भारतीय राजनीति और समाज
सेवा के क्षेत्र में अन्ना हजारे एक ऐसा नाम हैं जिसे दो हजार ग्यारह के पहले महाराष्ट्र
के एक इलाके के ही लोग जानते थे । महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में अन्ना हजारे के गांव
रालेगण सिद्धि को समाज सुधार के मॉडल के तौर पर देखा जाने लगा था । अन्ना हजारे ने
वहां के सरपंच के साथ मिलकर पूरे इलाके की तस्वीर बदलने में अहम भूमिका निभाई थी ।
एक जमाने में गांव में शराब की दर्जनों दुकानें थी और वहां पानी की बेहद दिक्कत थी
। अन्ना हजारे ने शराबबंदी के खिलाफ मुहिम सफलतापूर्वक मुहिम चलाई और वाटर हारवेस्टिंग
के जरिए रालेगण सिद्धि को पानी के मसले में आत्मनिर्भर बनाया । अन्ना के प्रयासों का
ही नतीजा था कि रालेगण सिद्धि में प्रति व्यक्ति औसत आय तकरीबन राजधानी दिल्ली के प्रति
व्यक्ति औसत आय तक पहुंच गई । उनके आंदोलनों की वजह से महाराष्ट्र के कई मंत्रियों
को कुर्सियां गंवानी पड़ी, कई नेताओं को जेल भी जाना पड़ा । इस तरह से अन्ना हजारे
महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक योद्धा के रूप में जाने गए । कालांतर में अन्ना
हजारे ने महाराष्ट्र के प्रत्येक ब्लॉक में एक संयोजक नियुक्त किया जो उन्हें इलाके
में हो रहे भ्रष्टाचार की जानकारी देता था और अन्ना के निर्देश के हिसाब से उसके खिलाफ
काम करता था । बाद में जब अरविंद केजरीवाल ने अरुणा राय और उनके संगठन से अलग होकर
जनलोकपाल की लड़ाई लड़ने का फैसला किया तो केजरीवाल को आंदोलन के लिए एक चेहरे की दरकार
पड़ी । अन्ना हजारे के रूप में केजरीवाल को एक ऐसा शख्स मिला जो बुजुर्ग होने के साथ
साथ धोती कुर्ता और गांधी टोपी पहनता था । जिसका कोई परिवार नहीं था और वो मंदिर में
रहता था । भारतीय जनमानस को लुभाने के लिए एक आदर्श छवि थी । अन्ना हजारे के नेतृत्व
में दिल्ली में भ्रष्टाचार के खिलाफ एलान ए जंग हुआ । भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों का
गुस्सा इतना था कि उस आंदोलन को अभूतपूर्व समर्थन मिला । अन्ना हजारे का चेहरा और अरविंद
केजरीवाल की सूक्ष्मतम स्तर की योजना ने रंग दिखाया । उसके बाद की बातें इतिहास हैं
।
दो साल के अंदर जब अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक महात्वाकांक्षा
ने आम आदमी पार्टी का गठन किया तो अन्ना हजारे ने अपने आपको केजरीवाल की महात्वाकांक्षा
से खुल को अलग कर लिया । दोनों के बीच बढ़ रही संवादहीनता ने तल्खी को भी बढ़ाव दिया
। दिल्ली विधानसभा चुनाव के पहले अन्ना हजारे ने अरविंद केजरीवाल को अपना नाम इस्तेमाल
नहीं करने को कहा जिसे आम आदमी पार्टी ने लगभग मान लिया । इस बीच अन्ना हजारे और पूर्व
सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह ने देशभर में जनतंत्र यात्रा की । इस यात्रा की सफलका को
लेकर दो तरह के मत हैं । केजरीवाल के सिपहसालारों ने अन्ना के नए सहयोगियों पर उनको
बरगलाने का आरोप लगाया । दोनों खेमों में जमकर आरोप प्रत्यारोप का दौर चला । इस बीच
संसद से लोकपाल बिल पास होने के चंद दिन पहले अन्ना रालेगण सिद्धि में अनशन पर बैठ
गए । उनके अनशन के दौरान संसद ने लोकपाल बिल पास कर दिया । बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने इस बात का श्रेय अन्ना
हजारे को दिया । यह सब दिल्ली विधानसभा के चुनाव में आम आदमी पार्टी की ऐतिहासिक जीत
के बाद हो रहा था । कई राजनीति विश्लेषकों की राय थी कि अरविंद केजरीवाल के बढ़ते असर
को कम करने के लिए कांग्रेस और बीजेपी ने मिलकर अन्ना को इसका श्रेय देने की रणनीति
बनाई थी । इस दौरान किरण बेदी लगातार अन्ना के साथ डटी रहीं और केजरीवाल पर ट्विटर
के जरिए हमले करती रहीं । गौरतलब है कि दो साल पहले तक किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल
कंधे से कंधा मिलाकर दिल्ली में जनलोकपाल की लड़ाई लड़ रही थी । जब अन्ना और केजरीवाल
के बीच टकराहट हुई तो बेदी ने अन्ना के साथ रहने का फैसला किया । बाद में किरण बेदी
भी बीजेपी की और झुकी और अन्ना के सहयोगी जनरल वी के सिंह ने तो बकायदा बीजेपी का दामन
थाम लिया और पार्टी की सदस्यता ले ली । किरण बेदी भी मोदी की शान में कसीदे पढ़ती नजर
आई । अन्ना फिलहाल अलग थलग पड़ते नजर आए । टीम अन्ना में काफी बदलाव आ चुका था । हमेशा
से अपने आपको राजनीति से अलग रहने का ऐलान करते रहे अन्ना हजारे के नए रणनीतिकारों
ने उन्हें पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के करीब पहुंचा दिया । अन्ना हजारे
ने देश के कई पार्टी के नेताओं को पत्र लिखकर 17 बिंदुओं पर उनका राय मांगी । ममता
बनर्जी ने अन्ना के खत का जवाब दिया तो अन्ना को ममता बनर्जी में देश का नया नायक नजर
आने लगा । ममता बनर्जी के दूत मुकुल रॉय से मिलने के बाद अन्ना की दिल्ली में ममता
बनर्जी से मुलाकात हुई । नतीजे में अन्ना ने ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस
के उम्मीदवारों का लोकसभा चुनाव में समर्थन का ऐलान कर दिया । आनन फानन में अन्ना हजारे
का तृणमूल को समर्थन का विज्ञापन टीवी चैनलों पर नजर आने लगा । अन्ना के नए रणनीतिकारों
और ममता के सिपहसालारों को लगने लगा कि दिल्ली अब दूर नहीं है । इस पूरी रणनीति के
पीछे हरियाणा के एक राजनेता उद्योगपति की बेहद सक्रिय भूमिका रही । इतना तक तो ठीक
था । दिल्ली के ऐतिहासिक मैदान में अन्ना और ममता की संयुक्त रैली का आयोजन किया गया
था लेकिन रैली में ना तो अन्ना पहुंचे और ना ही लोग । हजार दो हजार लोगों के सामने
ममता बनर्जी ने दावा किया कि ये अन्ना की रैली थी लिहाजा भीड़ नहीं होने की जिम्मेदारी
उनकी नहीं है । इसके पहले एक नाटकीय घटनाक्रम में पश्चिम बंगाल के टीपू मस्जिद के इमाम
ने ममता को अन्ना हजारे से दूर रहने की सलाह दी । इमाम साहब ने इशारों इशारों में ममता
को चेतावनी देते हुए अन्ना को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आदमी बता दिया । अब ममता
धर्मसंकट में थी । वो पश्चिम बंगाल के मुसलमानों के बीच गलत संदेश नहीं देना चाहती
थी । ममता दिल्ली पहुंची, रैली में शामिल हुईं, अन्ना हजारे नहीं पहुंचे । अन्ना की
खराब तबीयत का हालचाल लेने बीजेपी के नेता जनरल वी के सिंह तो पहुंचे लेकिन ममता बनर्जी
नहीं पहुंची । संकेत सबकुछ ठीक-ठाक होने का नहीं है । दो साल में अन्ना हजारे के इतने
सहयोगी बदल चुके हैं कि अन्ना की राष्ट्रव्यापी विश्वसीनयता संदिग्ध हो गई है । दिल्ली
में रामलीला मैदान में फ्लॉप रैली से राजनीतिक दलों से अन्ना हजारे का खौफ भी कम होता
दिख रहा है । यही सारे दल चाहते भी थे । सोचना तो उन राजनीतिक टिप्पणीकारों को भी पड़ेगा
जो कि दो हजार ग्यारह में अन्ना को मिल रहे जनसमर्थन के आधार पर उनका मूल्यांकन कर
बैठे । हड़बड़ी में इन राजनीतिक टीकाकारों ने अन्ना को छोटे गांधी से लेकर दूसरे महात्मा
तक की उपाधि दे डाली थी । जबकि दो साल में यह बात साबित हो गई कि अन्ना हजारे में कोई
राष्ट्रव्यापी सोच या दृष्टि नहीं है । गांधी के बरक्श अन्ना हजारे को खड़ा करनेवाले
इन राजनीति पंडितों को ना तो इतिहास बोध है और हड़बड़ी में उन्होंने तुलनात्मकता के
आधारभूत सिद्धांतों का पालन करना भूल गए ।अरविंद केजरीवाल उनको राष्ट्रीय फलक पर लेकर
आए और उसके बाद से अन्ना कभी इनके तो कभी उनके साथ रहे । कोई विजन या कोई विकल्प जनता
के सामने पेश नहीं कर पाए । रालेगण सिद्धि से दिल्ली की अन्ना हजारे की इस यात्रा में
कई पड़ाव और अवसर मिले लेकिन वो इन अवसरों का अबतक लाभ नहीं उठा पाए हैं । इतिहास किस
तरह अन्ना को याद करेगा यह लोकसभा चुनाव के मई में आनेवाले नतीजे के बाद तय हो जाएगा
।
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