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Tuesday, December 4, 2012

पाठकों तक पहुंचें प्रकाशक

दिल्ली से सटे इंदिरापुरम के एक भव्य और दिव्य शॉपिंग मॉल में तकरीबन दो साल पहले एक बड़ी किताब की दुकान खुली थी । उसमें देश विदेश की तमाम नई पुरानी और हर विषय की पुस्तकें बेहद करीने से रखी गई थी । दो फ्लोर की उस किताब की दुकान में ग्राहकों के लिए बैठकर अपनी मनपसंद पुस्तकें छांटने और उसके अंशों को पढ़ने की सहूलियत भी थी । नीचे की मंजिल पर किताबों के साथ साथ संगीत और फिल्मों का भी एक बड़ा कलेक्शन था जहां से आप हिंदी फिल्मों के अलावा विश्व क्लासिक फिल्मों की डीवीडी खरीद सकते थे । उसी में एक अलग कोने में पंडित रविशंकर और जसराज से लेकर माइकल जैक्सन तक की म्यूजिक सीडी अलग अलग खानों में ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित किया करती थी । भजन से लेकर गजल तक की सीडी वहां करीने से रखी रहती थी और उसका विभाजन बेहद सुरुचिपू्र्ण और करीने से था ताकि ग्राहकों को अपनी पसंद की चीजों तक पहुंचने में किसी भी तरह की कठिनाई का सामना नहीं करना पड़े । पहली मंजिल पर घुसते ही करीने से सजा कर रखी जाती थी नई नई रिलीज हुई किताबें । उस दुकान में हलांकि अंग्रेजी की पुस्तकों की बहुलता थी लेकिन हिंदी की भी मशहूर किताबें मिल जाया करती थी । अगर पसंद की किताबें उपलब्ध ना हों तो वो मंगवाने का इंतजाम भी करते थे । आपको फोन नंबर लिख लिया जाता था और जैसे ही किताब उपलब्ध होती थी तो वहां से कॉल आ जाया करती थी । हर सप्ताहांत पर वहां पुस्तक प्रेमियों की अच्छी खासी भीड़ जुटा करती थी । लगता था कि किताब की दुकान ठीक चल रही थी । लेकिन चंद महीनों के अंदर ही वहां से किताबों का स्टॉक कम होना शुरू हुआ । ग्राहकों की पसंद की अनुपलब्ध किताबें मंगवाने में उनकी रुचि नहीं रही और उन्होंने ये सुविधा खत्म कर दी । फिर तो धीरे धीरे उस दुकान में भगवान की फोटो से लेकर बच्चों के खिलौने और खेल कूद के सामान भी बिकने लगे । पर तब भी पहली मंजिल पर किताबें रहा करती थी । तकरीबन सात आठ महीने आते आते उस दुकान ने, यूं लगा कि, दम तोड़ दिया है । एक सप्ताहांत वहां पहुंचा तो जिसकी आशंका थी वही हुआ । वहां चमकदार शीशे के गेट पर ताला लगा था और कागज पर चिपका था किराए के लिए उपलब्ध । दुखी मन से वापस लौटा क्योंकि पड़ोस में वैसी दुकान का बंद हो गई थी जहां किताबों के अलावा गीत संगीत की डीवीडी भी मिला करती थी । दरअसल पूरे इंदिरापुरम इलाके में वो इकलौती किताबों की दुकान थी । चंद साल पहले दुनिया की एक मशहूर पत्रिका ने इंदिरापुरम को विश्व के दस सबसे विकासशील और संभावना वाले शहरों शुमार किया था । लेकिन बावजूद उसके लाखों की आबादी वाले इलाके में इकलौती किताब की दुकान का खामोशी से बंद हो जाना गंभीर मसला था ।

बहुत मुमकिन है कि मॉल में खर्चे ज्यादा होने की वजह से किताब की दुकान बंद हो गई हो । लेकिन अभी चंद महीने पहले वहां से गुजर रहा था तो बेहद चौंकाने वाला दृश्य देखा । किताबों की दुकान वाली जगह पर एक मशहूर भारतीय फूड चेन ने अपना आउटलेट खोल दिया है । उस आउटलेट में इतनी भीड़ थी कि दोनों फ्लोर पर गार्ड ग्राहकों को बाहर ही रोक रहे थे और चंद मिनटों के इंतजार के बाद ही उनको अंदर जाने दिया जा रहा था । पैसे चुकाने वाले छह काउंटर पर लंबी कतार थी । अंदर की मेजें भरी हुई थी और ग्राहक मेज के पास खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे । अचानक थोडा अतीत में चला गया और यह सोचने लगा कि काश अगर यहां अब भी किताब की दुकान होती तो क्या इतनी ही भीड़ होती । इस सवाल का साफ जवाब मिला नहीं । लेकिन जब एक बार आपके जेहन में सवालों का बवंडर खड़ा होता है तो एक के बाद एक बमबारी की तरह से वो सामने आता जाता है । लिहाजा दूसरा सवाल खड़ा हो गया कि क्यों नहीं हो सकती किताबों की दुकान में भीड़ । इसका जवाब नहीं मिला । लिहाजा सवालों का आना बंद हो गया । मंथन शुरू हो गया । तलाश शुरू हो गई कि वजह क्या है कि हमारे समाज में खासकर हिंदी भाषी समाज में किताबों की अहमियत क्यों कर कम हो रही है ।
कई तर्क है कुछ लोगों का कहना है कि पश्चिमी संस्कृति के अंधानुकरण ने हमारी पढ़ने की आदत खत्म कर दी । लेकिन अभी कुछ दिन पहले नेशनल बुक ट्रस्ट और नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च ने भारतीय युवाओं के बीच पढ़ने की आदतों और उनकी रुचियों को लेकर इंडियन यूथ डेमोग्राफिक्स एंड रीडरशिप सर्वे किया था  जिसे नेशनल यूथ रीडरशिप सर्वे कहा गया । उस सर्वे में कई बेहद चौंकानेवाले नतीजे सामने आए हैं । युवाओं के बीच पढ़ने की कम रुचि की चार वजहें सामने आई हैं । पहला समय की कमी , दूसरा पढ़ने में रुचि का कम होना,तीसरा सूचना के नए स्त्रोतों का आसानी से उपलब्ध होना और चौथा पुस्तकों की उचित मूल्य पर उपल्बधता । ये बात ठीक है कि आज के देश के युवाओं के पास पढ़ने का वक्त कम है । युवा वर्ग अपने करियर को आगे बढ़ाने को लेकर भी जल्दी में है । टेलीवीजिन और इंटरनेट जैसे सूचना के नए स्त्रोतों से पढ़ने की भूख कम तो हो जाती है लेकिन चौथी वजह भी उतनी ही अहम है । उसमें दो वजहें एक साथ समाहित हैं । पहली पुस्तकों की उपलब्धता और दूसरे उसका मूल्य । हिंदी पुस्तकों की बात करें तो उसकी उपलब्धता लगातार सिकुड़ती जा रही है । दिल्ली और लखनऊ जैसे शहरों में भी किताबों की चंद दुकानें हैं । नतीजा यह होता है कि टहलते घूमते किताबें खरीदना नहीं हो पाता है । दिल्ली में तो किताब खरीदना एक पूरा प्रोजेक्ट है । किताबों को उचित मूल्य पर उपलब्ध करवाने में प्रकाशकों की कोई सामूहिक रुचि दिखाई नहीं देती है । कोई सामूहिक प्रयास नहीं होता है । ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदी प्रकाशन जगत में तो पाठकों की कोई अहमियत है ही नहीं । प्रकाशकों की पहली प्राथमिकता सरकारी और पुस्तकालयों की खरीद है । प्रकाशकों को यह बात समझ में क्यों नहीं आती है कि भारत में शिक्षित युवाओं का एक बेहद विशाल वर्ग है जो 2001 से लेकर 2009 के बीच तकरीबन 2.49 फीसदी की दर से बढ़ रहा है । यह बढ़ोतरी देश की सालाना जनसंख्या बढ़ोतरी से भी करीब आधा फीसदी ज्यादा है । शहरी इलकों में तो यह बढ़ोतरी तकरीबन सवा तीन फीसदी है । नेशनल यूथ रीडरशिप सर्वे के मुताबिक देशभर के युवाओं की कुल जनसंख्या के पच्चीस फीसदी युवाओं में पढ़ने की प्रवृत्ति है । जिसमें से सबसे ज्यादा करीब तैंतीस फीसदी पाठक हिंदी के हैं । इसमें से 42 फीसदी पाठक फिक्शन और 24 फीसदी नॉन फिक्शन किताबें पसंद करते हैं । बाकियों को अन्य तरह की किताबें पसंद हैं । अगर हम इस सर्वे के संकेतों को पकड़े तो सिर्फ हिंदी में फिक्शन और नॉन फिक्शन पढ़नेवाले युवा पाठकों की संख्या करोडो़ं में है । उस सर्वे में एक बात और साफ तौर पर उभर कर सामने आई है कि 56 फीसदी युवा किताबें खरीदकर पढ़ते हैं । अगर हम पाठकों की संख्या को और फिल्टर करें और उसमें से खरीदकर पढ़नेवालों की संख्या निकालें तो सिर्फ हिंदी हिंदी में ये संख्या लाखों में होगी । हिंदी के प्रकाशकों के सामने खरीदकर पढ़ने वाले इन लाखों युवा पाठकों तक पहुंचने की बड़ी चुनौती है लेकिन उस चुनौती को कारोबारी अवसर के रूप में देखने की रणनीति बनाने की कोशिश हिंदी के प्रकाशक गंभीरता के साथ नहीं कर रहे हैं । क्योंकि उसी सर्वे में यह बात भी उभर कर आई है कि अड़तीस फीसदी पाठकों को नई किताबों के बारे में दोस्तों से पता चलता है जबकि सिर्फ बीस फीसदी पाठकों को किताबों की दुकानों से पता चलता है । पुस्तकालयों से नई किताबों के बारे में सिर्फ 14 फीसदी पाठकों को पता चलता है ।
नेशनल बुक ट्रस्ट और नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च के इस सर्वे के नतीजों से यह बात तो साफ हो गई है कि भारत में पाठकों की संख्या कम नहीं हो रही है , खरीदकर पढ़नेवाले भी लाखों में हैं । पर अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि प्रकाशकों के सामने उन खरीदकर पढ़नेवाले पाठकों तक पहुंचने की इच्छा शक्ति है या नहीं । आनेवाले दिनों में हिंदी के प्रकाशकों को इस दिशा में सामूहिक प्रयत्न करना होगा । किताबों की आसमान छूती कीमतों पर लगाम लगाना होगा । इसके अलावा जरूरत इस बात की भी है कि सरकार भी देश के लिए एक नई पुस्तक नीति लागू करे जिससे कि किताबों के दाम भी उचित रूप से निर्धारित किए जा सकें । अगर हम समय रहते ये कदम नहीं उठा सके तो किताबों की बची खुची दुकानों की जगह भी फूड चेन नजर आने लगेंगी ।

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