शिवरात्रि के साथ ही प्रयागराज महाकुंभ का समापन हो गया। प्रयागराज में डेढ़ महीने तक चले महाकुंभ के दौरान करोड़ों आस्थावान हिंदुओं ने पवित्र संगम में डुबकी लगाई। तमाम तरह की दिक्कतों का सामना करके भी देश के कोने कोने से श्रद्धालु प्रयागराज पहुंचे। प्रयागराज और दिल्ली में भगदड़ से हुई मौत ने भी आस्था के इस समागम पर कोई प्रभाव डाला हो ऐसा प्रतीत नहीं होता। दो दुर्घटनाओं में जो मौत हुईं वो बेहद तकलीफदेह है। बावजूद इसके अगर महाकुंभ में शिवरात्रि के दिन तक गंगा में स्नान करनेवालों की संख्या में कमी नहीं आई तो इसके पीछे कुछ न कुछ कारण तो होगा। कई विरोधी दल के नेताओं ने कुंभ को लेकर जिस तरह की टिप्पणियां कीं उसने भी जनता के मनोबल पर कोई विपरीत असर नहीं डाला।
कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने तो यहां तक कह दिया कि कुंभ में डुबकी लगाने से नौकरी नहीं मिलती, पेट नहीं भरता आदि आदि। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव निरंतर कुंभ को लेकर टीका टिप्पणी करते रहे। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने तो महाकुंभ को मृत्युकंभ तक कह दिया। विपक्षी नेताओं के इतना सब कहने के बाद भी महाकुंभ के दौरान पवित्र स्नान करनेवाले श्रद्धालुओं की संख्या का कीर्तिमान बना। एक अनुमान के मुताबिक इस महाकुंभ में बड़ी संख्या में युवाओं ने भी आस्था की डुबकी लगाई। इसको युवाओं के सनातन की ओर बढ़ते झुकाव या फिर अपनी जड़ों की ओर लौटने की तरह देखा जा रहा है। विपक्षी नेता भले ही वोटबैंक के लोभ-लालच में सनातन के इस विशेष आयोजन को लेकर उलजलूल टिप्पणियां कर रहे थे लेकिन भारत के जन का मन कहीं और रमा था।
इस वातावरण को देखकर प्रेमचंद के एक लेख का स्मरण हो रहा है। प्रेमचंद का एक निबंध है, स्वराज्य के फायदे। इस निबंध में प्रेमचंद ने स्वाधीनता के फायदे गिनाए हैं। लेकिन जो सबसे बड़ा फायदा बताया है वो इस प्रकार है। प्रेमचंद कहते हैं, स्वराज्य से देश को सबसे बड़ा फायदा जो होगा वह भारतीय जीवन का पुनरुद्धार है। प्रत्येक जाति के जीवन में कोई प्रधान गुण होता है। अंग्रेज जाति का प्रधान गुण पराक्रम है, फ्रांसिसियों का प्रधान गुण स्वतंत्र प्रेम है, उसी भांति भारत का प्रधान गुण धर्मपरायणता है। हमारे जीवन का मुख्य आधार धर्म था। हमारा जीवन धर्म के सूत्र में बंधा हुआ था। लेकिन पश्चिमी विचारों के असर से हमारे धर्म का सर्वनाश हुआ जाता है, हमारा वर्तमान धर्म मिटता जाता है, हम अपनी विद्या को भूलते जाते हैं। अपने रहन-सहन, रीति-रिवाज से विमुख होते जाते हैं। हमारा अद्वितीय सामाजिक संगठन छिन्न-भिन्न हुआ जाता है। पश्चिम की देखादेखी हम धनोपार्जन को ही जीवन का लक्ष्य मानने लगे हैं। संपत्ति को ही सर्वापरि समझने लगे हैं। यही हमारा धर्म हो गया है।
ज्ञान का, संतोष का, कर्तव्यपालन का , त्याग का महत्व हमारी निगाहों में उठता जाता है। हम विद्या को धर्म समझ कर सीखते और सिखाते थे, चाहे वो गान विद्या हो, धनुर्विद्या हो या कोई अन्य विद्या हो। अब हम उसे धनोपार्जन के लिए सीखते और सिखाते हैं। हममें परस्पर प्रेम नहीं रहा, सहानुभूति नहीं रही। हमारी मैत्री, हमारा प्रेम, हमारी सदिच्छाएं, हमारे ह्रदय की उच्च वृत्तियां, सभी धन इच्छा के नीचे दबती जाती हैं। सारांश यह है कि हम अपनी आत्मा को भूलते जाते हैं। स्वराज्य पाकर हम अपनी आत्मा को पा जाएंगे। हमारे धर्म का उत्थान हो जाएगा। अधर्म का अंधकार मिट जाएगा और ज्ञान भास्कर का उदय होगा।...हम किसी जाति के पिछलग्गू न बनकर संसार सभा में उचित स्थान पर बैठेंगे। हमारी गणना दीन हीन परवश जातियों में न होकर उन जातियों में होने लगेगी जिनके हाथों में संसार की बागडोर है।...हम उन्नत और बलवान जातियों के सम्मुख बैठने के अधिकारी हो जाएंगे।
प्रेमचंद की उपर्युक्त टिप्पणी में दो महत्वपूर्ण बात है। एक तो जब वो कहते हैं कि भारत का प्रधान गुण धर्मपरायणता है और हमारा पूरा जीवन धर्म के सूत्र में बंधा हुआ है। उनके इस वाक्य से समझा जा सकता है कि भारतीय समाज जीवन में धर्म का कितना महत्वपूर्ण स्थान रहा होगा। जब वो पश्चिमी विचार की बात करते हैं तो उनके दिमाग में क्या रहा होगा ये कहना कठिन है। अनुमान लगाया जा सकता है कि वो उन विचारों की चर्चा कर रहे होंगे जिसने भारत के मूल विचार पर प्रहार किया। प्रश्न उठ सकता है कि क्या वो मार्क्स और उनके विचारों की ओर इशारा कर रहे थे? प्रेमचंद ने इस निबंध के आरंभ में भी स्वराज्य के फायदे को गिनने को ईश्वर के गुणों को गिनने जैसा बताया है। सिर्फ इस निबंध में ही नहीं बल्कि प्रेमचंद ने अपने लेखन में अन्यत्र भी ईश्वर और भगवान का स्मरण किया है। प्रेमचंद सनातनी थे। सनातन और भारत में उनकी पूर्ण आस्था थी। बावजूद इसके अकादमिक जगत के वामपंथी विचार के शिक्षकों ने उनको जबरदस्ती वामपंथी घोषित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। दूसरी बात ये देखी जानी चाहिए कि प्रेमचंद ने जाति शब्द का उपयोग किन अर्थों में किया है। वो अंग्रेजों को फ्रांसीसियों को भारतीयों को एक जाति के तौर पर देखते हैं। उनके लिए जाति का मतलब एक तरीके से राष्ट्रीयता है। बाद में पता नहीं किन परिस्थियों में जाति को समूह विशेष के साथ जोड़ दिया गया। यह पूरा मसला एक अलग अध्ययन की मांग करता है।
प्रेमचंद भारत में जिस धर्मपरायणता की बात कर रहे हैं वो भारतीयों का मूल जीवन दर्शन है। प्रगतिशीलता के दावे करनेवालों के मन में कहीं न कहीं धर्म और उसकी परायणता को लेकर एक लगाव दिखता है। कुछ लोग ये तर्क देते हैं कि धर्म और आस्था बहुत ही व्यक्तिगत चीज है, ऐसे लोग भी धर्म को लेकर भ्रमित होते हैं। वो धर्म को कर्मकांड समझ लेते हैं और उसके ही आधार पर धर्म की व्याख्या कर उसके फायदे और नुकसान गिनाने लगते हैं। धर्म ना तो फायदा देखता है और ना ही नुकसान। उसका उद्देश्य तो मानव कल्याण है। धर्म को अफीम बतानेवाली विचारधारा के अनुयायी इस बात को समझ नहीं पाते हैं। अपने एजेंडे के अनुसार समाज में शोर मचाते हैं। धर्म के विरोध में वातावरण बनाने का प्रयास करते हैं। प्रेमचंद ने पराधीनता के कालखंड में ही इस बात का अनुमान लगा लिया था कि अगर भारत की जनता धर्म की ओर उन्मुख होती है तो संसार सभा में हमारे देश को उचित स्थान मिल सकेगा। आज वैश्विक स्तर पर भारत की जो स्थिति है उसको प्रेमचंद के इस अनुमान के साथ मिलाकर देखने के स्पष्ट तस्वीर बनती है। वैश्विक परिदृष्य में आज भारत ना तो किसी जाति का पिछलग्गू है और ना ही कोई अन्य देश हमारी उपेक्षा करने के बारे में सोच भी सकता है। आज भारत को दीन-हीन परवश जाति बताने का साहस दुनिया का शक्तिशाली और विकसित देश भी नहीं कर सकते हैं। आज कोई भी इतिहासकार भारत के बारे में लिखते हुए इसको संपेरों का देश कहने का साहस नहीं कर पाएगा। यह भारतीय जनता की धर्मपरायणता का ही प्रतिफल है। सनातन का जितना उत्थान होगा भारत उतना सबल और शक्तिशाली होगा। धर्मो रक्षति रक्षित:।
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