दिल्ली में अन्ना हजारे के नेतृत्व में जब भ्रष्टाचार
के खिलाफ जनज्वार उठा था तब यह माना गया था यह आंदोलन लंबे समय तक चलेगा । कई उत्साही
लोगों ने आंदोलन को आजादी की दूसरी लड़ाई और अन्ना को छोटे गांधी और फिर उस आंदोलन
की तुलना इमरजेंसी के खिलाफ जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से की थी । दोनों ही तुलना अतिउत्साह
में नतीजा निकालने की हड़बड़ी में किए गए थे । उस वक्त भ्रष्टाचार से बुरी तरह से ऊब
चुकी जनता को अन्ना के रूप में एक चेहरा मिल गया था । एक ऐसा शख्स जो मंदिर में रहता
था, कुर्ता-धोती पहनता था और उसके सर पर गांधी टोपी ने एक ऐसी छवि निर्मित की जिसमें
देश की जनता को उम्मीद दिखाई दी । भ्रष्टाचार विरोधी उस आंदोलन के पीछे अरविंद केजरीवाल
का दिमाग और उनकी सांगठनिक क्षमता को स्वीकार गया था । महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव
रालेगणसिद्धि से उठाकर अन्ना को राष्ट्रीय फलक पर स्थापित करने के पीछे अरविंद का ही
दिमाग था । अन्ना को आंदोलन का चेहरा बनाने के बाद केजरीवाल ने अपनी टीम के साथ योजनाबद्ध
तरीके से पूरे आंदोलन का संचालन किया था । चाहे अन्ना की गिरफ्तारी का मामला हो या
उसके बाद या पहले का घटनाक्रम हर जगह अरविंद केजरीवाल की योजना की छाप साफ तौर लक्षित
की गई थी । उस आंदोलन को मिलने वाले जनसमर्थन के पीछे उसके नेतृत्व का गैर-राजनीतिक
होना भी था । दो साल के संघर्ष के बाद आंदोलन के सूत्रधार अरविंद केजरीवाल ने इस तर्क
का सहारा लिया कि बगैर सिस्टम के अंदर घुसे उसको ठीक नहीं किया जा सकता है । नतीजे
में आम आदमी पार्टी का गठन हुआ। अन्ना उनकी इस राय से सहमत नहीं थे लिहाजा वो दरकिनार
हो गए । सिद्धांतों पर महात्वाकांक्षा हावी हो गई । यहां भी अरविंद ने बेहतरीन चालें
चलीं और इस बात का श्रेय केजरीवाल को अवश्य दिया जाना चाहिए कि उन्होंने साल भर के
अंदर दिल्ली की राजनीति को त्रिकोणीय बना दिया । मीडिया के उत्साह और सोशल मीडिया में
आक्रामकता पर सवार होकर अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत करनेवाले केजरीवाल ने श्रमपूर्वक
आम आदमी पार्टी को चर्चा में लाने का काम किया । यहां भी अरविंद ने जनता के मूड को
भांपते हुए रणनीति बनाई । अपने को और अपनी पार्टी को चर्चा में लाने के लिए केजरीवाल
ने देश के चोटी के लोगों पर संगीन आरोप लगाए । केजरीवाल ने चंद ऐसे लोगों को चुना जिनपर
आरोप लगाने से लोग कतराते रहते थे । केजरीवाल ने इसी को अपनी रणनीति का हिस्सा बनाया
और सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा से लेकर बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष नितिन
गडकरी और भारत के सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी तक पर आरोप लगाए । आरोपों को इस
तरह से पेश किया गया जैसे कोई बड़ा खुलासा किया जा रहा हो जबकि वो तमाम बातें पहले
भी छप छपा चुकी थी । मीडिया का भी इस्तेमाल हुआ । अरविंद इस बात को समझ चुके थे कि
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में अन्ना के साथ रहने से उनकी साख बहुत मजबूत हो चुकी है,
लिहाजा अगर को किसी शख्स या कंपनी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाएंगे तो मीडिया में उन्हें
खास तवज्जो मिलेगी । इनमें से कई आरोपों को तो वैधानिक रूप से गलत साबित करना मुश्किल
है । इसलिए वैसी जगहों और शख्सियतों पर आरोप लगाते हुए उन्होंने नैतिकता का भी सवाल
उठाया । कानूनी तौर पर राबर्ट वाड्रा ने कोई गलत काम नहीं किया लेकिन सवाल इस वजह से
उठे कि वो सोनिया गांधी के दामाद हैं । अरविंद केजरीवाल ने एक खास रणनीति के तहत हर
काम देश की जनता के नाम पर किया, हर सवाल देश की जनता की तरफ से पूछा, हर आरोप देश
की जनता की तरफ से लगाए । लेकिन जब उनपर या उनकी टीम पर किसी भी तरह का आरोप लगा तो
वो जांच की बात कह कर हुंकारने लगे । सरकार को जेल भेजने की चुनौती देते नजर आए । अपने
खिलाफ लगे आरोपों पर हुंकारने वाले केजरीवाल ने जिन लोगों पर भी आरोप लगाए उसमें से
किसी को भी अंजाम तक पहुंचाने की कोशिश करते दिखे तक नहीं । जब उनकी पार्टी के कई नेता
एक स्टिंग ऑपरेशन में दिखाए गए तो खुद ही मुंसिफ बनकर चौबीस घंटे के अंदर उनको बेदाग
करार दे दिया । क्या यहां नैतिकता का सवाल नहीं उठता है । क्या धरना प्रदर्शन की बातों
के बीच में चंदा की बात करना कोई सवाल खड़े नहीं करता है । ये कुछ अनुत्तरित सवाल हैं
जिसका जवाब जनता जानना चाहती है । इसी तरह से दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ रहे आम आदमी
पार्टी के कई उम्मीदवारों पर सवाल उठे तो उसको भी उन्हीं तर्कों के आधार पर दरकिनार
करने की कोशिश हुई जिसका इस्तेमाल कांग्रेस और भाजपा लंबे समय से करती आ रही है। हर
बात में एक ही तर्क – विरोधियों
की साजिश । भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग के योद्धा की छवि अगर केजरीवाल की ताकत है तो अपने
और अपनी पार्टी के अलावा सभी को भ्रष्ट करार देने की रणनीति उनकी सबसे बड़ी कमजोरी
भी है । कई लोगों का मानना है कि केजरीवाल की पार्टी पाकिस्तान में इमरान खान की पार्टी
तहरीक ए इंसाफ की तरह है जिसका जोर सिर्फ सोशल मीडिया और मीडिया में दिखाई देता है
। ऐसा मानने वालों का दावा है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी का हश्र
भी इमरान खान की पार्टी जैसा ही होगा । हो सकता है आठ दिसंबर को जब चुनाव के नतीजे
आएं तो केजरीवाल की पार्टी आम बनकर रह जाए या खास होकर उभरे लेकिन इस वक्त तो दिल्ली
की राजनीति बगैर उसकी चर्चा के पूरी नहीं हो रही है ।
अपने को, अपनी पार्टी को चर्चा में लाना और पार्टी को
सांगठनिक रूप से मजबूत करना दोनों अलहदा बातें हैं । हमेशा जनता की बात करनेवाले केजरीवाल
को हो सकता है जनसमर्थन भी उनको हो लेकिन भारतीय राजनीतिक इतिहास में यह बात कई बार
साबित हो चुकी है कि बगैर संगठन के मिली सत्ता स्थायी नहीं होती है । जयप्रकाश नारायण
और संपूर्ण क्रांति आंदोलन के बाद बनी जनता सरकार का ढाई सालों में हुआ हश्र इस बात
की तस्दीक करते हैं ।अब अगर हम थोड़ा इतिहास की ओर देखें तो पाते हैं कि जप्रकाश नारायण
के आंदोलन और अन्ना के आंदोलन में कई समानताएं हैं । सत्तर के दशक में उड़ीसा में हो
रहे चुनाव में कांग्रेस की उम्मीदवार नंदिनी सत्पथी थी । उस वक्त उनपर चुनाव में अनाप
शनाप पैसे खर्च करने के आरोप लग रहे थे । जयप्रकाश नारायण ने तब इंदिरा गांधी से मुलाकात
कर नंदिनी सत्पथी की शिकायत की थी । इंदिरा ने तब जयप्रकाश नारायण को टका सा जवाब दिया
था । उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी के पास दफ्तर चलाने के लिए तो पैसे हैं नहीं
उम्मीदवार कहां से पैसे बांटेगा । इंदिरा के इस जवाब से जयप्रकाश नारायण बेहद दुखी
हुए थे और कालांतर में यही मुलाकात और इंदिरा का जवाब संपूर्ण क्रांति आंदोलन की बुनियाद
बनी । जयप्रकाश नारायण ने देश के गैरकांग्रेसी दलों को इकट्ठा कर जनता मोर्चा बनाया
जो इमरजेंसी के बाद के हुए चुनाव में जनता पार्टी बनी । इंदिरा गांधी के तानाशाही रवैये
से नाराज भारत की जनता ने नई नई बनी पार्टी को भारी बहुमत से देश की सत्ता सौंपी, लेकिन
ढाई साल में ही जनता का प्यार नफरत में बदल गया । राजनीति के जानकारों का कहना है कि
बगैर संगठन के बनी जनता पार्टी नेताओं की महात्वाकांक्षाओं के बोझ तले दबकर दम तोड़
गई । यही हाल उन्नीस सौ नवासी में विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ भी हुआ । भ्रष्टाचार
के खिलाफ जनता की भावनाओं पर सवार होकर विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के प्रधानमंत्री बने
लेकिन सालभर भी अपनी कुर्सी को बचाकर रखने में नाकाम रहे । पार्टी अपने अंतर्विरोधों
के बोझ तले दबकर खंड-खंड हो गई । यहां भी संगठन की कमजोरी साफ तौर पर उजागर हुई । यह
अरविंद केजरीवाल की जिद और सत्ता हासिल करने की जल्दबाजी का ही नतीजा है कि बगैर संगठन
पर ध्यान दिए उसने नवजात पार्टी को चुनाव मैदान में धकेल दिया । यहां यह बताना भी जरूरी
है कि केजरीवाल की साख ना तो जयप्रकाश नारायण जितनी है और ना ही विश्वनाथ प्रताप सिंह
जैसी लोकप्रियता । अन्ना के बगैर जनसमर्थन की परीक्षा भी शेष है ।
यह बात सही है कि अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और फिर उसका बाइप्रोडक्ट
आम आदमी पार्टी भारतीय राजनीति में एक ताजा हवा के झौंके की तरह आया । इस वक्त यह लग
भी रहा है कि दिल्ली की जनता उसे पसंद भी कर रही है । अपनी राजनीति की शुरुआत में केजरीवाल
ने पहले मोटे तौर पर युवाओं के नाम पर अपनी
राजनीति चमकाने की कोशिश की लेकिन चुनाव के नजदीक आते आते पार्टी ने झु्गगी झोपड़ी
का रुख कर लिया है । वक्त के साथ एक शातिर राजनेता की तरह प्रथामिकताएं बदलने की प्रतिभा
का प्रदर्शन । आदर्शवाद की राजनीति का दंभ भरनेवाले केजरीवाल यह बेहतर जानते हैं कि
हमारे देश में राजनीति कोरे आदर्शवाद से नहीं चलती है उसको चलाने के लिए व्यावहारिकता
की आवश्यकता है । दिल्ली विधानसभा चुनाव में इसी आदर्शवाद और व्यावहारिकता के बीच मुकाबला
है । आदर्शवाद के पास कोई संगठन नहीं है , कार्यकर्ताओॆं के नाम पर चंद उत्साही कार्यकर्ता
हैं जिनकी आंखों में बदलाव के सपने हैं । वहीं व्यावहारिकता के नाम पर सालों पुराना
संगठन है, कार्यकर्ताओं की फौज है । लोकतंत्र में जनता सबसे बड़ी है । जिस जनता के
नाम पर अरविंद केजरीवाल ने अपनी राजनीति की इमारत खड़ी है, जिस जनता के नाम पर केजरीवाल
ने अपने अलावा सभी लोगों को भ्रष्ट करार दिया है अब वो उसी जनता की अदालत में खड़े
हैं । हिंदी फिल्म का एक गाना है – ये जो पब्लिक है वो सब जनाती है, मैं उसमें सिर्फ इतना जोड़ना
चाहता हूं कि वो सब समझती भी है और समय आने पर अपनी समझ को जताने से हिचकती भी नहीं
है ।आठ दिसंबर को जब दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे आएंगे तो जनता की वह समझ भी सामने
आ जाएगी और जनता के नाम पर सबकुछ करनेवालों की हकीकत भी ।
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पूरी तरह से एक पक्षीय और पूर्वाग्रह से ग्रसित लेख
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