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Monday, July 14, 2014

साहित्य का विकेन्द्रीकरण ?

मोदी सरकार के पहले बजट से साहित्य संस्कृति और कला क्षेत्र की अपेक्षाओं भी बढ़ी हुई थी । कला साहित्य और संस्कृति के प्रशासकों को उम्मीद थी कि इस बार उनके भी अच्छे दिन आएंगे । दिल्ली में मौजूद ऐतिहासिक दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी को भी अपनी बदहाली की दूर होने की उम्मीद थी तो जगह और धन की कमी से जूझ रहे राष्ट्रीय संग्रहालय को भी उम्मीद थी कि बजट में धन आवंटन से राहत मिलेगी। देशभर में सांस्कृतिक अड्डों और अखाड़ों की तरह चलनेवाली अकादमियों को भी उम्मीद थी कि सरकार इस बार उनके लिए बजट में ज्यादा धन का प्रावधान करेगी । साहित्यक और सांस्कृतिक माफिया की अपेक्षाओं पर यह बजट खरा नहीं उतरा । उन्हें इस बात की उम्मीद थी कि जिस तरह से शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए मानव संसाघन मंत्रालय का बजट काफी बढ़ा है उसी अनुपात में इन संस्थानों के धन का आवंटन भी बढ़ेगा । उनकी इन उम्मीदों और अपेक्षाओं पर मौजूदा बजट कितना खड़ा उतरा यह तो इन संस्थाओं के कर्ता-धर्ता जाने लेकिन मुझे लगता है कि सरकार ने बजट में धन आवंटन करते वक्त इन संस्थाओं में व्याप्त अनियमितताओं और साहित्यक माफियागीरी को ध्यान में रखा है । मार्कसवादी सांसद सीताराम येचुरी की अुवाई वाली कला और संस्कृति पर बनी संसदीय कमेटी ने संसद में पिछले साल पेश रिपोर्ट में इस बात के पर्याप्त संकेत दिए गए थे कि कला और साहित्य अकादमियों में काहिली और भाई भतीजावाद चरम पर है । इन अकादमियों के कामकाज पर गंभीर सवाल खड़े किए गए थे ।
हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय और उसकी प्रतिभाओं को सामने लाने के लिए काम करनेवाली संस्था साहित्य अकादमी के बजट में इस बार कटौती कर दी गई है । पिछले वित्तीय वर्ष में साहित्य अकादमी के लिए बाइस करोड़ छियानवे लाख रुपए दिए गए थे जबकि इस साल उसे घटाकर बाइस करोड़ अठहत्तर लाख कर दिया गया है । ऐसे वक्त में जब सरकार हिंदी को बढ़ावा देने के अपने इरादों को सार्वजनिक कर चुकी है, तब साहित्य अकादमी का बजट कम होना चौंकाता है । ऐसे में जब सरकार का कौशल विकास पर जोर है तब साहित्य अकादमी का बजट कम होना हैरान करता है । क्या यह साहित्य अकादमी की सरकार की प्राथमिकता से बाहर होने का संकेत है । यह कहना अभी जल्दबाजी होगी लेकिन अगर इसकी वजह की पड़ताल करें तो इसके लिए साहित्य अकादमी की स्थितियां और उसके प्रशासक जिम्मेदार रहे हैं । साहित्य अकादमी  के कामकाज में ढीलापन, किसी नए प्रयोग की बजाए पुरानी और बनी बनाई लीक पर चलने की जिद, नई प्रतिभाओं की बजाए बुजुर्गों और निष्क्रिय लोगों की अकादमी में नुमाइंदगी, अन्य भारतीय भाषाओं की कृतियों का हिंदी और हिंदी की कृतियों का अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद के काम में दशकों लगना, आदि ऐसे कर्म हैं जिनके बिनाह पर किसी भी संस्थान का सरकार से ज्यादा बजट की अपेक्षा करना गलत है । साहित्य अकादमी में लंबे समय तक वामपंथी रुझान के लेखकों का कब्जा रहा । इस विचारधारा के लोगों को खूब बढ़ावा दिया गया । प्रगतिशील लेखक संघ ने देश में इमरजेंसी लगाने के इंदिरा गांधी के फैसले का समर्थन किया था और इनाम के तौर पर इंदिरा गांधी ने साहित्यक और सांस्कृतिक संस्थाओं को वामपंथी लेखकों के हाथों सौप दिया था । तब से ही वहां भाई भतीजावाद और विचारधारा को मानने वाले लोगों को बढ़ाने का काम शुरू हुआ । नतीजा यह हुआ कि प्रतिभा पृष्ठभूमि में और अनुयायी आगे आते चले गए ।  
उन्नीस सौ चौवन में जब साहित्य अकादमी का गठन हुआ था तो कौशल विकास और शोध प्रमुख उद्देश्य थे । छह दशक तक भटकने के बाद अब इस संस्थान का उद्देश्य अपने लोगों के रेवड़ी बांटने तक सीमित हो गया है । पुरस्कार, विदेश यात्रा, देशभर में गोष्ठियों का नाम पर पसंदीदा लेखक-लेखिखाओं के साथ पिकनिक के अलावा साहित्य अकादमी के पास कोई उल्लेखनीय काम नहीं है । साहित्य अकादमी में व्याप्त खेल का बेहतरीन उदाहरण है एक बड़े लेखक के साथ हुआ पुरस्कार का सौदा । यह वाकया कुछ सालों पुराना है, साहित्य अकादमी के चुनाव के वक्त हिंदी के एक वरिष्ठ लेखक ने उपाध्यक्ष का चुनाव लड़ने का एलान कर दिया। अध्यक्ष पद के उम्मीदवार ने उनको बुलाया और समझाया कि अगर आप उपाध्यक्ष बनेंगे तो साहित्य अकादमी का पुरस्कार नहीं मिल पाएगा । यह बात उनको समझ में आ गई और फिर समझौते के तहत उन्होंने उपाध्यक्ष पद से अपना नाम वापस लिया और अगले ही साल उनको साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिल गया । दरअसल अब वक्त आ गया है कि साहित्य अकादमी के कामकाज की पुर्नसनीक्षा की जाए और उसके गठन की प्रक्रिया पर गहन विमर्श हो । साहित्य अकादमी की गठन प्रक्रिया ही बेहद दोषपूर्ण है और वहीं से अकादमी में औसत प्रतिभा का जुटान होता है जो प्रतिभाशाली लेखकों विचारकों को अकादमी में आने में बाधा उत्पन्न करती है । अभी कई लेखकों ने इस बारे में संस्कृति मंत्री को पत्र लिखकर साहित्य अकादमी में व्यवस्थागत दिक्कतों को दूर करने के लिए प्रयास किए जाने का अनुरोध किया है । साहित्य अकादमी की सामान्य सभा के सदस्यों का चुनाव की प्रणाली दोषपूर्ण है । राज्य सरकारों और सांस्कृतिक संगठन के प्रस्तावित नामों पर पिछली सामान्य सभा के सदस्य हाथ उठाकर और शोर मचाकर फैसला कर देते हैं । इसमें भी सेटिंग-गेटिंग का खेल खेला जाता है । साहित्य अकादमी का संविधान इस मसले पर खामोश है । जरूरत इस बात की है कि संविधान को उचित तरीके से व्याख्यायित किया जाए और सामान्य सभा के सदस्यों का चुनाव मतपत्र के आधार पर हो । अकादमियों की कार्यप्रणाली में सुधार की सख्त आवश्यकता है । दरअसल अब वक्त आ गया है कि स्वायत्ता के नाम पर साहित्य अकादमी और अन्य संस्थाऩों में जारी खेल का सरकार आकलन करे और धन आवंटन को कौशल विकास के साथ जोड़ दे । आखिर कबतक स्वायत्ता के नाम पर प्रतिभाहीनता को बढ़ावा दिया जाता रहेगा । नई सरकार अगर ऐसा कर पाती है तो देश की कला संस्कृति के क्षेत्र में एक नए अध्याय की शुरुआत होगी ।
इसी तरह से दिल्ली के दिल में स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के बजट में भी इस बार कटौती की गई है । पूर्व प्रदानमंत्री इंदिरा गांधी के नाम पर बने इस संस्थान की गतिविधियां क्या हैं यह वहां से जुड़े लोग ही जानते हैं । चंद लोगों के बीच ही इस कला केंद्र की गतिविधियां सीमित हैं । इतने बड़े उद्देश्य को लेकर स्थापित किए गए इस केंद्र को इस तरह से अफसरों की एशगाह में तब्दील हो जाना दुखद है । इसी तरह से कला को बढ़ावा देने की केंद्रीय संस्था ललित कला अकादमी का किस्सा बहुत पुराना नहीं है। भ्रष्टाचार के आरोप में कुछ दिनों पहले वहां बहुत बवाल मचा था । तीन सदस्यों की जांच कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर कई लोगों के खिलाफ कार्रवाई हुई थी । साहित्य अकादमी से इतर कला अकादमी में अलग तरह की राजनीति चलती है । पिछले साल एक चित्रकार की प्रदर्शनी सिर्फ इस वजह से वहां नहीं लगने दी गई क्योंकि उसने चेयरमौन माओ पर चोट करते हुए एक चित्र बनाया था । स्वायत्ता और अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर भगवा ब्रिगेड को कोसेनेवाले इन वामपंथी फासीवादियों के इस चेहरे को भी उजागर किया जाना चाहिए । तमाम भ्रष्टाचार और खेमेबंदी के आरोपों के बावजूद ललित कला अकादमी के बजट में मामूली बढ़ोतरी की गई है । बजट में सरकार सबसे ज्यादा मेहरबान संगीत नाटक अकादमी पर दिखी जिसके बजट आवंटन में करीब छह करोड़ की बढ़ोतरी की गई है।

अकादमियों के अलावा हमारे देश के संग्रहालयों की हालत खस्ता है । ऐतिहासिक महत्व की धरोहर स्थानाभाव के अभाव में या तो खुले में पड़े हैं या किसी धूल भरे गोदाम में सड़ रहे हैं । मोदी सरकार ने अपने बजट में इस ओर ध्यान दिया है और दिल्ली के नेशनल म्यूजियम को करीब सैंतीस करोड़ रुपए ज्यादा आवंटित किए गए हैं । यह धनराशि पिछले वर्ष की तुलना में चौदह करोड ज्यादा है । सरकार ने दिल्ली की बदहाल मगर एतिहासिक दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी के बजट आवंटन में चार करोड़ का इजाफा किया है । संभव है कि इस राशि से दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी को सुधारने में मदद मिले । दरअसल साहित्य कला संस्कृति पर इस बार के बजट आवंटन से जो संकेत मिलता है वह है कि सरकार इन क्षेत्रों में विकेन्द्रीकरण की ओर बढ़ रही है । केंद्रीय संस्थाओं के बजट में कटौती या मामूली बढ़ोतरी की गई है वहीं क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रो के बजट में कई गुणा इजाफा किया गया है । इस बार के बजट में क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रो के लिए एक सौ एक करोड़ पचास लाख का प्रावधान किया गया है जबकि पिछले वर्ष यह आवंटन सिर्फ उनतालीस करोड़ चालीस लाख था । अगर सरकार की मंशा सांस्कृतिक विकेन्द्रीकरण की है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए । 

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