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Saturday, March 8, 2014

जन्म शताब्दी के बहाने से उठे सवाल

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं जातियों का सांस्कृतिक विनाश तब होता है जब वे अपनी परंपराओं को भूलकर दूसरों की परंपराओं का अनुकरण करने लगती हैं...जब वे मन ही मन अपने को हीन और दूसरों को श्रेष्ठ मानकर मानसिक दासता को स्वेच्छया स्वीकार कर लेती हैं । पारस्परिक आदान प्रदान तो संस्कृतियों का स्वाभाविक धर्म है, परंतु जहां प्रवाह एकतरफा हो, वहां यही कहा जाएगा कि एक जाति दूसरी जाति की सांस्सकृतिक दासी हो रही है । किन्तु सांस्कृतिक गुलामी का इन सबसे भयानक रूप वह होता है, जब कोई जाति अपनी भाषा को छोड़कर दूसरों की भाषा को अपना लेती है और उसी में तुतलाने को अपना परम गौरव मानने लगती है । यह गुलामी की पराकाष्ठा है, क्योंकि जो जाति अपनी भाषा में नहीं सोचती, वह अपनी परम्परा से छूट जाती है और उसके स्वाभिमान का प्रचंड विनाश हो जाता है । दिनकर के इस कथन में मैं यह जोड़ना चाहता हूं- जो समाज अपनी भाषा के लेखकों को याद नहीं रख सकता, जो उनका उचित सम्मान नहीं कर सकता, जो उनके लिखे को अपनी आनेवाली पीढ़ियों को हस्तगत नहीं कर सकता, जो अपने महान लेखकों की विरासत को संभाल नहीं सकता वह समाज कालांतर में साहित्यक और सांस्कृतिक रूप से पंगु हो जाता है । हमारे समाज, विशेषकर साहित्यक समाज में अपने महान लेखकों को याद करने की परंपरा धीरे धीरे खत्म होती जा रही है । लेखकों के जन्म दिवस या पुण्य तिथि पर रस्म अदायगी के लिए छोटे मोटे समारोह हो जाते हैं लेकिन हमने कभी गंभीरता से इस बात को नहीं सोचा कि आनेवाली पीढ़ियों को हिंदी समाज के बड़े लेखकों से कैसे परिचित करवाया जाए । साहित्य और संस्कृति तो खैर सरकार की प्राथमिकता में कहीं होती नहीं है । चिंता की बात यह है कि साहित्य समाज भी अपने लेखकों को लेकर उदासीन दिखता है । यह बहुत दुखद है कि आज की हमारी पीढ़ी को अपनी भाषा में बात करने में गौरव महसूस नहीं होता है बल्कि उसे अंग्रेजी में तुतलाने में परम गौरव का अनुभव होता है । हमारी शिक्षा व्यवस्था इस तरह की हो गई है कि अंग्रेजी स्कूलनुमा दुकानें हर गली मुहल्ले में खुल गई हैं जो कि बच्चों को ना तो सही से अंग्रेजी का ज्ञान दे पा रहे हैं और हिंदी तो बस पढ़ाने के लिए पढ़ाई जाती है । इस तरह से हमारा हिंदी समाज भाषाई गुलामी की ओर बढता जा रहा है ।
हम इस भाषाई गुलामी के चंगुल में जाने की पड़ताल करें तो राजनीतिक नेतृत्व की उदासीनता के अलावा हमारी भी अपने साहित्यक नायकों के प्रति उदासीनता बड़ी वजह है । कई यूरोपियन देशों में यह परंपरा है कि वहां स्कूल कॉलेजों के अलावा सड़कों और हवाई अड्डों के नाम उनकी भाषा के महान लेखकों के नाम पर रखे जाते हैं । अमेरिका में सड़कों और सरकारी इमारतों के नाम लेखकों के नाम पर हैं । भारत में तो परिवार विशेष के सदस्यों को ही यह विशेष इज्जत बख्शी जाती है । हमारे लिए बेहद अफसोस की बात है कि कोई बड़ा हवाई अड्डा किसी लेखक के नाम पर नहीं है । दिल्ली में कोई सड़क प्रेमचंद से लेकर किसी भी हिंदी के बड़े लेखक के नाम पर नहीं है । हर जगह गांधी, गांधी और गांधी । सड़कों या इमारतों का नाम किसी मशहूर शख्सियत के नाम पर रखने का यह फायदा होता है कि नई पीढ़ी उनके बारे में जानना चाहती है । वह इस बात की तफ्तीश करती है कि अमुक नाम के व्यक्ति का क्या योगदान है । इस तरह से पीढ़ी दर पीढ़ी उस व्यक्ति विशेष की प्रासंगिकता बनी रहती है । हमारे यहां राजनेताओं को यह गौरव हासिल है लेकिन साहित्यकारों को नहीं । इमारतों और सड़कों के नामकरण की तो छोड़िए साहित्यकारों की जन्म शताब्दी पर भी देश में व्यापक आयोजन नहीं होता है । जन्म शताब्दी वर्ष पर समारोह का एलान होता है लेकिन वो बस रस्म अदायगी भर होकर रह जाता है ।
इस साल हिंदी और उर्दू के मशहूर लेखक कृश्न चंदर का जन्म शताब्दी वर्ष है लेकिन अबतक कहीं भी किसी तरफ से कोई सुगबुगाहट नहीं सुनाई दे रही है । ना तो साहित्य अकादमी की तरफ से ना ही उर्दू अकादमी की तरफ से । इन दोनों अकादमियों से अपेक्षा इस वजह से ज्यादा है क्योंकि कृश्न चंदर हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में समान अधिकार से लिखते थे । कृश्न चंदर की हिंदी और उर्दू में रचनात्मक आवाजाही उन्हें एक विशिष्टता प्रदान करती है । कृश्न चंदर के जन्म को लेकर कई भ्रांतियां हैं। कहीं तो इस बात का उल्लेख है कि वो लाहौर में पैदा हुए, कहीं उनका जन्मस्थान पुंछ बताया जाता है तो किसी प्रकाशन में उनके जन्म स्थान के रूप में वजीराबाद का जिक्र है । लेकिन पिछले दिनों एक अखबार में कृश्न चंदर के छोटे भाई उपेन्द्र चोपड़ा के हवाले से खबर छपी कि उनका जन्म राजस्थान के भरतपुर में हुआ था । कृश्न चंदर के पिता डॉक्टर थे और उनके जन्म के समय वो भरतपुर इलाके में तैनात थे । जन्मस्थान चाहे भरतपुर रहा हो लेकिन कृश्नचंदर की मौत के बाद लाहौर से निकलने वाले साप्ताहिक व्यू प्वाइंट में उनका आखिरी खत छपा था । जिसमें कृश्न चंदर ने स्वीकार किया था कि वो लाहौरिया हैं । कृश्न चंदर ने लिखा कि उन्होंने लाहौर में शिक्षा और प्रसिद्धि दोनों पाई । अपने उस खत में कृश्न चंदर ने इस बात को भी शिद्दत से स्वीकार किया था कि लाहौर का उनके लिए वही स्थान है जो शरीर के लिए आत्मा का होता है । आजादी के बाद कृश्न चंदर लाहौर से हिंदुस्तान आ गए । बंटवारे के बाद मिली आजादी को कृश्न चंदर हमेशा से त्रासद आजादी मानते रहे और उसी के आलोक में उन्होंने कई कहानियां और रचनाएं लिखी । यह वही दौर था जब कृश्न चंदर के अलावा सआदत हसन मंटो, बलवंत सिंह, उपेन्द्र नाथ अश्क, अली सरदार जाफरी, राजेन्द सिंह बेदी और यशपाल जैसे तरक्की पसंद लेखक अपनी रचनाओं से समाज को झकझोर रहे थे । एक तरफ मंटो जहां समाज की रूढ़ियों पर चोट कर रहे थे वहीं कृश्न चंदर अपनी रचनाओं के माध्यम से दबे कुचलों और हाशिए के लोगों को वाणी दे रहे थे । उनकी स्थितियों और संघर्ष को चित्रित कर रहे थे । अपनी मशहूर कहानी कचड़ा बाबा में कृश्न चंदर ने बताया है कि किस तरह से कूड़े के ढेर के पास अपनी जिंदगी बसर करनेवाले एक शख्स को जब कूड़े के ढेर में एक लावारिस नवजात मिलता है तो उसकी जिंदगी बदल जाती है । इस कहानी में कृश्न चंदर की रचनात्मकता और उसका व्यापक फलक उभर कर सामने आता है । इसी तरह से जामुन के दरख्त कहानी में कृश्न चंदर ने लालफीताशाही और अफसरशाही को निशाने पर लिया था और बताया था कि किस तरह से वो अपनी ताकत का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं । कृश्न चंदर की कहानियों का रेंज काफी व्यापक था लेकिन सारी कहानियों में एक सूत्र था वह था समाज में फैली कुरीतियों और बुराइयों पर प्रहार । कालांतर में कृश्न चंदर ने फिल्मी दुनिया में भी अपने हाथ आजमाए और उनकी कहानियों पर कई फिल्में भी बनी । कृश्न चंदर के बीस उपन्यास, तीस कहानी संग्रह प्रकाशित हैं । अस्सी के दशक में पाकिस्तान के एक प्रकाशक ने उनकी सौ कहानियों का एक संग्रह भी प्रकाशित किया था । हिंदी में भी उनकी रचनाएं उपलब्ध हैं । हिंदी साहित्य समाज का यह दायित्व बनता है कि कृश्न चंदर के जन्म शताब्दी वर्ष में उनकी रचनाओं के बारे में नई पीढ़ी को बताया जाए । लेकिन सवाल फिर से मुंह बाए खड़ा है कि हम अपनी भाषा के लेखकों का सम्मान कब कर पाएंगे । हमें हमने लेखकों पर गुमान करना होगा तभी हम हमारी भाषा को चौतरफा हमले से बचा पाएंगे । आजादी के बाद गिरिजा कुमार माथुर ने लिखा था- आज जीत की रात पहरुए, सावधान रहना / दुश्मन है खूंखार पहरुए, सावधान रहना । हिंदी पर जिस तरह से हमले हो रहे हैं उसमें हिंदी के पहरुओं को सावधान रहने की जरूरत तो है ही साथ ही आवश्यकता इस बात की भी है कि उसे हर स्तर पर हमें मजबूती देनी होगी । भाषा को मजबूती मिलेगी उसमें रचना करनेवालों को मजबूत करके।
 

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