Translate

Friday, March 28, 2014

चाल चरित्र और चेहरे की हकीकत

लोकसभा चुनाव के पहले पूरे देश, खासकर उत्तर और पश्चिम भारत में इस तरह का माहौल दिख रहा है या दिखाया जा रहा है कि चुनावी माहौल भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में है । भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में दिख रहे इस माहौल को भांपते हुए कई अवसरवादी और मौकापरस्त नेता भाजपा की गोद में जा बैठे हैं । अपनी गोद में बैठे इन मौकापरस्त नेताओं पर भाजपा काफी लाड़ लुटा रही है । दूसरी पार्टियों को छोड़कर आनेवाले नेताओं को, जो कल तक उनके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को सामाजिक समरसता का सबसे बड़ा विरोधी और दो हजार दो के गुजरात दंगों के लिए जिम्मेदार मानते थे, पार्टी ने अपना उम्मीदवार बनाया है । राजनीतिक हलकों में तो ये जुमला चल निकला है कि सुबह भाजपा की सदस्यता की पर्ची कटवाओ और शाम को उम्मीदवारी का पत्र लेकर जाओ । इससे तो यही लगता है कि भाजपा के नेता हर कीमत पर इस बार केंद्र की सत्ता पर काबिज होना चाहते हैं । विचारधारा और सार्वजनिक जीवन में शुचिता और उच्च मानदंड की राजनीति की वकालत का का दंभ भरनेवाली भाजपा में सत्ता के आगे विचारधारा गौण नजर आ रही है । सत्ता हासिल करने के लिए भाजपा ने सिद्धांतों की जो तिलांजलि दी है उसका अंदेशा लंबे समय तक राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के प्रचारक और बाद में भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे पंडित दीन दयाल उपाध्याय को नहीं रहा होगा । पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने 22 से 25 अप्रैल 1965 के बीच दिए अपने पांच लंबे भाषणों में उस वक्त की मौजूदा राजनीतिक हालात के मद्देनजर क्रांतिकारी भाषण दिया था । अब से लगभग पांच दशक पहले पंडित जी ने राजनैतिक अवसरवादिता पर बोलते हुए कहा था- किसी भी सिद्धांत को नहीं मानने वाले अवसरवादी लोग देश की राजनीति में गए हैं राजनीतिक दल और राजनेताओं के लिए ना तो कोई सिद्धांत मायने रखता है और ना ही उनके सामने कोई व्यापक उद्देश्य सा फिर कोई एक सर्वमान्य दिशा निर्देश है.....राजनीतिक दलों में गठबंधन और विलय में भी कोई सिद्धांत और मतभेद काम नहीं करता गठबंधन का आधार विचारधारा ना होकर विशुद्ध रूप से चुनाव में जीत हासिल करने के लिए अथवा सत्ता पाने के लिए किया जा रहा है पंडित जी ने जब ये बातें 1965 में कही होंगी तो उन्हें इस बात का अहसास नहीं रहा होगा कि उन्हीं के सिद्धातों की दुहाई देकर बनाई गई पार्टी पर भी सत्ता लोलुपता इस कदर हावी हो जाएगी । आज हालात यह है कि भाजपा को उन लोगों ने गठबंधन करने में भी कोई परहेज नहीं है जिनपर संगीन इल्जाम हैं । पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ठीक ही कहा था कि गठबंधन का आधार विचारधारा नहीं बल्कि शुद्ध रूप से चुनाव में जीत हासिल करना है । भाजपा जैसी विचारधारा प्रधान पार्टी में बेल्लारी के श्रीरामुलु के आने का क्या आधार है । सुषमा स्वराज जैसी कद्दावर नेता के विरोध के बावजूद अगर पार्टी श्रीरामुलु को गले लगाती है तो उस तर्क को मजबूती मिलती है कि भाजपा सत्ता के लिए किसी भी हद तक जा सकती है और किसी से भी गठबंधन कर सकती है । बेल्लारी के श्रीरामुलु की (कु)ख्याति तो सर्वज्ञात है । कर्नाटक में अपनी सीटें बचाने और उसको और मजबूत करने के लिए भाजपा ने दागी नेता येदुरप्पा के आगे भी घुटने टेक दिए और उनकी सभी शर्तों को मानते हुए उन्हें गाजे बाजे के साथ पार्टी में शामिल कर लिया । येदुरप्पा को पार्टी में शामिल करते हुए यह भी विचार नहीं किया गया कि उनपर लगे आरोपों का क्या हुआ । क्या चुनावी वैतरणी में पार उतरने के लिए भ्रष्ट नेताओं की पूंछ पकड़ना इतना आवश्यक हो गया । येदुरप्पा और श्रीरामुलु तक ही पार्टी नहीं रुकी । बिहार में भाजपा ने रामविलास पासवान की पार्टी के साथ गठबंधन किया और उसके लिए लोकसभा की सात सीटें छोड़ने का एलान कर दिया । अब रामविलास पासवान की पार्टी में दागी नेताओं की लंबी फेहरिश्त है, सूरजभान सिंह से लेकर रमा सिंह तक । सूरजभान सिंह को बेगूसराय में एक हत्या के मामले में उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी और वो चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराए गए थे । लिहाजा उन्होंने रामविलास की पार्टी से अपनी पत्नी वीणा देवी को मुंगेर लोकसभा सीट से टिकट दिलवा दिया । रमा सिंह पर भी कई संगीन धाराओं में कई केस दर्ज हैं और वो भी लोकजनशक्ति पार्टी की टिकट पर चुनाव लड़ेंगे । इन सबके लिए भाजपा के नेता चुनाव प्रचार करेंगे और अगर हालात बने और नतीजे पक्ष में आए तो उनके सहयोग से सरकार भी बनाएंगे । कल तक भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को कातिल से लेकर जाने किन किन विशेषणों से नवाजने वाले कांग्रेस के नेता जगदंबिका पाल को अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने गले लगाकर पार्टी में शामिल किया । यह सूची काफी लंबी है । दरअसल भारतीय जनता पार्टी भले ही पार्टी विद अ डिफरेंस का दावा करे लेकिन उसमें अलग कुछ है नहीं । चुनाव के वक्त या फिर सत्ता हासिल करने के लिए उन्हें किसी तरह के गठजोड़ या गठबंधन से परहेज नहीं रहा है । उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के वक्त बहुजन समाज पार्टी से निकाले गए और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में करोड़ों की गड़बड़ियों के आरोपी रहे बाबू सिंह कुशवाहा को बीजेपी में शामिल करने के उस वक्त के अध्यक्ष नितिन गडकरी के फैसलों पर आडवाणी और सुषमा समेत कई नेताओं ने विरोध जताया था लेकिन तब गड़करी ने किसी की नहीं सुनी थी दरअसल बीजेपी में सिद्धांतों पर सत्तालोलुपता लगातार हावी होती चली गई है । लोकसभा चुनाव के पहले यह और बढ़ गई है । सत्ता हासिल करने की यह ललक पार्टी नेतृत्व के फैसलों को बुरी तरह से प्रभावित कर रही है । कई मुद्दों पर पार्टी के आला नेताओं के अलग अलग बयान इस बात की मुनादी कर रहे हैं कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में गहरा असंतोष है । यह सही है कि पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वरदहस्त हासिल है जिसकी वजह से वो पार्टी के आला नेताओं को दरकिनार कर अपने हिसाब से फैसले ले रहे हैं ।

दरअसल हम अगर हम इसका विश्लेषण करें तो पाते हैं कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद भाजपा की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई वरिष्ठ स्वंयसेवकों ने सीधे तौर पर राजनीति में आने की वकालत शुरू कर दी थी । उसके पहले गोलवलकर हमेशा से सावरकर की हिंदू महासभा के साथ गठबंधन के प्रस्ताव को नकारते रहे थे । उन्नीस सौ अड़तालीस में गांधी जी की हत्या के बाद तकरीबन बीस हजार स्वंयसेवकों की गिरफ्तारी और संघ पर पाबंदी ने उसको राजनीति की राह पर चलने के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर दिया था । गांधी जी की हत्या के बाद जब संघ चौतरफा घिर गया था तो उसके बचाव में कोई भी राजनीतिक दल नहीं था । उन्नीस सौ उनचास में संघ से जुड़े विचारक के आर मलकानी ने लिखा था- संघ को राजनीति और विरोधी दलों की गंदी चालों से खुद के बचाव के लिए राजनीति में हिस्सा लेना चाहिए । के आर मलकानी के इस विचार को साथियों के दबाव में गोलवलकर ने स्वीकार कर लिया और दीनदयाल उपाध्याय, बलराज मधोक और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे वरिष्ठ स्वंयसेवकों को जनसंघ में भेजा लेकिन संघ के सीधे तौर पर राजनीति में आने के वो खिलाफ रहे । दीनदयाल उपाधायय जनसंघ को कांग्रेस के विकल्प के तौर पर स्थापित करना चाहते थे और चुनाव को जनता की राजनीतिक चेतना को उभारने के अवसर के रूप में देखते थे । वो चाहते थे कि जनसंघ कांग्रेस की सत्ता की स्वाभाविक दावेदारी को चुनौती दे सकें । जब नरेन्द्र मोदी कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते हैं तो उसमें पंडित दीनदयाल उपाध्याय की उस ख्वाहिश की झलक भी मिलती है । बाद में जब बालासाहब देवरस राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के अध्यक्ष बने तो संगठन की राजनीति में रुचि और बढ़ी । बाला साहब देवरस ने जयप्रकाश नारायण के इंदिरा हटाओ मुहिम को खुलकर समर्थन दिया । मोरारजी देसाई की सरकार में संघ से जुड़े नेताओं ने पहली बार सत्ता का स्वाद भी चखा । कालांतर में भारतीय जनता पार्टी का जन्म हुआ और उसके बाद की बातें इतिहास में दर्ज है । परोक्ष रूप से राजनीति करने और भाजपा में अपने निर्णयों को लागू करवाने वाल संघ हमेशा से इस बात से इंकार करता रहा कि आरएसएस का सक्रिय राजनीति से कोई लेना देना है । उनके तर्क होते थे कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ एक सांस्कृतिक संगठन है और भाजपा के निर्णयों में उनकी कोई भूमिका नहीं होती है । लेकिन हर स्तर पर संगठन महासचिव का पद और उसपर संघ के स्वयंसेवक की नियुक्ति कुळ अलग ही कहानी कहती थी ।  आगामी लोकसभा चुनाव में संघ ने अपना सांस्कृतिक संगठन का चोला उतार कर फेंक दिया और सरसंघचालक से लेकर सरकार्यवाह और स्वयंसेवक तक पूरी ताकत से भाजपा को जिताने में जुट गए हैं । इस वक्त संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों को नरेन्द्र मोदी के रूप में एक नया नायक नजर आ रहा है और सारे लोग उनकी सफलता के लिए प्राणपन से जुटे हैं । मोदी के रास्ते के सारे कांटे संघ साफ करता चल रहा है । इस आपाधापी में और इस बार नहीं तो कभी नहीं के नारों के बीच पार्टी गुरु गोलवलकर से लेकर पंडित उपाध्याय तक के सिद्धांतों को भुला रही है । सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सिद्धांत सत्ता हासिल करने ललक में कहीं पीछे छूटती जा रही है । अवसरवादिता की राजनीति हावी हो रही है सीधे सत्ता हासिल करने की लालसा में संघ भी आंखें मूंदकर नरेन्द्र मोदी के फैसलों पर मुहर लगाता जा रहा है । अब सवाल यही उठता है कि मोहन भागवत ने संघ के क्रियाकलापों में आमूलचूल बदलाव करने की ठान ली है । क्या आनेवाले दिनों में भारतीय राजनीति में स्वयंसेवकों की ज्यादा सक्रिय भूमिका दिखाई देगी । अगर ऐसा होता है तो यह संघ के सिद्धांतो से पूरी तरह से विचलन होगा । विचलन तो चाल चरित्र और चेहरे का भी होगा । 

No comments: