Translate

Saturday, August 10, 2024

लोकतंत्र की आड़ में हित साधती शक्तियां


हमारे पड़ोसी देश बंगलादेश में हिंसक आंदोलन के बाद वहां की प्रधानमंत्री शेख हसीना को देश छोड़ना पड़ा। ये सबकुछ एक के बाद एक घटना की परिणति रहा। उसके बाद जिस तरह से नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता और बैंकर मोहम्मद यूनुस की अगुवाई में सरकार बनी उससे कई प्रश्न खड़े हो गए। जब शेख हसीना ने देश छोड़ा था, तब सभी विशेषज्ञ इस मत के थे कि बंगलादेश में सेना ही सत्ता सेना संभालेगी। लोकतंत्र को फिर से स्थापित करने में समय लगेगा। उनके अनुमानों के विपरीत मोहम्मद यूनुस की अगुवाई में कार्यवाहक सरकार का गठन हो गया। मंत्री बन गए। सबने शपथ ले ली। कार्य आरंभ हो गया। क्या सबकुछ इतना आसान था। क्या इसकी बिसात पहले से नहीं बिछाई गई थी। बंगलादेश में कट्टरपंथी काफी समय से सक्रिय थे और जमात ए इस्लामी इसकी अगुवाई कर रहा था। पहले तो जमात के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा और फिर इस संगठन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया। आरोप शेख हसीना पर लगे और कहा जाने लगा कि वो तानाशाह हो गई है। वो विरोधियों को जेल भेज देती है। आज जो मोहम्मद यूनुस सरकार के कार्यवाहक प्रमुख हैं उनपर भी बंगलादेश में कई मुकदमे चल रहे हैं। एक मामले में तो उनको छह महीने की सजा भी हो चुकी है। इन सब मामलों को लेकर शेख हसीना सरकार के खिलाफ वातावरण बनाया गया। वातावरण बनाने में विदेश से सक्रिय संगठनों और इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म की बड़ी भूमिका रही। खास तौर पर उन संस्थाओं और संगठनों की जो अमेरिका से अपना कारोबार चलाते हैं। बंगलादेश में जिस तरह से माहौल बनाया गया उसी तरह का माडल कई अन्य देशों में भी देखा जा चुका है। इस माडल में होता ये है कि अगर उनकी पसंद की सरकार नहीं बनी तो उसको बदलने के लिए ये संस्थाएं अपना अलगोरिदम बदल देती हैं। सरकार के विरोध वाली पोस्ट अधिक दिखती हैं और समर्थन वाली पोस्ट को बाधित कर देते हैं। किसी एक छोटी घटना को इतना बड़ा कर दिया जाता है कि जनमत सरकार के विरोध में हो जाती है। पर ये तो किसी के हाथ के औजार भर हैं। 

योजना इस तरह से बनाई जाती है कि पहले इंटरनेट मीडिया के माध्यम से देश में सत्ता विरोधी माहौल बनाया जाए। माहौल बनाने के लिए चौतरफा व्यूह रचना की जाती है। किसी छोटे केस को इतना प्रचारित करवाया जाए कि लगे देश के सामने वही सबसे बड़ा मुद्दा है। फिर किसी नेता से उस घटना के विरोध में बयान दिलवाया जाता है। शासक को तानाशाह बताकर उसकी छवि गढ़ने का प्रयत्न किया जाता है। डिजीटल के माध्यम से इस तरह के बयानों को प्रसारित और प्रचलित करवा कर इस छवि को गाढ़ा करवाया जाता है। लोकतंत्र को बचाने की आड़ में ये सारा खेल खेला जाता है। अंतत:  इस तरह की कथित क्रांतियों से लोकतंत्र कमजोर ही होता है। हमें अरब स्प्रिंग को याद करना चाहिए। 2010 के आसपास मध्यपूर्व और उत्तरी अफ्रीका के देशों में अरब स्प्रिंग का खेल हुआ। इस क्षेत्र में कुछ देशों की सरकारों के मुखिया को तानाशाह बताकर डिजीटल के माध्यम से उनको गिराने की व्यूह रचना कि गई। 17 दिसंबर 2010 में ट्यूनीशिया में हुई घटना को याद करने की आवश्यकता है। एक ठेलेवाले के साथ हुए व्यवहार के कारण विरोध का स्वर उठा और पूरे देश में इतनी तेजी से फैला कि वहां के राष्ट्रपति को 14 जनवरी 2011 को देश छोड़कर भागना पड़ा। उसके बाद देश में लोकतंत्र की स्थापना के नाम पर तरह तरह की बातें होती रही। कभी कोई कार्यवाहक बना तो कभी कोई। सालभर तक ये सब चला रहा और फिर एक मानवाधिकार कार्यकर्ता को राष्ट्रपति बनाया गया। फिर वहां इस्लामिक कट्टरपंथियों, कथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों और अरब स्प्रिंग के पहले के राष्ट्रपति के समर्थकों में संघर्ष आरंभ हुआ। अबतक चल रहा है। कभी समय पर चुनाव हो जा रहे हैं कभी नहीं। लोकतंत्र स्थापित करने के नाम पर जो हुआ वो सबके सामने है। 

ये सिर्फ ट्यूनीशिया की कहानी नहीं है। ऐसा कई देशों में हुआ। सब जगह सत्ता परिवर्तन की स्क्रिप्ट एक जैसी है। हमार देश में 2024 के चुनाव में जिस तरह से चुनाव प्रचार के दौरान इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स ने अपना अलगोरिथम बदला, जिस तरह से मोदी विरोधियों को प्रमुखता मिली वो एक अलग शोध की मांग करता है। डिजीटल और सोशल सेक्टर को साथ लेकर जिस तरह से सरकार बनाने और गिराने का अंतराष्ट्रीय खेल खेला जाता है उसके बारे में सार्वजनिक रूप से चर्चा होनी चाहिए। रूस-यूक्रेन युद्ध के आरंभ होने क बाद पश्चिमी देशों को और दुनिया की महाशक्ति होने का दावा करनेवाले देशों को भारत का स्थायित्व और उसकी वैश्विक मंच पर बढ़ती धमक गले नहीं उतर रही थी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि भारत का विदेश मंत्री पश्चिम को कहे कि यूरोप की समस्या पूरी दुनिया की समस्या नहीं हो सकती। भारत अपने निर्णय के लिए अपनी जनता का हित देखने लगा था, पश्चिम का मुंह जोहना छोड़ दिया था। परिणाम 2024 के लोकसभा चुनाव में देखने को मिला। नरेन्द्र मोदी को तानाशाह बताया गया। नागरिक अधिकारों की कटौती औक संविधान बदलने जैसे विमर्श आरंभ हुए। मोदी भले ही बहुमत से दूर रह गए लेकिन सरकार बदलने का मंसुबा पाले बैठी वैश्विक ताकतों को मुंह की खानी पड़ी। अभी अमेरिकी चुनाव को देख लीजिए तो वहां कमला हैरिस जिस तरह के बयान दे रही हैं उससे मिलते जुलते बयान यहां भी लोकसभा चुनाव के समय सुनाई देते थे। 

ऐसा नहीं है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ये वैश्विक ताकतें निष्क्रिय हो गई हैं। हमारे देश में वो अब भी सक्रिय हैं। सरकार विरोधी माहौल बनाने में जुटी हैं। इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं। इन वैश्विक ताकतों को लगता है कि भारत को कमजोर करने का यही तरीका है कि चुनी हुई सरकार के खिलाफ जनता में आक्रोश पैदा करो। इसके लिए वो छात्रों का, अदालतों का, नीति निर्धारकों का सहारा लेते हैं। अभी बंगलादेश में मोहम्मद यूनुस को स्थापित करने के लिए अमेरिका के सामाजिक कार्यकर्ता, कुछ सीनेटर और विचारक एक्स पर अपनी राय रख रहे हैं। उनकी पोस्ट को पढ़ने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि मोहम्मद यूनुस बंगलादेश के उद्धारक हैं। दरअसल अमेरिका और अन्य वैश्विक ताकतों को दुनिया के अन्य देशों में अपनी चौधराहट स्थापित करने के लिए ये सब करना पड़ता है। वो चाहते हैं कि अन्य देशों की सरकार उनके मुताबिक चले। उनके व्यापारिक और सामरिक हितों की रक्षा होती रहे। किसी देश में अंदरुनी गड़बड़ी होगी तो उनको दखल देने का अवसर मिलेगा। चाहे वो इराक हो, लीबिया हो,सुडान हो या अन्य देश। पाकिस्तान चूंकि अब उनके किसी काम नहीं रहा तो इन शक्तियों ने बंगलादेश को अपना नया ठिकाना बनाने की योजना पर कार्य किया। लोकतंत्र के नाम पर चलनेवाले इन कथित आंदोलनों के अगुवा इन वैश्विक शक्तियों के हाथों की कठपुतली मात्र हैं। कठपुतलियां वही करती हैं जो उनकी डोर थामनेवाला चाहता है। बंगलादेश से लेकर भारतीय राजनीति में इस तरह की कई कठपुतलियां दिख रही हैं। 


No comments: