अभी हाल में एक पत्रिका को दिए साक्षात्कार में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित
वरिष्ठ लेखिका मृदुला गर्ग ने कहा कि – हिंदी का साहित्यक
समाज भय और लालच, मुख्यत: दो ही चीजों से संचालित
होता है । छपे हुए साक्षात्कार की आखिरी पंक्ति है । बेहतर होता कि इस विषय पर थोड़ा
विस्तार से अपनी बात रखती । मृदुला गर्ग के साक्षात्कार के अलावा दूसरी वरिष्ठ लेखिका
मैत्रेयी पुष्पा ने फेसबुक पर रचनाकारों के लिए लिखा - तय करो कि तुम पाठकों के लिए लिखते हो या आलोचकों
के लिए ? कबीर की मिसाल सामने है जिसने समाज के लिए कहा । तुलसी
के लेखन की समीक्षा किसने की ? प्रेमचंद, निराला और रेणु
को जिन्होंने पहले ही हल्ला पटक दिया, बाद में दांतें निपोरते दिखे । इन दिनों समीक्षकों
की योग्यता क्या है ? दोस्ती और दुश्मनी की दलबंदी । पाठकों
में ये दुर्गुण नहीं होता । दोस्त समीक्षक पीठ ठोंके और पाठक अपना माथा पीटें तो हमारी
रचनाओं की जगह कूड़ेदान में होनी चाहिए । हिंदी की दो अलग अलग पीढ़ी की इन दो लेखिकाओं
के स्वर लगभग एक हैं । मृदुला गर्ग ने दो पंक्तियों में अपनी बात कही है तो मैत्रेयी
ने थोड़ा विस्तार से लेकिन तुलनात्मक रूप से तल्खी के साथ अपनी बात रखी है । इन दोनों
के बातों पर फेसबुक पर पक्ष विपक्ष में टिप्पणियां तो चल रही है लेकिन यह विषय ऐसा
है जो गंभीरता से विमर्श की मांग करता है ।
सवाल समीक्षा और आलोचना पर खड़े किए जा रहे हैं । मृदुला गर्ग ने एक तरफ जहां पूरे
साहित्य समाज की प्रवृति पर टिप्पणी की है वहीं मैत्रेयी ने समीक्षा और समीक्षकों पर
टिप्पणी की है । इन दोनों की इन टिप्पणियों को खारिज नहीं किया जा सकता है । इस बात
की प्रबल संभावना है कि इनकी टिप्पणियों के पीछे इनके अनुभव की पृष्ठभूमि होगी । समीक्षा
और समीक्षकों पर पहले भी कई बार सवाल खड़े होते रहे हैं । समीक्षा पर खेमेबंदी से लेकर
रूढ़ होने के भी आरोप लगते रहे हैं । मैत्रेयी जी की तरह समीक्षा पर पहले भी मित्रों
को स्थापित करने और विरोधियों को पछाड़ने के आरोप लगे हैं । यह होता भी रहा है । अब
भी हो रहा है । पहेल भी और अब भी लेखकों और समीक्षकों के समूह और उपसमूह हैं जिनमें
लेखक भी हैं और समीक्षक भी हैं । यह भी एक स्थिति है कि आलोचना और समीक्षा की लगातार
आलोतना के बावजूद लेखक उनकी ओर ताकते भी हैं । ऐसी स्थिति में समीक्षा के वर्तमान परिदृश्य
को सिर्फ इस आधार पर खारिज भी नहीं किया जा सकता है । अगर समीक्षा का वर्तमान परिदृश्य
बहुत उत्साहजनक नहीं है तो स्थिति बहुत निराशाजनक भी नहीं है । कई समीक्षक बेधड़क,
बगैर किसी लाभ लोभ के अपनी बात रखते हैं । हिंदी के लिए यह एक अच्छी स्थिति है कि एक
विचारधारा के प्रभाव और वर्चस्व के बावजूद असहमति के लिए स्पेस है । मैत्रेयी जी ने
निराला का नाम लिया है मैं बहुक विनम्रतापूर्वक उन्हें निराला का वह बयान याद दिलाना
चाहता हूं जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि उनकी कविताएं रामचंद्र शुक्ल सुन रहे हैं
तो तो जैसे समूचा हिंदी साहित्य सुन रहा है । आज हो सकता है कि रामचंद्र शुक्ल जैसा
कोई आलोचक हिंदी में ना हो लेकिन विचार इसपर भी होना चाहिए कि क्या कोई निराला है ।
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