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अगर हम इस द्वन्द्व के बारे में विचार करें तो मंजुल के उपन्यास बेगाने घर में
पिता के मन में पुत्र के जिंदा नहीं होने की पीड़ा है । उपन्यास का केंद्रीय पात्र
किशोरचन्द्र हवेली में अपने तमाम कारकुनों के साथ रहते हुए भी निजता के एकांत क्षणों
में अपने दर्द को महसूसते रहते हैं । पत्नी की याद को संजोकर संदूक में रखते हैं ।
एक प्रसंग में उनका नौकर कहता है – एक सन्दूक में
मालकिन की तस्वीरें थीं, जो मालिक ने दीवारों पर से उतरवा दी थी,उन्हें सहन नहीं होती
थी । एक में बड़े पलंग का बिस्तर, चादरें, मेजपोश बगैरह थे ।कितनों पर तो मालकिन के
हाथ के बेल बूटे कढ़े थे । मालिक ने उन्हें अपने लिए कभी बिछाने न दिया ।‘ बेगाने घर में मंजुल भगत ने अपने समय के परिवेश के बहाने से समाज पर भी तल्ख टिप्पणी
की है । जीते जी याद नहीं करनेवाले रिश्तेदार मरने के बाद गिद्धों कि तरह मंडराने लगते
हैं क्योंकि उन्हें संपत्ति की गंध आकर्षित करती है । इस तरह का माहौल तब भी था अब
भी है । हमारा समाज लाख दावा करे कि वो इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर गया है और आधुनिक
होने कि होड़ में शामिल है, लेकिन संपत्ति की लालच उन्हें तमाम आधुनिकताओं से पीछे
खींच लाती है । मंजुल भगत के इस उपन्यास की एक और खास बात है कि इसमें हवेली के नौकरों
के बीच के संवाद बेहद दिलचस्प हैं । भाषा पर मंजुल का अद्भुत अधिकार है और जिस कथा
को आगे बढ़ाने में संवाद का सार्थक उपयोग मंजुल ने अपने इस उपन्यास में किया है उससे
पढ़ते समय संवाद की जेहन में सिर्फ छवि नहीं बनती बल्कि वो सुनाई भी देते हैं और आपको
उस परिवेश में खींचकर ले जाते हैं । । इसे पढ़ते हुए गांव की पुरानी हवेलियां जेहन
में उपस्थित हो जाती हैं । गनपत और रतनी के बीच के मूक प्रेम को भी मंजुल ने बेहद खूबसूरती
के साथ दबा ही रहने दिया है लेकिन संकेत पर्याप्त दिए हैं । साहित्य में जीवन की सिर्फ
बात ही नहीं करती थी मंजुल बल्कि उन्होंने अपने इस उपन्यास में ग्राम जीवन को उतार
कर रख दिया है ।
इसीतरह से जब मृदुला गर्ग जिस द्वन्द्व की बात करती हैं वह उनके उपन्यास वंशज में
काफी खुलकर सामने आता है । जज शुक्ला और उनके बेटे सुधीर के बीच जटिल संबंध है । इस
संबंध की बुनियाद बचपन में ही पड़ गई थी । सुधीर की मां की अकाल मृत्यु और शुक्ला जी
का बेटी रेवा पर अगाध स्नेह का असर सुधीर के बाल-मन पर पड़ता है और वो बचपन से ही विद्रोही
हो जाता है । पिता अपने पुत्र को दिल की गहराइयों से चाहते हैं लेकिन जिस दौर की यह
कहानी है उस दौर के सारे पिता आमतौर पर कड़कमिजाज होते थे । परवरिश और पिता के रहन
सहन और मन मिजाज ने भी सुधीर को विद्रोही बनाने में मदद की । आजादी की लड़ाई के दौर
में सुधीर का झुकाव संघ की ओर होता है और वो संघ की विचारधारा के प्रभाव में आकर अपने
पिता को अंग्रेजों का पिट्ठू तक समझने लगता है । सुधीर का जो चरित्र मृदुला गर्ग ने
उकेरा है वह बेहद जटिल और उलझा हुआ है । सुधीर के मनोविज्ञान का विश्लेषण करना आसान
नहीं है । संघ की ओर झुकी आत्मा के आधार पर सुधीर अपने पिता से नफरत करता है लेकिन
जब महात्मा गांधी की हत्या के बाद उसके कुछ दोस्त मिठाई बांटने के लिए उससे चलने का
आग्रह करते हैं तो वह आक्रामक हो जाता है । पर सुधीर यहीं रुकता है । कालांतर में जब
वो धनबाद में नौकरी करने जाता है या फिर अरनी फैक्ट्री लगाता है तो मजदूरों के हितों
की वकालत करते हुए कॉमरेड नजर आता है । इतने जटिल चरित्र की रचना करते हुए भी मृदुला
गर्ग उसको अंत तक संभालने में कामयाब रहती हैं । इस तरह से हम कह सकते हैं कि उपर से
दिखने में यह उपन्यास भले ही पारिवारिक, पिता-पुत्र के संबंधों और द्वन्द्वों पर लिखा
गया लगे लेकिन अगर गहनता और सूक्षम्ता से पड़ताल करें तो आजादी के पहले और उसके बाद
के दौर की राजनीति और नौकरशाही पर भी यह टिप्पणी करता चलता है ।
अंत में अचला बंसल की एक
अपेक्षाकृत छोटी कहानी कैरम की गोटियां हैं । इस कहानी का आकार भले ही छोटा है लेकिन
कैनवस बड़ा है । जिस तरह से मंजुल और मृदुला ने अपने उपन्यासों में ग्रामीण परिवेश
को कथा का आदार बनाया है, वहीं अचला ने शहरी परिवेश के आधार पर कहानी बुनी है यहां पीढ़ियों के बदलाव का मनोविज्ञान है । कैरम
की गोटियां दरअसल जिंदगी की काली सफेद गोटियां हैं जो पात्रों को चुनौती देती हैं ।
इन तीनों रचनाओं को पढ़ने के बाद सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि इन रचनाओं के लेखकों ने
अपने समय का इतिहास नहीं लिखा है बल्कि अपने समय के इतिहास का इस्तेमाल किया है । नतीजा
यह कि बदले हुए वक्त में भी येरचनाएं वर्तमान से कदमताल कर सकती हैं ।
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