समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सदस्य रामजीलाल सुमन के राणा सांगा और बाबर पर संसद में दिए बयान पर बवाल मचा हुआ है। सुमन ने कहा था कि राणा सांगा ने बाबर को भारत पर हमले के लिए आमंत्रित किया। वो इतने पर ही नहीं रुके बल्कि राणा सांगा को लेकर एक अभद्र टिप्पणी भी कर दी। इस बयान के बाद समाजवादी पार्टी और उसके सहयोगी दलों से समानुभूति रखने वाले बौद्धिकों ने इसको उचित ठहराना आरंभ कर दिया। चैटजीपीटी और एआई के सहारे ये साबित करने की कोशिश की जाने लगी कि इस प्रसंग का उल्लेख बाबर ने अपने संस्मरणों की किताब बाबरनामा में किया है। अनुदित बाबरनामा की प्रामाणिकता को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। आगे बढ़ने से पहले बाबरनामा के बारे में थोड़ी चर्चा कर लेते हैं। बाबरनामा तुर्की भाषा में लिखा गया था। 1590 में अकबर के शासनकाल के दौरान अब्दुरर्हीम खानखाना ने इसका फारसी में अनुवाद किया। 1826 में इसका अंगेजी में अनुवाद हुआ जिसको लायडन और इर्सिकन ने किया। इसके बाद फ्रांसीसी भाषा में भी इसका अनुवाद हुआ। ये सभी अनुवाद मूल से नहीं होकर फारसी से हो रहे थे। इसके बाद ए एस बेवरेज ने मूल तुर्की से अंग्रेजी में अनुवाद किया जो अपेक्षाकृत प्रामाणिक माना गया। मजे की बात ये है कि बाबरनामा में राणा सांगा का उल्लेख उस समय नहीं होता है जब बाबर भारत पर बार-बार आक्रमण कर रहा था। बाबरनामा में 1519 से लेकर 1525 तक की एंट्री नहीं है या वो उपलब्ध नहीं है। कुछ भाषा के अनुवाद में राणा सांगा का प्रसंग नहीं है लेकिन जिसमें है वो पुस्तक में बहुत बाद में आता है। जहां लिखा गया कि राणा सांगा ने बाबर के पास एक दूत भेजा था और कहा था कि आप उत्तर से आक्रमण करो हम पश्चिम से करेंगे। लेकिन इस दूत वाली कहानी की प्रामाणिकता पर कई इतिहासकार संदेह जता चुके हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रकाशित पुस्तक मध्यकालीन भारत, जिसकी भूमिका सैयद नुरुल हसन ने लिखी है, में इस बात का उल्लेख है कि- ‘तारीख के बारे में निश्चयपूर्वक भले ही न कहा जा सके पर यही वो समय था जब बाबर को राणा सांगा का आमंत्रण मिला था। इस आमंत्रण का उल्लेख केवल बाबर ने ही किया है और अन्य किसी साक्ष्य से इसकी पुष्टि नहीं होती।‘ (पृ. 283) यही बात अन्य इतिहासकार भी करते रहे हैं। इतिहासकार जी एन शर्मा ने भी राणा के दूत वाली कहानी पर संदेह व्यक्त करते हुए अपनी पुस्तक मेवाड़ और मुगल सम्राट में लिखा है कि बाबर ने राणा सांगा को शक्तिशाली समझते हुए उनकी मित्रता और सहायता प्रात करने के लिए अपना दूत चित्तौड़ भेजा था। इनके अपने तर्क हैं। किस तरह से इतिहास को विकृत किया गया और भ्रामक अनुवाद के आधार पर तरह तरह की भ्रांतियां फैलाई गईं उसका उदाहरण भी इतिहास की पुस्तकों में उपस्थित है। इतिहासकार रोमिला थापर की एक पुस्तक है भारत का इतिहास। इसमें थापर लिखती हैं, केवल अफगानों ने ही बाबर को सहयाता नहीं दी, एक राजपूत राजा भी दिल्ली से राज्य करने का स्वप्न देख रहा था और उसने बाबर से संधि कर ली। चार पृष्ठ के बाद फिर से राणा सांगा और बाबर का उल्लेख रोमिला थापर करती हैं, ‘1509 में राणा सांगा मेवाड़ का राजा बना और दिल्ली की सत्ता का विरोध करने लगा...सांगा ने दिल्ली पर आक्रमण का विचार किया। सांगा ने इब्राहिम लोदी के विरुद्ध बाबर से मैत्री कर ली और इस बात पर सहमत हो गया कि जब बाबर दिल्ली पर उत्तर से आक्रमण करेगा तो वह दक्षिण और पश्चिम से कर देगा।‘ अब देखिए कैसे इतिहास को बदलने का खेल खेला जाता है। अगर बाबरनामा के अंग्रेजी अनुवाद के आधार पर हम ये मान भी लें कि राणा सांगा ने बाबर के पास दूत भेजा था तो उससे ये कहां से सिद्ध होता है कि दोनों के बीच संधि और मैत्री हो गई जिसका दावा थापर कर रही हैं। संधि और मैत्री का अर्थ तो थापर को ज्ञात ही होगा।
इस प्रसंग पर एक और इतिहासकार सतीश चंद्रा की राय देख लेते हैं। सतीश चंद्रा की लिखी ये पुस्तक लंबे समय तक ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ाई जाती रही है। वो लिखते हैं कि इसी समय बाबर को दौलत खां के पुत्र दिलावर खां ने भारत आने का निमंत्रण दिया और आग्रह किया कि वो इब्राहिम लोदी को सत्ता से हटाने में मदद करें क्योंकि वो तानाशाह है। अब इसकी जो अगली पंक्ति है वो बहुत महत्वपूर्ण है। सतीश चंद्रा लिखते हैं, ये संभव है कि इसी समय राणा सांगा का भी एक दूत बाबर के पास पहुंचा और उनको भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया। अब इस पूरे वाक्य से एक इतिहासकार का छल सामने आ जाता है। सतीश चंद्रा के पास इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि राणा सांगा का दूत बाबर के पास पहुंचा था। संभव लगाकर उन्होंने पाठ्य पुस्तक में ये बात लिख दी। इस संभावित मुलाकात, जिसका कोई प्रमाण नहीं है, को वर्षों से ग्यारहवीं के विद्यार्थियों को पढ़ाया जा रहा है। उनके मानस पर तथ्यहीन बात अंकित की जा रही है। इतिहास संभावनाओं के आधार पर नहीं उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर लिखा जाता है। मार्क्सवादी इतिहासकारों ने तो इतिहास लेखन में भी साक्ष्य की अनदेखी करके एजेंडा को प्राथमिकता दी। इसी पुस्तक में सतीश चंद्रा जब खानवा युद्ध के बारे में लिखते हैं तो बताते हैं कि राणा सांगा की वीरता की कहानियां सुनकर बाबर के सैनिकों का मनोबल गिरा हुआ था। सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए बाबर ने राणा सांगा के खिलाफ युद्ध को जेहाद घोषित किया। उसने युद्ध आरंभ करने के पहले शराब की सभी बरतनों को तोड़ डाला ताकि वो अपने सैनिकों को भरोसा दिला सके कि वो कट्टर मुस्लिम है और जेहाद के पहले शराब छोड़ रहा है। जिससे युद्ध के लिए बाबर को धर्म का सहारा लेना पड़ा हो उससे मैत्री और संधि कैसे हो सकती थी। वो भी चंद महीने पहले। कुछ मार्क्सवादी इतिहासकार ये तर्क देते हैं कि बाबर ने जब लोदी को पराजित कर दिया तो उसने भारत में रहने का निर्णय लिया। इससे राणा सांगा नाराज हो गए। क्या तथाकथित संधि में इस बात का उल्लेख था कि बाबर इब्राहिम लोदी को हराकर लौट जाएगा। रोमिला थापर जैसी इतिहासकार को ये भी बताना चाहिए था।
हमारे देश के इतिहास के साथ स्वाधीनता के बाद के मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इतने तथ्यों को छिपाया और इतने तथ्यों को गढ़ा जिसने भारतीय इतिहास की सूरत और सीरत दोनों बिगाड़ दी है। आज हमारे देश के नायक पर संसद में अशोभनीय टिप्पणी की जा रही है तो उसके लिए ये इतिहासकार ही जिम्मेदार हैं। आज अगर भारत के मध्यकालीन इतिहास को लेकर भ्रम का वातावरण बना है तो उसके लिए भी अर्धसत्य लिखनेवाले ये इतिहासकार ही जिम्मेदार हैं। अगर आप 1946 में प्रकाशित नेहरू की पुस्तक डिस्कवरी आफ इंडिया पढ़ लेंगे तो अनुमान हो जाएगा कि मार्क्सवादी इतिहासकारों ने मुगल आक्रांताओं को नायक बनाने का प्रयास क्यों किया। आज आवश्यकता है कि इतिहास को साक्ष्यों के आधार पर लिखा जाए संभावनाओं के आधार पर नहीं।
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