हाल के वर्षों में ये पहली बार देखने को मिला कि साहित्य
अकादमी पुरस्कार के ऐलान के बाद हिंदी साहित्य में किसी तरह का कोई विवाद नहीं हुआ
। कहीं से कोई विरोध का स्वर नहीं उठा । इस बार हिंदी साहित्य के लिए साहित्य अकादमी
ने वरिष्ठ उपन्यासकार मृदुला गर्ग को सम्मानित करने का फैसला लिया । उनकी औपन्यासिक
कृति मिलजुल मन के लिए उनको ये पुरस्कार दिया गया । मृदुला गर्ग की छवि एक ऐसी लेखिका
की है जो साहित्य की जोड़ तोड़ की राजनीति से दूर रहकर रचनाकर्म में लगी रहती है ।
जब प्रोफेसर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष बने तो साहित्यक हलके
में ये कयास लगने लगे थे कि इस बार का अकादमी पुरस्कार हिंदी के एक बुजुर्ग लेखक को
दिया जाएगा । इस चर्चा को तब पंख लगे जब प्रोफेसर सूर्य प्रकाश दीक्षित को हिंदी भाषा
का संयोजक बनाया गया था । लेकिन बगैर किसी पक्षपात के जूरी के सदस्यों ने मृदुगा गर्ग
का चयन किया। इस बात के लिए साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी समेत जूरी के
सदस्यों को बधाई दी जानी चाहिए कि अकादमी की खोई हुई विश्वसनीयता को बहाल करने की दिशा
में उन्होंने एक कदम उठाया ।
मृदुला गर्ग लगभग चार दशक से लेखन में सक्रिय हैं । कहानी और उपन्यास के अलावा पत्र-पत्रिकाओं भी उन्होंने विपुल लेखन किया है । तकरीबन तेरह साल बाद मृदुला गर्ग का उपन्यास मिलजुल मन,
सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ था । मृदुला गर्ग के दो उपन्यास- चितकोबरा और कठगुलाब की
साहित्यिक जगत में खासी चर्चा हुई थी और लेखिका को प्रसिद्धि भी मिली थी । चितकोबरा में जो संवेदनशील स्त्री अपने नीरस जीवन से उबकर सेक्स के प्रति असामान्य आकर्षण दिखाती है वो कठगुलाब तक पहुंचकर संवेदना के स्तर पर अधिक प्रौढ़ नजर आती है । और इस उपन्यास मिलजुल मन में वो और मैच्योरिटी के साथ सामने आती है । मिलजुल मन की नायिका गुलमोहर उर्फ और उसकी सहेली मोगरा है । इस उपन्यास में लेखिका ने आजादी के बाद के दशकों में लोगों के मोहभंग को शिद्दत के साथ उठाया है । एक खुशनुमा जिंदगी और समाज की उन्नति का सपना देख रहे लोगों ने आजादी की लड़ाई में संघर्ष किया था, इस सपने के टूटने और विश्वास के दरकने की कहानी है मृदुला गर्ग का उपन्यास - मिलजुल मन । इस उपन्यास में गुल और मोगरा के बहाने मृदुला गर्ग ने आजादी के बाद के दशकों में लोगों की जिंदगी और समाज में आनेवाले बदलाव की पड़ताल करने की कोशिश भी की है । मोगरा के पिता बैजनाथ जैन के अलावा डॉ कर्ण सिंह, मामा जी,
बाबा, दादी और कनकलता के चरित्र चित्रण के बीच गुल बड़ी होती है और इस परिवेश का उसके मन पर जो मनोवैज्ञानिक असर होता है उसका भी लेखिका ने कथानक में इस्तेमाल किया है
इस उपन्यास में मृदुला गर्ग अपने पात्रों के माध्यम से हिंदी के लेखकों पर बेहद ही कठोर टिप्पणी करती है - तभी हिंदी के लेखक शराब पीकर फूहड़ मजाक से आगे नहीं बढ़ पाते । मैं सोचा करती थी, लिक्खाड़ हैं,सोचविचार करनेवाले दानिशमंद । पश्चिम के अदीबों की मानिंद, पी कर गहरी बातें क्यों नहीं करते, अदब की, मिसाइल की, इंसानी सरोकार की । अब समझी वहां दावतों में अपनी शराब खुद खरीदने का रिवाज क्यों है । न मुफ्त की पियो और न सहने की ताकत से आगे जाकर उड़ाओ । अपने यहां मुफ्त की पीते हैं और तब तक चढ़ाते हैं जबतक अंदर बैठा फूहर मर्द बाहर ना निकल आए । इस उपन्यास की भाषा में रवानगी तो है लेकिन खालिस उर्दू के शब्दों के ज्यादा प्रयोग से वो बगाहे बाधित होता है । उपन्यास को लेखिका ने जिस बड़े फलक पर उठाया है उसको संभालने में काफी मशक्कत भी की है । अंत में इतना ही कहा जा सकता है कि मृदुला गर्ग को सम्मानित करने का फैसला
कर साहित्य अकादमी से और बेहतर की अपेक्षाएं बढ़ गई हैं ।
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