सलमान रश्दी, विश्व प्रसिद्ध लेखक । अपने लेखन, व्यक्तित्व और बयानों से विवादों में
बने रहने वाले । ये वही सलमान रश्दी हैं जिनकी किताब सैटेनिक वर्सेस के खिलाफ चौदह
फरवरी उन्नीस सौ नवासी को ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्ला खोमैनी ने मौत का फतवा जारी
किया था जिसके बाद वो वर्षों तक निर्वासन में रहे । इसके पहले उन्नीस सौ चौरासी में
सलमान रश्दी ने ज़ॉर्ज ऑरवेल की अवधारणा को निगेट करते हुए विवादित लेख लिखा था । ऑरवेल
लेखकों के राजनीति से अलग रहने की वकालत करते थे लेकिन सलमान ने इस अवधारणा को खारिज
करते हुए कहा था लेखन को राजनीति से मिलकर चलना होगा । हलांकि सलमान ने उस वक्त भी
लेखन और राजनीति के मेल को घटिया करार दिया था लेकिन उसको जरूरी भी बताया था । इस पर
भी उन दिनों काफी विवाद हुआ था । इसी वक्त लगभग सलमान ने अमेरिकी उपन्यासकार मैरियन
विगिन्स से शादी की जो खासी विवादास्पद रही । उस दौर के अमेरिका के अखबार इस विवाद
से रंगे रहते थे । अब ताजा विवाद उनके एक ट्वीट को लेकर पैदा हो गया है । उन्होंने
अपने एक ट्वीट में लिखा- ग्रम्पी ओल्ड बास्टर्ड, जस्ट टेक योर प्राइज एंड से थैंक यू
नाइसली । आई डाउट यू हैव इवन रेड द वर्क यू अटैक । ये विस्फोटक ट्वीट उन्होंने किया
था इस बार के ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता मराठी के वरिष्ठ लेखक भालचंद नेमाडे के बारे
में । दरअसल नेमाडे ने एक कार्यक्रम में सलमान रश्दी की किताब मिडनाइट चिल्ड्रन को
औसत साहित्यक कृति करार दिया था । नेमाडे ने कहा था कि सलमान रश्दी और वी एस नायपॉल
पश्चिम के हाथों खेल रहे हैं । अपने उस बयान में नेमाडे ने अंग्रेजी के खिलाफ बहुत
कुछ कहा था और उनके अपने तर्क थे । सलमान रश्दी को नेमाडे की बातें नागवार गुजरीं और
उन्होंने भाषिक मर्यादा को ताक पर रखते हुए गाली गलौच की भाषा में ट्वीट किया । सलमान
रश्दी को शायद पता हो कि नेमाडे अंग्रेजी के ही शिक्षक रहे हैं और लंदन के मशहूर स्कूल
ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज में शिक्षक रह चुके हैं । तो सलमान रश्दी का ये संदेह
बेकार है कि उन्होंने बगैर पढ़े उनके साहित्य को औसत कह दिया । भालचंद नेमाडे ने यह
भी बताया था कि क्यों सलमान और नायपाल की रचनाएं पश्चिम के इशारे पर लिखी जा रही हैं
। उनके अपने तर्क हैं, रश्दी को बजाए गाली गलौच की भाषा इस्तेमाल करने के तर्कों के
आधार पर नेमाडे की प्रस्थापना को काटना चाहिए था ।
अब अगर सलमान रश्दी के लेखन की बात की जाए तो बहुत हद
तक नेमाडे सही भी कह रहे हैं । पिछले दिनों उनकी किताब जोसेफ एंटन अ मेमोऑर प्रकाशित
हुई थी । साढे छह सौ पन्नों के इस ग्रंथ में बोरियत की हद तक विस्तार दिया है । इसको
खारिज नहीं किया जा सकता लेकिन बेहद ऊबाऊ तो कहा ही जा सकता है । चंद दिलचस्प अंशों
को छोड़कर जहां वो अपने निर्वासन के दिनों का वर्णन करते हैं । पलायन इस संस्मरणात्नमक
किताब की सेंट्रल थीम है लेकिन वो पाठकों को पलायन से नहीं रोक पाते हैं । इसी वजह
से इस किताब को लेकर कहीं कोई उत्साह नहीं दिखा । निर्वासन के दौरान ही लिखा उनका उपन्यास
द मूर’स लास्ट साय भी कोई खास
प्रभाव पैदा नहीं कर पाया था और लंदन और अमेरिका के अखबारों में उसकी विध्वंसात्मक
समीक्षाएं प्रकाशित हुई थी । नेमाडे ने पश्चिम के हाथों खेलने का जो आरोप लगाया है
वो कोई नया आरोप नहीं है तो इससे अब क्यों तिलमिला रहे हैं यह समझ से परे हैं । रही
बात वीएस नायपाल की तो उनको नोबेल पुरस्कार अवश्य मिला है लेकिन उनके बाद के लेखन में
खास किस्म का ह्रास देखने को मिलता है । जो रचनात्मक चमक मिस्टिक मैसअर, सफरेज ऑफ अलवीरा
या मायगुल स्ट्रीट में दिखाई देती है वो एन एरिया ऑफ डार्कनेस, इंडिया अ वूंडेड सिविलाइजेशन
या इंडिया अ मिलियन म्यूटिनी नाऊ तक आते आते निस्तेज होने लगती है । उम्र बढ़ने के
साथ साथ नायपाल के लेखन में एक ठहराव सा आ गया और विचारों में जड़ता भी । इस्लामिक
जगत के जीवन का उन्होंने बहुत ही विवादास्पद चित्र खींचा है । बाबरी मस्जिद को ढहाए
जाने को जिस तरह से उन्होंने परोक्ष रूप से सही ठहराया वो भी लेखकों के सामने है ।
गांधी के बारे में वो लिखते हैं कि उनमें किसी तरह की पूर्णता थी ही नहीं, उनका व्यक्तित्व
यहां वहां से उटाए टुकड़ों ने निर्मित हुआ था । बिनावो के बारे मे लिखते हैं कि वो
एक मूर्ख शख्सियत थे जिन्होंने पचास के दशक में गांधी की नकल करने की कोशिश की । नीरद
सी चौधरी को वो शारिरिक और मानसिक दोनों दृष्टियों से बौना करार दे चुके हैं । तभी
तो विलियम डेलरिम्पल ने लिखा है कि एक लेखक के रूप में नायपाल का अंत हो चुका है जितना
ज्यादा वो अपने अनुभवों के बारे में लिखते हैं उनकी कलम उतनी ही नपुंसक होती जाती है
।
दरअसल अगर हम देखें तो सलमान रश्दी की नेमाडे को लेकर
जो भड़ास है वो भारतीय लेखकों का वैश्विक परिदृश्य पर बढ़ते दबदबे की परिणति है । पिछले
लगभग एक दशक से जिस तरह से भारतीय लेखकों ने अंग्रेजी साहित्य में अपनी धमक कायम की
उससे सलमान और नायपाल के अलावा कुछ अंग्रेजी लेखक घबराए हुए हैं । उनकी पूछ और लोकप्रियता
दोनों कम होने लगी है । जिस तरह से एशियाई लेखकों को पुलित्जर और बुकर मिलने लगे उसपर
अंग्रेजी लेखक एलेक्स ब्राउन ने कहा भी था कि हमें डर लगने लगा है । चंद वर्षो पहले
तक भारत के बारे में अंग्रेजी लेखक संपेरों के देश से लेकर कुछ भी कह जाते थे लेकिन
बच जाते थे । अब उनको जवाब मिलने लगा है । ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब हॉवर्ड के प्रोफेसर
और इतिहासकार नायल फर्ग्यूसन की किताब- सिविलाइजेशन, दे वेस्ट एंड द रेस्ट छपी थी तो
पंकज मिश्रा ने लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स में उसकी विध्वंसात्मकक समीझा लिखी थी । पंकज
ने साफ साफ लेखक से पूछा था कि क्या महात्मा गांधी के बिना पिछली सदी की सभ्यता का
मूल्यांकन संभव है । क्या चीन की उत्पादन क्षमता और भारत के टैक्नोक्रैट के योगदान
को नजरअंदाज किया जा सकता है । तिलमिलाए नायल ने पत्रिका को लिखे अपने पत्र में कहा
था कि पंकज मिश्रा ने उनके लेखन की तुलना अमेरिकी नस्लवादी सिद्धांतकार लॉथ्रॉप स्टोडार्ड
की किताब द राइजिंग टाइड ऑफ कलर अगेंस्ट व्हाइट सुप्रीमेसी से की है । उन्होंन मिश्रा
को कोर्ट आदि जाने की धमकी भी दी थी । लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स में कई अंकों तक ये विवाद
चला था लेकिन पंकज मिश्रा डटे रहे थे और एलआरबी ने भी पंकज का ही समर्थन किया था ।
इस तरह के वाकयों से साफ है कि पश्चिम में रह रहे लेखकों को यह गंवारा नहीं है कि उनके
अलावा कोई और लेखक सामने आए या उनके लेखन पर कोई सवाल उठाए
अगर हम विस्तार से वैश्विक अंग्रेजी साहित्य के परिवेश
को देखें तो सलमान रश्दी के फ्रस्टेशन की वजह साफ हो जाती है। सलमान भारत आते जाते
रहते हैं, यहीं पैदा भी हुए हैं, उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार की प्रतिष्ठा का भी ज्ञान
होगा । उन्हें चोट इस बात से पहुंची होगी कि इतने सम्मानित पुरस्कार से नवाजा गया लेखक
उनके लेखन को औसत मानता है । इसी परेशानी में वो मर्यादा भूल गए और ट्वीट पर अपनी कुंठा
को उड़ेल दिया । सलमान रश्दी ने अपने लेखन के नहीं पढ़े जाने की बात की है उसमें मैं
सिर्फ इतना जोड़ना चाहूंगा कि क्या सलमान ने नेमाडे के साहित्य को पढ़ा है । अगर नहीं
तो पढ़ लें तो उन्हें एहसास हो जाएगा कि नेमाडे कितना सही कह रहे थे । आग्रह सिर्प
इतना है कि इस तरह की भाषा से उनकी छवि दरकती ही है मजबूत नहीं होती।
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