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Friday, February 27, 2015

पुस्तक नहीं लेखक मेला

10 मई 1933 का बदनाम बर्लिन बुक बर्निंग जब हुआ था तब वो हिटलर के उत्थान और ताकतवर होने का दौर था । नाजीवादी यह मानते थे कि साहित्य मनुष्य की भावनाओं को जगाता है और भावना लोगों को दुर्बल बना देती है । उनका मानना था कि अगर जर्मनी को दुनिया फतह पर करना है तो कमजोर लोगों से काम नहीं चल सकता । लिहाजा विश्व साहित्य की महत्वपूर्ण कृतियों को बर्लिन विश्वविद्यालय के विशाल प्रांगण में जला दिया गया था । इसे बुक बर्लिन ब्लास्ट या बर्लिन बुक ब्लास्ट के नाम से जाना जाता है । जिस दिन किताबें जलाई गई उसी दिन अब हर साल बर्लिन विश्वविद्यालय के उसी जगह को विश्व भर की किताबों से पाट दिया जाता है । उन लेखकों के नाम लिखे जाते हैं जिनकी किताबें 1933 में जला दी गई थी । बर्लिन में उस दिन को किताब उत्सव की तरह मनाया जाता है । हर जगह पर लोग किताब पढ़कर एक दूसरे को सुनाते हैं, रेस्तरां से लेकर फुटपाथ तक, चौराहों से लेकर पार्कों तक में । यह विरोध का अपना एक तरीका है । इस घटना को बताने के पीछे उद्देश्य यह है कि जर्मनी में एक पुस्तक संस्कृति विकसित होती चली गई और अब ई बुक्स के दौर में भी किताबों की महत्ता कम नहीं हुई । लेकिन उसके उलट भारत में किताबों की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत होने के बावजूद हम उत्तरोत्तर किताबों से दूर होते चले गए । हमारे यहां इतने महाकाव्य है जो कि विश्व की अन्य भाषाओं में दुर्लभ हैं । फिर क्या वजह रही कि हमारा हिंदी समाज पुस्तकों से दूर होता चला गया ।
आज खत्म हो रहे दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में जाकर पुस्तकों के प्रति पाठकों के घटते प्रेम का अंदाज लग सकता है । दिल्ली का ये विश्व पुस्तक मेला ना होकर भारतीय लेखक मेला सरीखा लगता है । यहां किताबों के खरीदार गंभीर पाठक कम किताबों के गंभीर अगंभीर लेखकों का मेला लगा रहता है । इतनी बड़ी संख्या में किताबों का प्रकाशन हुआ है जिसके अनुपात में इन किताबों की बिक्री हुई हो इस बारे में संदेह होता है । नई नई प्रवृत्तियों के मुताबिक किताबें प्रकाशित हो रही हैं । घटिया काव्य संग्रहों की बाढ़ आई हुई है । फेसबुक पर की जा रही हल्की फुल्की रचनाओं को किताब की शक्ल दी जा रही है । रचना प्रक्रिया साधना है लेकिन यहां तो वह मशहूर होने और सोशल नेटवर्किग साइट पर चेहरा चमकाने का जरिया मात्र है । कई विमोचनों के दौरान लेखकों को यह कहते सुना गया कि फोटो इस तरह से खींची जानी चाहिए कि उसको फेसबुक की कवर पिक्चर के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके । फेसबुक का इस्तेमाल गलत नहीं है और मैं हमेशा से इस बात की पैरोकारी करता रहा हूं कि फेसबुक और अन्य सोशल साइट्स का इस्तेामाल लेखक करें । लेकिन फेसबुक ने जिस तरह से हिंदी के नए लेखकों के बीच छपास रोग को जन्म दिया है वह चिंता का विषय है । फेसबुक ने औसत तुकबंदी करनेवालों को कवि बनने का मौका दे दिया । फेसबुक ने जुमले बाजी करनेवालों को कहानीकार बनने का मौका दे दिया । प्रकाशकों ने लेखकों की मशहूर होने की इस महात्वाकांक्षा को हवा देते हुए अपने कारोबार को चमकाने का एक रास्ता तलाश लिया । यहां भी एक बात रेखांकित की जानी चाहिए कि जो बड़े या स्थापित प्रकाशक हैं उन्होंने इस रास्ते को ठुकराया लेकिन प्रकाशन जगत में भी तो कई घुसपैठिए जो साहित्य का नुकसान कर रहे हैं । इस साल के पुस्तक मेले के अनुभव पर ये कहा जा सकता है कि हिंदी प्रकाशन संस्थानों की भी ग्रेडिंग की जानी चाहिए । उनकी साख और टर्नओवर आदि के आधार पर कोई सिस्टम बनना चाहिए । इससे ये साफ होगा कि अमुक प्रकाशक ने छापा है तो रचना स्तरीय होगी । इससे पाठकों का साहित्य में भरोसा वापस लाने में मदद मिलेगी ।  


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