राष्ट्रीय शिक्षा नीति के त्रिभाषा फार्मूले को लेकर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन निरंतर गैर हिंदी भाषी प्रदेशों पर हिंदी थोपने का आरोप लगा रहे हैं। संसद में भी इस आरोप पर हंगामा हुआ और गृहमंत्री अमित शाह ने पलटवार करते हुए स्टालिन की पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम पर भाषा के नाम पर समाज में जहर घोलने का आरोप लगाया। शिक्षा मंत्रालय में एक भारतीय भाषा समिति कार्य करती है जो सभी भारतीय भाषाओं के प्रोन्नयन के लिए मंत्रालय को सुझाव देती है। हिंदी को लेकर उठ रहे विवादों के बीच शिक्षा मंत्रालय में भारतीय भाषा समिति के अध्यक्ष प्रो चमू कृष्ण शास्त्री से राष्ट्रीय शिक्षा नीति में हिंदी और भारतीय भाषाओं की स्थिति, हिंदी थोपने के आरोप और त्रिभाषा फार्मूले के क्रियान्वयन पर एसोसिएट एडीटर अनंत विजय ने उनसे बातचीत की।
प्रश्न- राष्ट्रीय शिक्षा नीति में त्रिभाषा फर्मूला क्या है जिसको लेकर इतना विवाद हो रहा है?
त्रिभाषा सूत्र सबसे पहले 1968 में आया था। उसको ही वर्ष 1986 की शिक्षा नीति में दोहराया गया जो कि वर्ष 2019 तक चला। त्रिभाषा सूत्र में फर्स्ट लैंग्वेज यानी पहली भाषा मातृभाषा, दूसरी भाषा अंग्रेजी, तीसरी भाषा हिंदी राज्यों में अन्य किसी राज्य की भाषा और अन्य अहिंदी भाषी राज्यों में हिंदी भाषा होती थी। त्रिभाषा का सारांश यह था। वर्ष 2020 में पहली बार त्रिभाषा सूत्र के बारे में यह कहा गया कि यह आगे भी प्रचलित रहेगा। हालांकि उसमें राज्यों व छात्रों की आकांक्षाएं, प्रादेशिक आवश्यकताएं और संविधानसम्मत प्रविधान को ध्यान में रखते हुए सभी राज्य अपना त्रिभाषा सूत्र का क्रियान्वयन करेंगे। एक तरह से इसे इतना लचीला बनाया गया, जिसमें कोई प्रिस्क्रिप्शन नहीं है। यानी किसी भी भाषा विशेष के लिए कोई निर्देश नहीं दिया गया। शिक्षा की दृष्टि से देखें तो स्वाधीन भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है।
प्रश्न- आपकी बातों से तो ऐसा प्रतीत होता है कि त्रिभाषा फार्मूले में हिंदी की अनिवार्यता नहीं है?
बिल्कुल नहीं। हिंदी की अनिवार्यता नहीं है परंतु साथ ही अंग्रेजी की अनिवार्यता भी नहीं है। यदि आप देखेंगे तो पाएंगें कि पूरे देश में हिंदी से ज्यादा यदि कोई एक भाषा पढ़ी जाती है तो वह अंग्रेजी है। दूसरी भाषा के रूप में पूरे देश में अंग्रेजी ही पढ़ाई जाती है। एक दृष्टि से अंग्रेजी की अनिवार्यता को भी खत्म किया गया। यह पहली बार हुआ। बेशक, त्रिभाषा फार्मूला नीति है, लेकिन इसके क्रियान्वयन के लिए तीन साल तक नेशनल या स्टेट एजुकेशन बोर्ड और अन्य भागीदारों की मदद से कैरिकुलम फ्रेम वर्क (पाठ्यक्रम) बनाया गया। इसे स्कीम आफ स्टडीज कहते हैं। इस पर फिर तीन साल काम किया गया। वर्ष 2023 में नेशनल कैरिकुलम फ्रेमर्वक बना। इस स्कीम आफ स्टडीज में किसी भाषा विशेष का उल्लेख न करते हुए उसे समभाव तरीके से परिभाषित किया गया। एक नए सोच को सामने रखते हुए पहली, दूसरी और तीसरी भाषा की जगह आर-1, आर-2 और आर-3 शब्द का प्रयोग किया गया। साक्षरता की शुरूआत रीडिंग से होती है...यानी पढ़ने से। आर-1 में मातृभाषा या राज्य की भाषा को स्थान दिया गया। इसमें मातृभाषा और राज्य दोनों को रखा गया क्योंकि यह जरूरी नहीं कि मातृभाषा और राज्य भाषा एक हो। दोनों अलग-अलग हो सकते हैं। आर-2 में आर-1 के अलावा कोई भी भाषा, आर-3 में आर-1 और आर-2 के अलावा कोई भारतीय भाषा। दरअसल, होता क्या था कि वर्ष 2020 से पहले बच्चे थर्ड लैंग्वेज के रूप में फ्रेंच, जर्मन या अंग्रेजी पढ़कर आगे निकल जाते थे। राज्यों में तो ऐसा नहीं हो पाता था, लेकिन सीबीएएसई में इस तरह से किया जाता था। अब नई शिक्षा नीति के तहत ऐसा नहीं हो पाएगा। सबसे अहम यह है कि अब हर विद्यार्थी को दो भारतीय भाषा अनिवार्य रूप से सीखनी होगी। अब बताइए, कि इसमें हिंदी कहां थोपी गई है ? वर्तमान सरकार ने सर्वसमावेशक, सार्वभौमिक व सार्वदेशिक भाषा नीति अपनाई है।
प्रश्न- आर-1, आर-2,आर-3 उत्तर प्रदेश और बिहार में कैसे लागू होगा? कौन कौन सी भाषाएं छात्र चुन सकते हैं।
सिर्फ उप्र ही नहीं बल्कि हिंदी भाषी 10 राज्यो में यह चुनौती है। बिहार- उत्तर प्रदेश में मगधी, अवधी, भोजपुरी जैसी भाषा है। दरअसल, नई शिक्षा नीति के तरह बहुभाषिता को बढ़ावा देना ही प्राथमिकता है। अन्य प्रदेश की एक भाषा सीखना है। अब सवाल यह है कि यह कैसे सीखेंगे? आनलाइन सीख सकते हैं। समर वेकेशन में अन्य राज्य में जाकर भाषा सीख सकते हैं। स्कूलों द्वारा 15 दिनों का क्रैश कोर्स शुरू किया जा सकता है। एक राज्य के स्कूल दूसरे राज्यों के स्कूलों से पेयरिंग कर सकते हैं। क्लस्टर बना सकते हैं। इसी तरह अंतरराज्यीय यानी कुछ दिनों के लिए वहां जाकर रहकर भी बच्चे एक भारतीय भाषा सीख सकते हैं। इससे आत्मीयता बढ़ेगी या एकता बढ़ेगी।
प्रश्न- क्या यह व्यवहारिक है? संसाधन कहां से लाएंगे? उप्र, बिहार जैसे राज्यों में जहां शिक्षकों की भारी कमी है, वहां नई भाषा सीखाने के लिए शिक्षक कैसे मिलेंगे?
ये सब हो जाएगा अगर इससे राजनीति निकल जाएगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लेकर जितनी भ्रांतियां हैं उसको पहले दूर करना होगा। इस शिक्षा नीति में सबकुछ सुझाव मात्र है, सजेस्टिव है, निर्णय तो राज्य सरकारों को ही करना है, क्रियान्वयन भी।
प्रश्न- फिर इतना विरोध क्यों हो रहा है? हिंदी थोपने की बात कहां से आई?राष्ट्रीय शिक्षा नीति में तो कहीं भी हिंदी शब्द तक का उपयोग नहीं किया गया? वह भी चार साल बाद इसके विरोध का क्या औचित्य?
देखिए, राजनीति मेरा विषय नहीं है। मैं भाषाविद् हूं। मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भाषा नीति को लेकर जो सोच है और इसको उन्होंने प्रकट भी किया है कि सभी भारतीय भाषाएं राष्ट्रीय भाषाएं हैं। तमिल संगमम जैसे कार्यक्रम के जरिये तमिल भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर लेकर आए। अब तक अलगाववादी ताकतों व विभाजनकारी सोच रखने वाले तत्वों द्वारा भाषा का उपयोग समाज और देश को तोड़ने के लिए किया जाता रहा है। प्रधानमंत्री ने इसी भाषा को समाज व देश को आपस में जोड़ने का साधन बनाया। भाषाओं के बीच में जो आत्मीयता है, उसका उपयोग किया। उनका कहना है भारत में अलग-अलग भाषा बोलने वालों के बीच जो आत्मीयता है, यह आत्मीयता ही एकता का निर्माण करती है। विविधता सौंदर्य है, एकता शक्ति है। विविधता का सौंदर्य एकता की शक्ति के आधार पर ही सुदीर्ष काल जीवंत और विकसित रह सकता है। एकता की शक्ति के बिना यह विविधता टिक नहीं सकती है। आत्मीयता, विविधता और एकता...यही भारतीयता है। इससे ही लाखों सालों से भारत एक राष्ट्र के नाते अडिग रहा। भारत राष्ट्र के नाते सब प्रकार के विदेशी आक्रमणों को झेलते हुए भी एक रहा। सभ्यता पर आक्रमण के साथ-साथ वैचारिक आक्रमण भी हुआ। अब जब प्रधानमंत्री की भाषा नीति से एकता का सूत्र और सुदृढ़ हो रहा है, तो कुछ अलगाववादी तत्व भाषा को साधन बना रहे हैं। आने वाले समय में चुनाव भी होने वाले वाले हैं। हो सकता है विरोध का यही कारण हो।
प्रश्न- आपने अभी तमिल संगमम का नाम लिया...कहा जाता है कि ये कार्यक्रम आपका ब्रेन चाइल्ड है?
(हंसते हुए) नहीं...नहीं। ऐसा नहीं है।
प्रश्न-आपने प्रधानमंत्री का नाम जरूर लिया, लेकिन कहा जाता है कि प्रस्ताव आपका था। सच्चाई क्या है?
सच्चाई यही है कि विचार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का है। शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने इसे दिशा दिया और भारतीय भाषा समिति ने संयोजक के रूप में मैंने इसे क्रियान्वित किया।
प्रश्न- क्या तमिल संगमम जैसे आयोजन से कोई फायदा हुआ?
निश्चित रूप से लाभ हुआ। की के अलावा गुजरात के सौराष्ट्र में भी तमिल संगमम का आयोजन किया गया। दरअसल, लगभग 500 साल पहले गुजरात के जो लोग तमिलनाडु के जाकर बसे, वे सौराष्ट्री कहलाते हैं। उनके लिए आयोजन किया गया।
प्रश्न- क्या श्रीनगर में भी भारतीय भाषाओं को लेकर आप लोगों ने कुछ किया था?
जम्मू-कश्मीर सहित सभी राज्यों में भारतीय भाषा संगम कार्यक्रम किया था। इस आयोजन में उस राज्य में अलग-अलग भाषा बोलने वाले लोग एक दिन एक मंच पर एकत्रित होते हैं और अपनी-अपनी बात रखते हैं। इसके अलावा मोदी सरकार ने भारतीय भाषा उत्सव शुरू किया। महाकवि सुब्रह्रमणयम भारती के जन्मदिवस (11 दिसंबर) पर भारतीय भाषा उत्सव के रूप में मनाना शुरू किया। काशी विश्वविद्यालय में कवि सुब्रह्रमणय भारती के नाम से एक चेयर की स्थापना भी की गई।
प्रश्न- तमिलनाडु सरकार को फिर क्या परेशानी है, सभी जगह अगर ऐसा होगा तो वहां भी होगा।
देखिए, तमिलनाडु में वर्ष 1965-1968 से कभी न कभी हिंदी विरोध की आवाज उठती रहती है। सही मायने में मैं इसे हिंदी विरोधी नहीं बल्कि यह हिंदू समाज विरोधी आंदोलन कहना चाहूंगा। वह द्रविड़ राज्य बनाने का आंदोलन था। द्रविड़ अलग है...आर्य अलग है। इसको बढ़ावा देने के लिए वहां टू लैंग्वेज यानी द्विभाषा फर्मूला रखा गया। इसके तहत वे तमिल और अंग्रेजी ही पढ़ाते हैं। तमिलनाडु में 12 प्रतिशत लोग गैर तमिलभाषी है। यह 14 अलग-अलग भाषाएं बोलते हैं। इससे समस्या यह होती है कि तमिलनाडु के 12 प्रतिशत विद्यार्थी अपनी मातृभाषा नहीं सीख पाते हैं। यह बड़ा अन्याय है। दूसरी, बड़ी परेशानी यह है कि एक और भारतीय भाषा नहीं जानने के कारण यहां के युवा राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित प्रतियोगी परीक्षा और दूसरे राज्यों में नौकरी के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षाओं से वंचित रह जाते हैं। तीसरी परेशानी, तमिलनाडु से अलग-बगल के राज्यों में काम करनेवाले मजदूरों को भाषा की परेशानी होती है। वहीं, दूसरे राज्यों से यहां आने वाले कर्मचारियों व मजदूरों के बच्चे भी अपनी भाषा नहीं सीख पाते हैं। दरअसल, यह तमिलनाडु को देश के अन्य राज्यों से काटने का एक प्रयास है। भाषा के नाम पर अकारण विवाद खड़ा करके तमिनलाडु को एक अलग द्वीप बना रहे हैं। चेन्नई के 44 प्रतिशत गैर तमिलाभाषी हैं। उनके साथ अन्याय हो रहा है। केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र से सटे राज्यों की सीमाओं पर सदियों से बसे गैर तमिलभाषी भी अपनी मातृभाषा पढ़ नहीं पा रहे हैं, सीख नहीं पा रहे हैं।
प्रश्न - तो असली चुनौती क्या है? भारतीय भाषा समिति इसे कैसे देखती है?
देश में द्वि या त्रिभाषा फार्मूला से कहीं ज्यादा बड़ा व अहम मुद्दा है शिक्षा की 'माध्यम भाषा'। असली लड़ाई तो मातृभाषा माध्यम या भारतीय भाषा माध्यम और अंग्रेजी माध्यम के बीच है। वर्ष 2011 में तमिलनाडु में बारहवीं में 65 प्रतिशत विद्यार्थी तमिल माध्यम में पढते थे। वर्ष 2021 तक यह आंकड़ा 54 प्रतिशत तक आ गया। अब यह घटकर 47 प्रतिशत हो गया। तमिल का नुकसान हिंदी की वजह से नहीं बल्कि अंग्रेजी माध्यम की वजह से हो रहा है। यही हाल पूरे देश का है। देशभर के प्राइवेट स्कूलों में 65 प्रतिशत विद्यार्थी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ रहे हैं। सरकारी, अनुदान प्राप्त और निजी स्कूलों को मिला लें तो आंकड़ा निकाले तो 35 प्रतिशत विद्यार्थी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ रहे हैं। हर साल डेढ़ से दो करोड़ विद्यार्थी मातृभाषा या राज्यभाषा से आंग्रेजी माध्यम में 'माइग्रेट' हो रहे हैं। मैं अपने परिवार का उदाहरण देता हूं। मेरे परिवार में हम लोग नौ भाई-बहन हैं। दो को छोड़कर शेष सात भाई-बहन के परिवारों में उनके बच्चे मातृभाषा में पढ़-लिख नहीं सकते हैं क्योंकि वह अंग्रेजी भाषा में पढ़े हैं। उनका सोचना, लिखना-पढ़ना सबकुछ अंग्रेजी भाषा में हो रहा है। वह अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं। अंग्रेजी भाषा का एक प्रवाह है। हायर एजुकेशन और आइआइएम, आइआइटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान अंग्रेजी माध्यम से है। यह क्यों है ? इसलिए, क्योंकि इकोसिस्टम अंग्रेजी माध्यम में है। कोर्ट, प्रशासन, व्यापार, उद्योग, साइंस-टेक्नोलाजी सब जगह अंग्रेजी माध्यम में ही काम हो रहा है। एक गांव का बच्चा यदि चिप्स का एक पैकेट भी खरीदता है तो उसके सामने पैकेट पर अंग्रेजी में लिखा शब्द आता है। पूरा इको सिस्टम ही अंग्रेजी माध्यम के नीचे दबता जा रहा है। स्थिति भयावह है।
प्रश्न- तो आगे रास्ता क्या है, कैसे और क्या करना होगा?
अंग्रेजी के इकोसिस्टम को बदलकर भारतीय भाषाओं का इकोसिस्टम बनाना होगा।
प्रश्न- राष्ट्रीय शिक्षा नीति कब तक इम्प्लीमेंट हो सकेगा? पांच साल तो निकल गया है?
कूरिकुलम फ्रेमवर्क बन रहा है। दो-तीन साल में क्रियान्वयन हो जाना चाहिए।
प्रश्न- क्या आपको नहीं लगता कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति का क्रियान्वयन धीमी गति से चल रहा है।
देर इसलिए हो रही है क्योंकि सभी को लेकर काम करना है। कांग्रेस की सरकार के दौरान सबको लेकर चलना जरूरी नहीं होता था,लेकिन वर्तमान सरकार में सभी को साथ मिलाना जरूरी है। सिर्फ पाठ्यक्रम बदलना ही काम नहीं है बल्कि मानसिकता बदलना भी जरूरी है। इसमें भारतीय दृष्टिकोण और उस विषय में भारतीय इतिहास को जोड़ना है। इस पाठ्यक्रम के आधार पर जो पढ़कर आगे बढ़ेंगे, वह भारत की जड़ों से जुड़ेंगे। इसलिए समय लग रहा है। अभी तक समझाया गया कि भाषा और संस्कृति अलग-अलग है, लेकिन ऐसा नहीं है। भाषा और संस्कृति एक ही है। उनकी अभिव्यक्ति अलग-अलग है। मूल तत्व एक है। यह भी पढ़ाना है। अब तक जो-जो गलत सिखाया गया, उसे भी सुधारना है।
प्रश्न-यानी भाषा के साथ-साथ संस्कृति से जोड़ना ही उद्देश्य है?
बिलकुल। कर्नाटक के गांव में आज भी एक व्यवस्था है। वहां खाने से पहले व्यक्ति घर के सामने खड़े होकर कहते हैं कि गांव में कोई भूखा है तो वह हमारे घर पर आकर खाना खाएं। यह पंरपरा आज भी कुछ जगहों पर हैं। यह जीवन व्यवस्था में लाना है।
प्रश्न- भाषा के विकास के लिए क्या करना चाहिए?
इसके लिए सात चीजें जरूरी है। उस भाषा में बोलने वाले लोग हों, माध्यम भाषा के रूप में प्रयोग हो,.समकालीन शब्द निर्माण, एडाप्टेशन आफ टेक्नोलाजी, टीचींग-लर्निंग, सर्टिफिकेशन और पैट्रनेज (स्टेट या कार्पोरेट)। एडाप्टेशन आफ टेक्नोलाजी की जरूरत को इस तरह से समझा जा सकता है कि दुनिया में 6000 भाषाएं थीं, लेकिन जिनका उपयोग प्रिटिंग में नहीं हुआ, वह खत्म हो गए। सर्टिफिकेशन से आशय यह है कि अंग्रेजी की प्रोफेशिएंसी (योग्यता) परीक्षण के लिए टोफेल की परीक्षा होती है, लेकिन भारतीय भाषाओं के लिए ऐसी व्यवस्था नहीं है। इन सात आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए हर राज्य में बहुभाषिता को बढ़ना देना चाहिए। हिंदी राष्ट्रभाषा है ऐसा मानकर लड़ रहे हैं। जबकि प्रधानमंत्री बार-बार कह रहे हैं सभी भारतीय भाषाएं राष्ट्रीय भाषा हैं। दरअसल, भाषाओं को अलग-अलग वर्गों में बांटकर बहुत नुकसान पहुंचाया गया।
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