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Saturday, August 17, 2024

विकसित भारत में वैश्विक संस्थान का स्वप्न


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वाधीनता दिवस के अवसर पर लालकिला की प्राचीर से विकसित भारत के सुझावों की चर्चा की थी। कई सुझावों का उल्लेख करने के क्रम में प्रधानमंत्री ने विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय की बात भी की थी। प्रधानमंत्री ने भले ही सुझावों के क्रम में इसकी चर्चा की लेकिन भारत में विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय या शैक्षणिक संस्थानों की कमी महसूस की जाती है। विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय या शैक्षणिक संस्थान के लिए तकनीक के अलावा भाषा या कला के क्षेत्र में प्रयास किया जाना चाहिए। इस प्रयास को फलीफूत करने के लिए 2020 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की गई। शिक्षा नीति में भाषा और कला पर बहुत अधिक जोर दिया गया। विकसित भारत के लिए यह आवश्यक भी है कि हमारे देश में विश्वस्तरीय शिक्षा संस्थान हों। यहां एक विश्वविद्यालय है, जिसका नाम है महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय। ये विश्वविद्यालय महाराष्ट्र के वर्धा में है। 1997 में इस विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। इस विश्वविद्यालय के उद्देश्यों में तीन उद्देश्य ऐसे हैं जिसको हासिल करने के लिए अगर गंभीरता से प्रयास होता तो ये विश्वविद्यालय वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बना चुका होता। ये तीन उद्देश्य हैं हिंदी को वैश्विक भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए सुसंगत प्रयास, अंतराष्ट्रीय शोध केंद्र के रूप में विश्वविद्यालय का विकास और अंतराष्ट्रीय विमर्श केंद्र के रूप में विश्वविद्यालय का विकास। अपनी स्थापना के 27 वर्षों में विश्वविद्लाय में कोई भी ऐसा ठोस कार्य नहीं हुआ जिसके आधार पर कहा जा सके कि ये इन तीन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए गंभीर है। विश्वविद्यालय के पहले कुलपति अशोक वाजपेयी तो दिल्ली में बैठकर ही वर्धा स्थित विश्वविद्यालय चलाते रहे। पत्रिकाएं निकालते रहे। वैश्विक संस्थान बनाने के लिए कुछ नहीं किया। बाद के कुलपतियों ने नियुक्तियां की और भवन बनवाए। पिछले सालभर से यहां कोई स्थायी कुलपति नहीं है। 

अब बताया जा रहा है कि कुलपति की नियुक्ति की प्रक्रिया चल रही है। प्रश्न यही उठता है कि किसी कुलपति के अचानक जाने के बाद भी इतना समय चयन में क्यों लगता है। महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय अपने आरंभिक दिनों से ही विवादों में रहा है। पिछले वर्ष जब विश्वविद्यालय के कुलपति ने पद छोड़ा था तब केंद्र सरकार ने आईआईएम, नागपुर के निदेशक को कुलपति का अतिरिक्त प्रभार दे दिया था। हाईकोर्ट ने इसको नियम विरुद्ध बताते हुए उनके प्रभार को रद कर दिया था। नए सिरे से विश्वविद्यालय को नियमानुसार कुलपति की नियुक्ति प्रक्रिया आरेभ करने को कहा था। नियमानुसार कुलपति की नियुक्ति के लिए जो समिति बनती है उसके दो सदस्यों के नाम का चयन करके विश्वविदयालय की कार्यपरिषद  शिक्षा मंत्रालय को भेजती है। कार्यपरिषद की बैठक कुलपति बुलाते हैं। हाईकोर्ट के आदेश के बाद होना ये चाहिए था कि नियमानुसार विश्वविद्यालय के वरिष्ठतम प्रोफेसर को कुलपति का प्रभार दिया जाता। वो कार्यपरिषद की बैठक बुलाते। ऐसा नहीं हुआ। विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलसचिव ने बैठक आहूत की। फाइल पर लिखा कि ‘सभी तथ्यों और शिक्षा मंत्रालय के मौखिक निर्देश और कार्यपरिषद के सदस्यों के साथ मोबाइल पर हुई वार्तानुसार सभी के मतानुसार तत्काल कार्यपरिषद की बैठक बुलाई जाने की सभी की सहमति बनी।“  कार्यपरिषद की बैठक हुई। दो नाम चयनित कर मंत्रालय को भेज दिए गए। चयन समिति बन गई । समिति ने योग्य उम्मीदवारों के साथ चर्चा कर संभावित कुलपति के नामों का पैनल तैयार कर लिया। अब प्रश्न उठ रहे हैं कि क्या शिक्षा मंत्रालय के मौखिक आदेश पर और कार्यपरिषद के सदस्यों से मोबाइल पर स्वीकृति लेकर बैठक बुलाई जा सकती है। जानकारों का कहना है कि ऐसा नहीं हो सकता। शिक्षा मंत्रालय का दखल अनावश्यक है और कुलसचिव को कार्यपरिषद की बैठक बुलाने का अधिकार नहीं है। अगर ऐसा है तो कुलपति की पूरी चयन प्रक्रिया ही संदिग्ध हो जाएगी। विश्वविद्यालय एक बार फिर से विवाद में घिर जाएगा। फाइल पर ये लिखना भी कि शिक्षा मंत्रालय के मौखिक आदेश पर ऐसा किया गया, भी कई प्रश्न खड़े करता है। 

विवादों के बारे में इस कारण चर्चा की गई क्योंकि इससे विश्वविद्यालय अपने मूल उद्देश्यों से भटकता रहता है। न तो शोध हो पाते हैं न ही किसी प्रकार का नैरेटिव बनाया जा सकता है। किसी भी संस्था में अगर उसका मुखिया नहीं होगा तो उसका अपने उद्देश्यों से भटकना स्वाभाविक है। प्रधानमंत्री मोदी निरंतर राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने के लिए प्रयासरत हैं, शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान भी गंभीरता से इसके क्रियान्वयन में लगे हैं लेकिन सिस्टम या कोई अदृष्य शक्ति बाधा बन रही है। महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ही नहीं बल्कि शिमला का भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान भी कई वर्षों से स्थायी निदेशक की बाट जोह रहा है। कभी किसी तो कभी किसी कुलपति को प्रभार दे दिया जाता है। कई और केंद्रीय विश्वविद्यालय में कुलपति के पद खाली हैं। होना ये चाहिए कि जब किसी कुलपति या निदेशक के कार्यकाल का छह महीना शेष रहे तो नए कुलपति या निदेशक की चयन प्रक्रिया आरंभ कर दी जाए। ऐसा होने से प्रशासनिक और अकादमिक निरंतरता बनी रहती है। जैसे केंद्र सरकार में जब कोई सचिव अवकाश प्राप्त करनेवाला होता है तो उनका स्थान लेने वाले व्यक्ति को विशेष कार्याधिकारी बनाकर वहां पदस्थ कर दिया जाता है। व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहती है। कुलपतियों की नियुक्ति में भी ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है। कहा जा सकता है कि इस बार लोकसभा चुनाव के कारण देरी हुई लेकिन जहां सालभर और तीन वर्ष से नियुक्ति टल रही है उससे तो बचा सकता था। शिक्षा और संस्कृति मंत्रालयों के अधीन चलनेवाली संस्थाओं में नियुक्तियों में तुलनात्मक रूप से अधिक देरी क्यों होती है, इसपर विचार करना बहुत आवश्यक है।  

अगर हमें अपने देश में विश्वस्तरीय शिक्षा संस्थान बनाना है तो इन प्रशासनिक कार्यों की चूलें कसनी होंगी। शिक्षा के क्षेत्र में विशेषकर उच्च शिक्षा में संस्थानों में संसाधन की कमी बिल्कुल नहीं है, कमी है तो बेहतर प्रशासन की, बेहतर समन्वय की। राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा के चार वर्ष हो गए लेकिन अबतक स्कूली शिक्षा के अनुकूल सारी पुस्तकें तैयार नहीं की जा सकी हैं। कबतक होंगी ये भी ज्ञात नहीं हो सकता है। राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद का पुस्तकें तैयार करने का दायित्व है। अगर हम शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षण और शोध का स्तर बढ़ाना चाहते हैं तो उसको राजनीति और अफसरशाही के शिकंजे से भी मुक्त करना होगा। कुलपतियों को हमारे देश में बहुत अधिक अधिकार हैं लेकिन कम ही कुलपति ऐसे हैं जो शोध और शिक्षा के स्तर को बढ़ाने के लिए प्रयासरत दिखते हैं। इस बारे में भी एक मैकेन्जिम बनाया जाना चाहिए जिससे ये पता चल सके कि अमुक उच्च शिक्षा संस्थान में कितने नवाचर हुए, कितने नए विषयों के बारे में शोध हुए। हो ये रहा है कि अधिकतर विश्वविद्यालय आयोजनों में लगे हैं। सेमिनार आदि अगर नए विषय और ज्ञान की खोज के लिए हों तो संस्थान की प्रतिष्ठा बढ़ती है। अगर कार्यक्रम का उद्देश्य सिर्फ आयोजन करवा कर गितनी बढञना हो तो उससे कुछ हासिल नहीं होता सिर्फ करदाताओं के पैसे की बर्बादी होती है। विकसित भारत के लिए शिक्षा के क्षेत्र में भी ठो काम करने होंगे। 


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