरोध में बयान दिलवाया जाता है। शासक को तानाशाह बताकर उसकी छवि गढ़ने का प्रयत्न किया जाता है। डिजीटल के माध्यम से इस तरह के बयानों को प्रसारित और प्रचलित करवा कर इस छवि को गाढ़ा करवाया जाता है। लोकतंत्र को बचाने की आड़ में ये सारा खेल खेला जाता है। अंतत:  इस तरह की कथित क्रांतियों से लोकतंत्र कमजोर ही होता है। हमें अरब स्प्रिंग को याद करना चाहिए। 2010 के आसपास मध्यपूर्व और उत्तरी अफ्रीका के देशों में अरब स्प्रिंग का खेल हुआ। इस क्षेत्र में कुछ देशों की सरकारों के मुखिया को तानाशाह बताकर डिजीटल के माध्यम से उनको गिराने की व्यूह रचना कि गई। 17 दिसंबर 2010 में ट्यूनीशिया में हुई घटना को याद करने की आवश्यकता है। एक ठेलेवाले के साथ हुए व्यवहार के कारण विरोध का स्वर उठा और पूरे देश में इतनी तेजी से फैला कि वहां के राष्ट्रपति को 14 जनवरी 2011 को देश छोड़कर भागना पड़ा। उसके बाद देश में लोकतंत्र की स्थापना के नाम पर तरह तरह की बातें होती रही। कभी कोई कार्यवाहक बना तो कभी कोई। सालभर तक ये सब चला रहा और फिर एक मानवाधिकार कार्यकर्ता को राष्ट्रपति बनाया गया। फिर वहां इस्लामिक कट्टरपंथियों, कथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों और अरब स्प्रिंग के पहले के राष्ट्रपति के समर्थकों में संघर्ष आरंभ हुआ। अबतक चल रहा है। कभी समय पर चुनाव हो जा रहे हैं कभी नहीं। लोकतंत्र स्थापित करने के नाम पर जो हुआ वो सबके सामने है। 

ये सिर्फ ट्यूनीशिया की कहानी नहीं है। ऐसा कई देशों में हुआ। सब जगह सत्ता परिवर्तन की स्क्रिप्ट एक जैसी है। हमार देश में 2024 के चुनाव में जिस तरह से चुनाव प्रचार के दौरान इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स ने अपना अलगोरिथम बदला, जिस तरह से मोदी विरोधियों को प्रमुखता मिली वो एक अलग शोध की मांग करता है। डिजीटल और सोशल सेक्टर को साथ लेकर जिस तरह से सरकार बनाने और गिराने का अंतराष्ट्रीय खेल खेला जाता है उसके बारे में सार्वजनिक रूप से चर्चा होनी चाहिए। रूस-यूक्रेन युद्ध के आरंभ होने क बाद पश्चिमी देशों को और दुनिया की महाशक्ति होने का दावा करनेवाले देशों को भारत का स्थायित्व और उसकी वैश्विक मंच पर बढ़ती धमक गले नहीं उतर रही थी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि भारत का विदेश मंत्री पश्चिम को कहे कि यूरोप की समस्या पूरी दुनिया की समस्या नहीं हो सकती। भारत अपने निर्णय के लिए अपनी जनता का हित देखने लगा था, पश्चिम का मुंह जोहना छोड़ दिया था। परिणाम 2024 के लोकसभा चुनाव में देखने को मिला। नरेन्द्र मोदी को तानाशाह बताया गया। नागरिक अधिकारों की कटौती औक संविधान बदलने जैसे विमर्श आरंभ हुए। मोदी भले ही बहुमत से दूर रह गए लेकिन सरकार बदलने का मंसुबा पाले बैठी वैश्विक ताकतों को मुंह की खानी पड़ी। अभी अमेरिकी चुनाव को देख लीजिए तो वहां कमला हैरिस जिस तरह के बयान दे रही हैं उससे मिलते जुलते बयान यहां भी लोकसभा चुनाव के समय सुनाई देते थे। 

ऐसा नहीं है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ये वैश्विक ताकतें निष्क्रिय हो गई हैं। हमारे देश में वो अब भी सक्रिय हैं। सरकार विरोधी माहौल बनाने में जुटी हैं। इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं। इन वैश्विक ताकतों को लगता है कि भारत को कमजोर करने का यही तरीका है कि चुनी हुई सरकार के खिलाफ जनता में आक्रोश पैदा करो। इसके लिए वो छात्रों का, अदालतों का, नीति निर्धारकों का सहारा लेते हैं। अभी बंगलादेश में मोहम्मद यूनुस को स्थापित करने के लिए अमेरिका के सामाजिक कार्यकर्ता, कुछ सीनेटर और विचारक एक्स पर अपनी राय रख रहे हैं। उनकी पोस्ट को पढ़ने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि मोहम्मद यूनुस बंगलादेश के उद्धारक हैं। दरअसल अमेरिका और अन्य वैश्विक ताकतों को दुनिया के अन्य देशों में अपनी चौधराहट स्थापित करने के लिए ये सब करना पड़ता है। वो चाहते हैं कि अन्य देशों की सरकार उनके मुताबिक चले। उनके व्यापारिक और सामरिक हितों की रक्षा होती रहे। किसी देश में अंदरुनी गड़बड़ी होगी तो उनको दखल देने का अवसर मिलेगा। चाहे वो इराक हो, लीबिया हो,सुडान हो या अन्य देश। पाकिस्तान चूंकि अब उनके किसी काम नहीं रहा तो इन शक्तियों ने बंगलादेश को अपना नया ठिकाना बनाने की योजना पर कार्य किया। लोकतंत्र के नाम पर चलनेवाले इन कथित आंदोलनों के अगुवा इन वैश्विक शक्तियों के हाथों की कठपुतली मात्र हैं। कठपुतलियां वही करती हैं जो उनकी डोर थामनेवाला चाहता है। बंगलादेश से लेकर भारतीय राजनीति में इस तरह की कई कठपुतलियां दिख रही हैं। 


Sunday, August 4, 2024

परिवार परंपरा को स्थापित करती फिल्म


देश में 1991 में आर्थिक उदारीकरण का दौर आरंभ हुआ तो उसने अर्थव्यवस्था के अलावा समाज पर भी गहरा प्रभाव छोड़ा था। उदारीकरण के कारण विदेशी फिल्में और सीरियल्स भी सुलभ हुए। इससे पश्चिम की खिड़की खुली। वहां की संस्कृति से परिचय हुआ। भारतीय मनोरंजन जगत पर भी प्रभाव पड़ा। पश्चिम को आधुनिक बताने का विमर्श आरंभ हुआ। परिणाम ये हुआ कि हमारा समाज संयुक्त परिवार से एकल परिवार की ओर बढ़ा। खान-पान, वेशभूषा में परिवर्तन दिखने लगा। हिंदी सिनेमा भी इससे अछूता नहीं रहा। नायिकाओं के कपड़े पश्चिम की तर्ज पर बनने लगे। कहना ना होगा कि समाज और सिनेमा दोनों जगह पश्चिम का अंधानुकरण आरंभ हुआ। ऐसे में 1994 में एक फिल्म आती है, हम आपके हैं कौन। यह फिल्म न केवल व्यावसायिक रूप से सफल हुई बल्कि इसने भारतीय परिवार परंपरा को स्थापित भी किया। सूरज बड़जात्या ने इस फिल्म को लिखा और निर्देशित किया। बड़जात्या परिवार पारिवारिक फिल्में बनाने के लिए ही जाने जाते हैं। फिल्म हम आपके हैं कौन में जिस प्रकार से विवाह, गोदभारई की रस्मों को दिखाया गया उसने भारतीय जनमानस को गहरे तक प्रभावित किया। इस फिल्म की नायिका माधुरी दीक्षित ने जिस तरह से चुलबुली लड़की निशा का अभिनय किया या जिस तरह से इन रस्मों में अपनी भागीदारी की उसने इन रस्मों को हिंदू परिवारों में स्थापित कर दिया। शादियों में वर का जूता छुपाना और साली का अपने होनेवाले जीजा से जूते के बदले पैसे की मांग करना, वर पक्ष के लड़कों का जूता खोजना फिर वर और दोनों पक्षों में नोंक-झोंक होना, ये इस फिल्म की विशेषता के तौर पर रेखांकित की गई। माधुरी दीक्षित ने तब एक इंटरव्यू में इस बात को स्वीकार भी किया था कि ये फिल्म दर्शकों को अपनी जड़ों की ओर लौटने के लिए प्रेरित करती है, पूरे परिवार का साथ रहने और जीने की सीख भी देती है। 

अगर इस फिल्म पर विचार करें तो इसमें न तो कोई खलनायक है, न ही मार-पीट, खून खराबा है, न ही गोलियों की तड़तड़ाहट है। इस फिल्म में है कर्णप्रिय संगीत और गाने। लता मंगेशकर के स्वर में माय नि माय और लता और एस पी बालासुब्रह्ण्यम का युगल गीत दीदी तेरा देवर दीवाना बेहद लोकप्रिय हुआ था। वर्षों तक और अब भी शादी के समय ये गीत अवश्य सुनाई पड़ जाते हैं। फिल्म निर्माण के समय जब ये बात सामने आई कि इस फिल्म में 14 गीत हैं तो फिल्मों के जानकार ने इसको बहुत ज्यादा बताया था। लेकिन दर्शकों ने इन सुरीले गानों को हाथों हाथ लिया था। गानों के अलावा इस फिल्म ने भारतीय वेशभूषा को स्थापित किया। आप याद कीजिए हम आपके हैं कौन में माधुरी दीक्षित ने जो बैंगनी रंग की कढाई की गई साड़ी पहनी थी वो कितनी लोकप्रिय हुई थी। साड़ी के साथ डोरी वाला मैचिंग बैकलेस ब्लाउज और कुंदन का भारी नेकलेस। साड़ी पहनने का माधुरी का अंदाज यानि सीधा पल्लू । यह अनायास नहीं था कि इस फिल्म के पोस्टर पर माधुरी दीक्षित को इसी साड़ी में दिखाया गया था। अब भी वो रंग, उस पर की गई कढ़ाई, बैकलेस डोरी वाला ब्लाउज विवाह समारोह के समय महिलाओं की पहली पसंद बनी हुई है। हम आपके हैं कौन फिल्म से माधुरी ने अपनी भारतीय नारी की छवि को पुख्ता तो किया ही पश्चिम वेशभूषा के बढ़ते चलन पर ब्रेक लगाई। इस फिल्म में भारतीय पारिवारिक मूल्यों को भी इस तरह से दिखाया गया है कि दर्शक प्रभावित हो सकें। गोदभराई की रस्म के बाद निशा की भूमिका निभा रही माधुरी दीक्षित की बड़ी बहन पूजा एक दुर्घटना का शिकार हो जाती है। परिवार में तय होता है कि पूजा के छोटे बच्चे की खातिर निशा का विवाह पूजा के पति से करवा दिया जाए। पूजा तैयार हो जाती है लेकिन नाटकीय घटनाक्रम में पूजा और प्रेम का विवाह हो जाता है। पूजा और प्रेम पहली ही मुलाकात से एक दूसरे की तरफ आकर्षित हो गए थे। भाभी की बहन से प्यार की कहानियां भी भारतीय समाज में बहुत सुनी जाती रही हैं। कुल मिलाकर अगर कहा जाए तो हम आपके हैं कौन संयुक्त परिवार की अवधारणा को मजबूत करती है। इस फिल्म के दृष्य, इसकी संवाद अदायगी, नायिकाओं के कपड़े और आभूषण, उनको पहनने का तरीका, गीत, संगीत सभी का एक ऐसा आकर्षक कोलाज था जिसने भारतीय दर्शकों को अबतक अपने मोहपाश में बांध रखा है। 


Saturday, August 3, 2024

सरकार और संगठन का द्वंद्व पुराना


इन दिनों उत्तर प्रदेश की राजनीति में संगठन बड़ा या सरकार को लेकर खूब चर्चा हो रही है। उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव मौर्य के बयान कि सरकार से संगठन बड़ा होता है, के बाद ये चर्चा तेज हो गई थी। उनके बयान के इस वाक्य की अलग अलग तरीके से व्याख्या की गई। इसको सरकार और संगठन के बीच मनमुटाव के तौर पर भी रेखांकित किया गया। राजनीतिक विश्लेषकों ने लोकसभा चुनाव परिणाम में भारतीय जनता पार्टी को अपेक्षित सफलता नहीं मिलने से जोड़कर इसकी व्याख्या प्रस्तुत की। सरकार और संगठन के बीच चल रही इस चर्चा के बीच उत्तर प्रदेश राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो सत्यकाम ने पुरुषोत्तम दास टंडन की जयंती पर एक व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया। उस व्याख्यान की तैयारी के सिलसिले में जानकारी जुटाने के क्रम में एक टंडन और नेहरू ने जुड़ा एक बेहद रोचक प्रसंग मिला। वो प्रसंग भी सरकार और संगठन से जुड़ता है। स्वाधीनता के बाद 1950 में कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव होना था। पुरुषोत्तम दास टंडन कांग्रेस के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार होना चाहते थे। जबकि उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू नहीं चाहते थे कि पुरुषोत्तम दास टंडन कांग्रेस के अद्यक्ष बनें। टंडन अपनी उम्मीदावरी को लेकर अडिग थे। वो नेहरू की मुसलमानों की तुष्टीकरण की नीति को लेकर न केवल असहमत थे बल्कि उसका खुलकर विरोध भी करते थे। नेहरू ने कई नेताओं के जरिए टंडन को संदेश भिजवाया कि वो अध्यक्ष पद से अपनी उम्मीदवारी वापस ले लें। टंडन को सरदार पटेल से लेकर अन्य प्रदेशों के संगठन का समर्थन था। वो किसी भी कीमत पर अपनी उम्मीदावरी वापस लेने को तैयार नहीं थे। नेहरू को निरंतर ये संदेश मिल रहा था कि टंडन अपनी उम्मीदावरी वापस नहीं लेंगे। 

इस बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने इस मसले को सार्वजनिक करने का निर्णय लिया। उन्होंने 8 अगस्त 1950 को एक पत्र टंडन को लिखा। इस पत्र के टंडन तक पहुंचते ही सरकार और संगठन के बीच का झगड़ा सार्वजनिक हो गया। नेहरू ने जो पत्र लिखा था उसमें उन्होंने टंडन को नसीहत दी थी। नेहरू ने लिखा था कि इस वक्त कांग्रेस बुरे दौर से गुजर रही है और उसको अगर फिर से पार्टी में उर्जा का संचार नहीं किया गया तो इसकी बुरी हालत हो सकती है। पार्टी आतंरिक कलह से जूझ रही है और पार्टी नेताओं की लालसा बढ़ती जा रही है। नेहरू ने अपने पत्र में आगे लिखा कि ऐसा प्रतीत होता है कि आपको लगता है कि मैं जो कुछ कर और कह रहा हूं वो गलत है। मैं भी आपके भाषणों के बारे में सुनता और पढ़ता हूं और मेरा ये विश्वास दृढ़ होता जाता है कि आप भारत में उन ताकतों का समर्थन कर रहे हैं जो देश के लिए ठीक नहीं हैं। मुझे लगता है कि इस समय देश के सामने जो चुनौतियां हैं उसमें पार्टी में एकता आवश्यक है। हमें मुसलमानों की समस्याओं पर एकजुट होकर न सिर्फ विचार करना चाहिए बल्कि उनको सुलझाने का प्रयास भी करना चाहिए। हम ऐसा तो नहीं ही कर पा रहे हैं बल्कि अल्पसंख्यकों के प्रति पाकिस्तान के कदमों की आड़ में असहिष्णुता दिखा रहे हैं। अफसोस है कि आप उस जमात को समर्थन कर रहे हैं जो सांप्रदायिक है। नेहरू के इस पत्र के बाद संगठन में खेमेबंदी और तेज हो गई। जो बातें अबतक पार्टी में चल रही थीं वो खुलकर सामने आ गई। टंडन मजबूती के साथ अपनी उम्मीदवारी पर अड़े रहे। नेहरू को इस बात का अनुमान होने लगा था कि कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में उनका खेमा कमजोर पड़ रहा है। पटेल समेत दक्षिण के कई नेता टंडन के समर्थन में थे।  

अब जवारलाल नेहरू के सामने बड़ा संकट खड़ा हो गया क्योंकि उन्होंने तो सार्वजनिक रूप से टंडन की उम्मीदवारी का विरोध कर दिया था। अध्यक्ष का चुनाव उनकी प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया था। जवाहरलाल नेहरू ने टंडन के विरोध नें जे बी कृपलानी को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया था। अब नेहरू ने एक ऐसा दांव चला जिसकी कल्पना उस समय के कांग्रेस के नेताओं को नहीं था। उन्होंने घोषणा कर दी कि अगर टंडन जीत जाते हैं तो वो उनकी अध्यक्षता वाली कांग्रेस कार्य समिति में किसी कीमत पर नहीं रहेंगे। नेहरू की इस घोषणा के बाद इस बात की चर्चा होने लगी थी कि संगठन बड़ा या सरकार। यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि ये सब तब हो रहा था जब देश को स्वाधीन हुए लगभग तीन वर्ष हुए थे। विभाजन की विभीषिका का दंश पूरा देश झेल रहा था। पुरुषोत्तम दास टंडन विभाजन का दंश झेल रही बहुसंख्यक हिंदू जनता के पक्ष में खड़े थे। वो निरंतर उनकी समस्याओं को उठा रहे थे और मुसलमान और उनके समर्थक नेताओं को प्रश्नों के घेरे में खड़ा कर रहे थे। मुसलमान नेताओं पर उनके प्रहार से नेहरू नाखुश थे लेकिन कांग्रेस में टंडन का समर्थन बढ़ता जा रहा था। गोविंद वल्लभ पंत ने भी टंडन का समर्थन कर दिया था। तत्कालीन मैसूर प्रांत के मुख्यमंत्री के हुनुमंथैय्या ने तो पत्र लिखकर टंडन को समर्थन दिया था। अपने पत्र में उन्होंने स्पष्ट किया था कि नेहरू सरकार ने स्वाधीन भारत के लिए जो राह चुनी है उससे वो असहमत हैं और चाहते हैं कि टंडन और पटेल मिलकर भारत को एक ऐसा नेतृत्व प्रदान करें जो नेहरू की नीतियों से पृथक हो। 

नेहरू की तमाम कोशिशों के बावजूद पुरुषोत्तम दास टंडन ने उनके उम्मीदवार जे बी कृपलानी को संगठन चुनाव में पराजित कर दिया। ये कृपलानी की हार से अधिक नेहरू की हार थी। टंडन की जीत के बाद नेहरू बेहद खफा हुए थे। पर न तो उन्होंने सरकार में पद छोड़ा था और न ही कांग्रेस कार्य समिति की सदस्यता। कार्य समिति में वो टंडन के निर्णयों पर निरंतर प्रश्न चिन्ह लगाते रहते थे। उन्होंने अपनी हार के लिए सरदार पटेल और हनुमंथैय्या को भी जिम्मेदार माना था और दोनों के विरुद्ध लगातार काम करने लगे थे। टंडन करीब एक वर्ष से कुछ अधिक समय तक पार्टी के अध्यक्ष रहे पर नेहरू ने उनके खिलाफ ऐसा माहौल बनाया कि उन्हें आखिरकार इस्तीफा देना पड़ा। उन्होंने नेहरू की राजनीतिक चालों को समझते हुए भी पद छोड़ दिया था। वो नहीं चाहते थे कि सरकार और संगठन के बीच निरंतर हो रहे झगड़े के कारण पार्टी की छवि खराब हो। पहले आमचुनाव में पार्टी को नुकसान हो। टंडन के इस्तीफे के बाद नेहरू खुद पार्टी के अध्यक्ष बने। लंबे समय तक प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष दोनों पद पर रहे। 

टंडन ने ये साबित किया था कि संगठन सरकार से बड़ा होता है लेकिन नेहरू ने टंडन को घेरकर इस्तीफा करवाकर ये दिखा दिया कि सरकार संगठन से बड़ा होता है। कालांतर में नेहरू ने पार्टी पर भी अपना दबदबा कायम कर लिया और अपनी मर्जी के अध्यक्ष बनवाते रहे। टंडन पर दबाव बनाकर नेहरू ने इस्तीफे तो ले लिया लेकिन पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र समाप्त होने की राह भी खोल दी।