दिल्ली के रविन्द्र भवन में साहित्य अकादेमी का साहित्योत्सव चल रहा है। अकादमी का दावा है कि ये साहित्य उत्सव एशिया का सबसे बड़ा उत्सव है। कार्यक्रम की संरचना से इसकी विशालता का अनुमान लगाया जा सकता है। पिछले चार दशकों से साहित्य अकादेमी ये आयोजन करती रही है। जबसे के श्रीनिवासराव अकादमी के सचिव बने हैं तब से ये आयोजन निरंतर समृद्ध हो रहा है, लेखकों की भागीदारी के स्तर पर भी और विषयों के चयन में भी। साहित्योत्सव का शुभारंभ केंद्रीय संस्कृति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत ने किया। विभिन्न भारतीय भाषा के साहित्यकारों और लेखकों की उपस्थिति में करीब आधे घंटे के भाषण में शेखावत ने कई महत्वपूर्ण बातें कहीं। साहित्य का सृजन करनेवालों की प्रशंसा, उत्सवधर्मिता का हमारे समाज में महत्व, सामूहिक चिंतन की भारतीय परंपरा, भारत के भविष्य और उसकी प्रासंगिकता पर शेखावत ने अपनी बात रखी। साहित्यकारों की भूमिका को बेहद सम्मानपूर्वक याद किया। साहित्य की जीवंतता और गतिशीलता, भारत की विविधताओं का साहित्य में स्थान, देश को एकता के सूत्र में निबद्ध करने में साहित्य की भूमिका जैसे विषयों को संस्कृति मंत्री ने अपने व्याख्यान में छुआ। साहित्य समाज का दर्पण है से आगे जाकर शेखावत ने कहा कि हमारा साहित्य केवल समाज के वर्तमान का दर्पण नहीं अपितु भारत के दर्शन, भारत के धर्म, भारत की नीति, भारत का प्रेम, भारत का युद्ध, भारत की स्थापत्य कला और भारत के समाज जीवन से जुड़ी बातों की व्याख्या भी है। यहीं पर उन्होंने बौद्धिक प्रदूषकों की भूमिका पर टिप्पणी तो की लेकिन लगा जैसे उनको बहुत महत्व नहीं देना चाहते हैं।
अच्छी-अच्छी बातों के बाद संस्कृति मंत्री शेखावत ने उपस्थित साहित्यकारों के सामने विनम्रता से एक चुनौती रखी। साहित्यकारों और लेखकों का आह्वान किया कि वो परिवर्तन के वर्तमान दौर को अपने लेखन का विषय बनाएं। परिवर्तन के कारक के रूप में खुद को इस तरह से अनुकूलित करें कि आनेवाली पीढ़ी उनका स्मरण करे। शेखावत ने कहा कि आज भारत नई करवट ले रहा है। पूरे विश्व में भारत की नई पहचान बन रही है। पिछले 10 वर्षों में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत से जिस तरह और जिस गति के साथ प्रगति की है, केवल आर्थिक दृष्टिकोण से ही नहीं इससे इतर भी, उससे पूरे विश्व में भारत का सम्मान नए सिरे से गढ़ा और लिखा जा रहा है। सम्मान बढ़ने के साथ भारत के ज्ञान की, भारत के विज्ञान की, भारत के योग की, भारत की संस्कृति की, आयुर्वेद की, जीवन पद्धति की, भारत की कृषि परंपराओं पर नए सिरे पूरे विश्व में पहचान सृजित हो रही है। ऐसे महत्वपूर्ण समय में हमारे साहित्य सर्जकों की, कलम के धनी लोगों की प्रासंगिकता महत्वपूर्ण हो जाती है। जब कोई समाज या राष्ट्र समपरिवर्तन से गुजरता है, जब संभवनाएं द्वार पर दस्तक देती हैं, तो हर घटक की जिम्मेदारी बनती है कि वो बदलाव के पहिए को गति प्रदान करने का माध्यम बने। शेखावत बोले कि हम सौभाग्यशाली हैं कि हम सबको ऐसे समय में जीने और काम करने का अवसर मिला है जब भारत इस तरह के समपरिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। पूरा विश्व स्वीकार कर रहा है कि भारत विकसित होने की दिशा में काम कर रहा है। भारत विश्व का बंधु बनकर नेतृत्वकर्ता बनने वाला है। ऐसे महत्वपूर्ण समय में समाज के सबसे महत्वपूर्ण तबके को भी अपनी जिम्मदारी का एहसास करके अपनी भूमिका का निर्वहन करना चाहिए।
अंत में गजेन्द्र सिंह शेखावत ने कहा कि वो ऐसा नहीं कह रहे, कहने की धृष्टता भी नहीं कर सकते कि आज के साहित्यकार बदलाव को लक्षित कर लिख नहीं रहे। उन्होंने अवसर का लाभ उठाते हुए लेखकों से अनुरोध कर डाला कि समय की महत्ता को पहचान कर देश को एक साथ, एक विचार, एक मन, एक संकल्प लेकर एक पथ पर आगे ले चलें, ताकि उसपर गर्व किया जा सके। शेखावत ने स्वाधीनता संग्राम में साहित्यकारों और लेखकों की भूमिका को याद किया। कहा कि आज से सौ डेढ़ सौ साल पहले जिन लोगों ने अंग्रेजों की सत्ता के खिलाफ संघर्ष किया था उनके पास भी वो अवसर था। जिन्होंने मुगलों की सत्ता से लोहा लिया उनके पास भी अवसर था। अवसर के अनुरूप आचरण के कारण उनका नाम हम गर्व से लेते हैं। आज भी अपने रक्त में उनके नाम को सुनकर स्पदंन महसूस करते हैं। मैं आज ये बात जिम्मेदारी के साथ कह रहा हूं भारत परिवर्तित होगा। 50 साल बाद जब इस परिवर्तन का इतिहास लिखा जाएगा तो मैं चाहूंगा कि आपका नाम भी उतने ही सम्मान के साथ आनेवाली पीढ़ी स्मरण करते हुए गर्व करे जिस गर्व की अनुभूति सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के स्मरण से होती है।
साहित्योत्सव के उद्घाटन भाषण में संस्कृति मंत्री ने भले ही अंत में कुछ मिनट इस विषय को दिया लेकिन इसकी गूंज लंबे समय तक साहित्य जगत में रहनेवाली है। आज साहित्यकारों और लेखकों के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती है वो है अपने समय को ना पकड़ पाने की है। पटना में आयोजित जागरण बिहार संवादी के दौरान उपन्यासकार रत्नेश्वर ने एक सत्र में इस बात को रेखांकित किया था कि आज के लेखक अपने समय में घटित हो रहे बदलाव को या तो पकड़ नहीं पा रहे हैं या जानबूझकर उसकी अनदेखी कर रहे हैं। उन्होने जोर देकर कहा था कि ये अकारण नहीं है कि आज बड़े पाए के न तो कहानीकार सामने आ रहे हैं और ना ही उपन्यासकार। घिसी पिटी लीक पर चलने से पाठक विमुख होते जा रहे हैं। समय का हाथ छूट जाने का दुष्परिणाम है कि आज उपन्यासों की महज पांच सौ प्रतियां छप रही हैं। कविता संग्रह के प्रकाशन के लिए कम ही प्रकाशक उत्साह दिखाते हैं। हाल ही में प्रयागराज में संपन्न महाकुंभ को केंद्र में रखकर अनिल विभाकर ने जलकुंभियां नाम से एक कविता लिखी। इस कविता में अनिल विभाकर ने लिखा, जलकुंभियों का महाकुंभ पसंद नहीं/ कोई नहीं करता जलकुंभियों की चिंता/कोई कर भी नहीं रहा/चिंता करे भी तो कोई क्यों/हमेशा गंदे जल में पनपती हैं वे/निर्मल जल भी सड़ जाता है इनके संसर्ग में/पानी फल और मखाना की दुश्मन होती है जलकुंभियां/इन्हें साफ करना ही पड़ेगा/जहां-जहां भी है जल/लोग लगाएंगे मखाना, उगाएंगे पानी फल। इस कविता में अनिल विभाकर ने महाकुंभ की अकारण आलोचना करनेवालों पर प्रहार किया है। वो कहते हैं कि इन्हें साफ करना ही पड़ेगा। निहितार्थ स्पष्ट है। इस कविता के सामने आने के बाद अनिल विभाकर की आलोचना आरंभ हो गई। देखा जाए तो विभाकर समाज मानस में हो रहे परिवर्तन को पकड़ने और उसको लिखने का प्रयास कर रहे हैं। आज भारतीय समाज में जिस तरह के परिवर्तन हो रहे हैं क्या वो साहित्य का विषय बन पा रहे हैं? इस पर चर्चा होनी चाहिए। संस्कृति मंत्री ने साहित्य अकादेमी के मंच से लेखकों से इस परिवर्तन को पकड़ने और परिवर्तन का सारथी बनने का आह्वान किया। अगर ऐसा हो पाता है तो ना केवल भारतीय साहित्य का भला होगा बल्कि लेखकों को समाज जीवन से जुड़ने और समाज के मन को सामने लाने का अवसर भी मिल सकेगा।
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