हाल के दिनों में हिंदी लेखन में एक खास किस्म का बदलाव
देखने को मिला है । हिंदी के भी कुछ लेखक भारतीय फिल्मों पर, फिल्मों में काम करनेवाले
अभिनेताओं, कलाकारों, संगीतकारों और फोटोग्राफर से लेकर निर्देशकों पर लिखने लगे हैं
। इसे एक अच्छी शुरुआत का संकेत माना जा सकता है । हिंदी में लंबे समय तक यथार्थवादी
लेखन के नाम पर फिल्म लेखन को हेय की दृष्टि से देखा जाता था । विचारधारा विशेष में
फिल्म को बुर्जुआ संस्कृति का पोषक और संवाहक माना जाता था लिहाजा उसपर लिखना तो दूर
की बात उसके बारे में विचार करना या बोलना भी गुनाह माना जाता था । वामपंथ के प्रभाव
में जबतक हिंदी लेखन रहा तबतक फिल्म और संगीत पर लेखन हाशिए पर ही रहा जबकि फिल्म एक
खास किस्म की रचनात्मकता को प्रदर्शित करने का एक ऐसा माध्यम है जिसके कई ओर छोर हैं,
कई आयाम हैं जिनपर बातचीत होनी चाहिए । एक लंबे कालखंड के बाद वामपंथ से मोहभंग और
हिंदी जगत में उसका दबदबा कम होने के बाद हिंदी के लेखकों ने फिल्म और फिल्मी दुनिया
पर लिखना शुरू किया । भारत सरकार में अफसर पंकज राग ने धुनों की यात्रा नाम की भारी
भरकमन किताब लिखी जिसे एक तरह से हिंदी में
भारतीय फिल्म संगीत का इनसाइक्लोपीडिया कहा जा सकता है । मधुप शर्मा ने भी फिल्म पर
कई किताबें लिखी । युवा कवि और संस्कृतिकर्मी यतीन्द्र मिश्र की भी हाल में पेंग्विन
प्रकाशन से एक किताब आई है – हमसफर, हिंदी सिनेमा और संगीत । यतीन्द्र ने इस किताब में हिंदी सिनेमा के संगीत
के इतिहास को केंद्र में रखा है । इस किताब का ब्लर्ब महान गायिका लता मंगेशकर ने लिखा
है और पिछले दिनों पटना लिटरेचर फेस्टिवल में गुलजार ने इसको विमोचित किया। इस किताब
की खास बात यह है कि इसके साथ एक गाने की सीडी भी है जिसमें कुंदन लाल सहगल से लेकर
भूपेन हजारिका और अीमरबाई कर्नाटकी से लेकर अलका याज्ञनिक तक के गीत हैं । किताब के
साथ सीडी लगाने का प्रयोग पहले भी हुआ है । यतीन्द्र मिश्र ने श्रमपूर्व शोध के आदार
पर इस किताब में कई जानकारियां दी हैं । यतीन्द्र मिश्र इन दिनों लता मंगेशकर भी एक
किताब लिख रहे हैं जो उनसे बातचीत पर आधारित होगी । जानकारी के मुताबिक यतीन्द्र मिश्र
ने कई घंटे की बातचीत रिॉर्ड कर ली है । अबी अभी इसी तरह से अंग्रेजी की लेखिका नसरीन
मुन्नी कबीर ने अपने जमाने की सुपरस्टार रही फिल्म अभिनेत्री वहीदा रहमान से बातचीत
के आधार पर एक बेहद दिलचस्प किताब लिखी है – कनवरसेशन विद वहीदा रहमान । इसके पहले भी नसरीन मुन्नी कबीर
ने गुलजार, जावेद अख्तर, ए आर रहमान से बातचीत के आधार पर किताबें लिखी हैं । नसरीन
मुन्नी कबीर की गुरुदत्त पर लिखी किताब खासी चर्चित हुई थी । वहीदा रहमान पर लिखी अपनी
इस नई किताब में नसरीन मुन्नी कबीर ने वहीदा रहमान से जुड़ी कई दिलचस्प कहानियां लिखी
है । वहीदा रहमान और गुरुदत्त के रिश्तों के बारे में फिल्मी दुनिया में कई तरह की
किवदंतियां हैं । नसरीन मुन्नी कबीर से बातचीत में वहीदा रहमान ने बेहद गरिमापूर्ण
तरीके से अपने और गुरुदत्त के रिश्तों पर कुछ भी बोलने से इमंकार कर दिया । वहीदा ने
कहा कि उन्हें पता है कि वो सार्वजनिक जीवन में हैं लेकिन उनका इस बात में यकीन है
कि किसी का भी निजी जीवन हमेशा निजी ही रहना चाहिए । इस किताब में वहीदा ने अपने बचपन,
फिल्मी दुनिया में प्रवेश, स्त्यजित रे की फिल्म अभिजन आदि से जुड़ी अपनी यादें ताजा
और साझा की हैं । सोलहवां साल फिल्म के दौरान राज खोसला और वहीदा के बीच तनातनी हो
गई थी । फिल्म के दौरान एक बार फिर से राज खोसला और वहीदा रहमान के बीच ड्रेस को लेकर
झगड़ा हुआ था । विवाद की वजह एक ब्लाउज बना । फिल्म के निर्देशक राज खोसला चाहते थे
कि वहीदा सामने से खुला ब्लाऊज पहने लेकिन वहीदा को इस बात पर आपत्ति थी । उनका तर्क
था कि किरदार की मांग के मुताबिक नायिका के ड्रेस में खुलापन नहीं होना चाहिए क्योंकि
जब नायक उससे पूछता है कि तुम्हारा नाम क्या हा तो नायिका कहती है लाजवंती । यह सुनकर
नायक कहता है कि तभी तो तुमको इतनी लज्जा आती है । वहीदा का तर्क था कि फिल्म के संवाद
और दृश्य के मुताबिक नायिका का खुले ड्रेस में आना उचित नहीं होगा । वहीदा के इस तर्क
पर राज खोसला भड़क गए और चिल्लाते हुए कहा कि अब निर्देशन भी सीखना पड़ेगा । विवाद
काफी बढ़ गया और राज खोसला ने तो यहां तक कह डाला कि तुम ना तो मधुबाला हो, ना ही मीना
कुमारी और ना ही नर्गिस । अंतत चली निर्देशक की ही लेकिन एक पूरे दिन की शूटिंग इस
विवाद की भेट चढ़ गया ।
इसी तरह से वहीदा रहमान और सत्यजित रे के बीच की पहली मुलाकात की भी दिलचस्प कहानी
इस किताब में है । सत्यजित रे ने वहीदा रहमान को अपनी फिल्म में काम करने का प्रस्ताव
बी के करंजिया के माध्यम से पत्र लिखकर भेजा था । प्रस्ताव मिलने के कुछ दिनों बाद
वहीदा और स्तयजित रे के बीच बातचीत हुई । पहली बातचीत में ही सत्यजित रे ने वहीदा से
कहा कि वो छोटे बजट की फिल्म बनाते हैं और वहीदा को हिंदी फिल्मों में काम करने के
लिए काफी पैसे मिलते हैं । रे ने कहा कि उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वो वहीदा को
साइन कर सकें लेकिन वो चाहते हैं कि वहीदा उनकी फिल्म में काम करें । यह पूरा प्रसंग
बातचीत के आधार पर सामने आया है जो सत्यजित रे जैसे जीनियस निर्देशक की मनस्थिति और
फिल्म को लेकर उनके कमिटमेंट को सामने लाता है । जरूरत इस बात की है कि हिंदी में भी
इस तरह के ज्यादा प्रयास हों। हिंदी फिल्मों के योगदान को बिल्कुल भी खारिज नहीं किया
जा सकता है । हिंदी के प्रचार प्रसार में भी हिंदी फिल्मों का बड़ा योगदान है । जोहानिसबर्ग
में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान मॉरीशस के मंत्री ने इस बात को स्वीकार किया
था कि हिंदी फिल्में और सीरियल्स हिंदी को बढ़ावा दे रही हैं । हिंदी के कर्ताधर्ताओं
को फिल्मों पर लिख रहे लेखकों को उचित सम्मान देना होगा और बेवजह के तर्कों के आदार
पर खारिज करने की प्रवृत्ति से बचना होगा । इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि हिंदी
में रचनात्मक लेखन का दायरा बढ़ेगा जो हमारी भाषा के हित में होगा ।
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